Talaq-E-Hasan: सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में एक याचिका दाखिल हुई है, जिसमें एक मुस्लिम महिला ने तलाक-ए-हसन और एकतरफा वैवाहिक तलाक के बाकी सभी रूपों को असंवैधानिक घोषित करने का अनुरोध किया है. याचिकाकर्ता का कहना है कि वह तलाक-ए-हसन का शिकार हुई है.पुलिस और अधिकारियों ने उसे बताया कि शरीयत के तहत तलाक-ए-हसन की इजाजत है. हालांकि सोमवार को सुप्रीम कोर्ट कोर्ट ने इस पर तुरंत सुनवाई से इनकार कर दिया. कोर्ट ने कहा कि इसे बाकी लंबित मामलों के साथ ही सुना जाएगा. 


गाजियाबाद की रहने वाली बेनजीर हिना का कहना है कि तलाक-ए-हसन संविधान के खिलाफ है और मुस्लिम मैरिज एक्ट 1939 में एकतरफा तलाक देने का हक सिर्फ पुरुषों को ही है. बेनजीर ने मांग की है कि केंद्र सरकार सभी धर्मों, महिलाओं और पुरुषों के लिए एक समान तलाक का कानून बनाए. बेनजीर हिना का आरोप है कि उनके पति ने दहेज के लिए उनका उत्पीड़न किया और विरोध करने पर एकतरफा तलाक का एलान कर दिया. आइए आपको बताते हैं कि आखिर तलाक-ए-हसन क्या है.


तलाक-ए-हसन की परिभाषा


इसमें पति तीन अलग-अलग मौकों पर बीवी को तलाक कहकर या लिखकर तलाक दे सकता है. इसमें 'इद्दत' खत्म होने से पहले तलाक वापसी का मौका रहता है. तीसरी बार तलाक कहने से पहले तक शादी लागू रहती है लेकिन बोलने के तुरंत बाद खत्म हो जाती है. इस तलाक के बाद पति-पत्नी दोबारा शादी कर सकते हैं. लेकिन पत्नी को इसमें हलाला कराना पड़ता है.


तीन लगातार तलाक की अवधि को संयम की अवधि कहा जाता है. संयम या 'इद्दत' की अवधि 90 दिन या तीन मासिक चक्र या तीन चंद्र महीने है. अगर इस संयम की अवधि के दौरान पति-पत्नी संबंध बनाते हैं तो तलाक को रद्द कर दिया जाता है. तलाक के इस रूप को पेश करने के पीछे विचार यह था कि एक बार में ही तलाक न हो जाए. 


अब सवाल उठता है कि अगर ट्रिपल तलाक को 2017 में असंवैधानिक घोषित कर दिया गया था तो अब इसे चुनौती क्यों दी जा रही है. 


साल 2017 में तलाक-ए-बिद्दत को शायरा बानो बनाम भारत संघ के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक घोषित कर दिया था. इसमें पुरुष एक साथ तीन तलाक बोलता था और शादी खत्म हो जाती थी. साल 2017 में सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की बेंच ने 3:2 के अनुपात से इस तरह के तलाक को असंवैधानिक घोषित कर दिया था. मनमाना होने और कुरान के खिलाफ होने के आधार पर इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया गया था. अब जिस तलाक के रूप को चुनौती दी गई है, वो है तलाक-ए-हसन. ये इस्लाम में तलाक के दो अलग-अलग प्रारूप हैं, जिसे अलग से चुनौती दी गई है.


तलाक-ए-हसन की संवैधानिक वैधता को लेकर क्या तर्क दिए जाते हैं?


इस्लाम में तलाक को इसलिए लाया गया था ताकि अगर पुरुष और महिला खुश नहीं हैं तो वे शादी को खत्म कर सकें. कुरान के मुताबिक, तलाक-ए-हसन तलाक की वो प्रक्रिया है, जिसका पालन पुरुष करते हैं. बताया जाता है कि इसमें मनमाना कुछ भी नहीं है क्योंकि महिलाओं को भी तलाक लेने का अधिकार है. महिला के कहने पर तलाक की शुरुआत की प्रक्रिया को 'खुला' कहा जाता है. 


क्या तलाक-ए-हसन संविधान के आर्टिकल 14, 15, 21 और 25 का उल्लंघन है?


संविधान का अनुच्छेद 25 सभी को बिना किसी दखल के अपने धर्म का पालन करने का अधिकार देता है. पर्सनल लॉ को रेग्युलेट करने के लिए तय प्रावधान यहीं से आते हैं. उन क़ानूनों में से एक मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937 है, जिसे तलाक-ए-हसन याचिका में सुप्रीम कोर्ट के सामने चुनौती दी गई है.


इस्लाम की धार्मिक मान्यताओं के तहत कुछ पर्सनल कानून बनाए गए हैं, जिसका सभी मुस्लिम शरीयत कानून के मुताबिक पालन करते हैं. इस्लामी धार्मिक कानूनों में बिना कोर्ट जाए तलाक को मान्यता दी गई है और इसलिए, शरीयत अधिनियम ने कानूनी रूप से बिना कोर्ट जाए तलाक की प्रथा की इजाजत दी है.  यह कानून पति और पत्नी दोनों को इसका अधिकार देता है. पुरुषों को यह अधिकार तलाक-ए-हसन के तहत दिया गया है जबकि महिलाओं को 'खुला' के तहत.


अगर कोई मुस्लिम  महिला तलाक चाहती है तो वह बिना कोर्ट जाए परिवार के जिम्मेदार लोगों के बीच मौखिक या कानूनी नोटिस से ऐसा कर सकती है. मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एक्ट, 1937 के सेक्शन 2 के तहत यह अधिकार दिया गया है.


केरल हाई कोर्ट ने क्या कहा था?


हाल ही में यही बात केरल हाई कोर्ट की डिविजन बेंच ने भी कही थी, जिसमें अदालत ने कहा था कि  डिस्सॉल्यूशन ऑफ मुस्लिम मैरिज एक्ट का मकसद सभी मुस्लिम महिलाओं को न्यायिक तलाक का हक देना था. कोर्ट ने आगे कहा था कि शरीयत एक्ट के सेक्शन 2 में  'तलाक,' 'इल्ला,' 'जिहार,' 'लियान,' 'खुला', 'मुबारत' आदि के जरिए पर्सनल लॉ की पहचान की है और अदालत के हस्तक्षेप के बिना तलाक को वैधानिक रूप से मान्यता दी है.


कोर्ट ने आगे कहा, 'शरीयत अधिनियम 1937 की धारा 2 में जिस अतिरिक्त न्यायिक तलाक के तरीकों का जिक्र है, वो डिस्सॉल्यूशन ऑफ मुस्लिम मैरिज एक्ट से अछूते हैं.अधिनियम के प्रावधानों का इरादा कभी भी एक मुस्लिम महिला के लिए उपलब्ध गैर न्यायिक तलाक की प्रथा को खत्म करने का नहीं था. '


कोर्ट ने यह भी माना कि मुस्लिम महिलाओं के पास खुला का अधिकार है और यह पति की सहमति या सहमति पर निर्भर नहीं करता है. हालांकि वो मामले, जहां गैर न्यायिक तलाक मुमकिन नहीं है, वहां महिला को कानूनी तरीकों से तलाक लेना होगा, जिसका प्रावधान डिस्सॉल्यूशन ऑफ मुस्लिम मैरिज एक्ट, 1939 में दिया गया है. 


इस्लाम में किन तरीकों से दिया जाता है तलाक


तलाक-ए-अहसन


इस्लाम में तलाक के एक प्रारूप तलाक-ए-हसन के बारे में तो हम आपको बता चुके हैं. एक तरीका तलाक-ए-अहसन होता है. इसमें तीन महीने में तलाक दिया जाता है. इसमें तीन बार तलाक बोलना जरूरी नहीं है. एक बार तलाक होने के बाद शौहर और बेगम एक ही घर में तीन महीने तक रहते हैं. अगर दोनों में तीन महीने के भीतर सहमति बन जाती है तो तलाक नहीं होता है. दूसरे शब्दों में कहें तो वे तीन महीने में तलाक ले सकते हैं. अगर सहमति नहीं होती है तो तलाक हो जाता है. हालांकि पति-पत्नी फिर से शादी कर सकते हैं. 


तलाक-ए-बिद्दत


तलाक-ए-बिद्दत या तीन तलाक में पति किसी भी वक्त, फोन पर या लिखकर पत्नी को तलाक दे सकता है. इसके बाद तुरंत शादी खत्म हो जाती है. तीन बार तलाक कहने के बाद इसको वापस नहीं ले सकते. पति-पत्नी दोबारा शादी तो कर सकते हैं लेकिन उसके लिए हलाला की प्रक्रिया अपनाई जाएगी. अधिकतर मुस्लिम उलेमाओं का कहना था कि यह कुरान के मुताबिक नहीं था.  हालांकि सुप्रीम कोर्ट इसे गैरकानूनी करार दे चुका है. 1 अगस्त 2019 के बाद ऐसा करना गैर-जमानती अपराध है. इसके तहत 3 बरस कैद की सजा है. पीड़ित महिला नाबालिग बच्चे के लिए गुजारा भत्ता मांग सकती है. 


ये भी पढ़ें


Talaq-E-Hasan पर तुरंत सुनवाई से Supreme Court का इनकार, कहा- दूसरे लंबित मामलों के साथ इसे बाद में सुनेंगे


Triple Talaq Case: सहकर्मी से प्यार के बाद सरकारी अधिकारी ने दिया बीवी को ट्रिपल तलाक, मिली एक साल जेल की सजा