नई दिल्ली: बसंत वह मौसम है जब सूरज की रोशनी और चांद की शीतलता दोनों से ही दिल-अजीज हो जाती है. लहराती सरसों और रंग-बिरंगे फूल जिंदगी को खुशनुमा बना देते हैं. प्रकृति के सतरंगी होने के साथ ही हमारे दिल में भी मोहब्बत के सरगम की धुन बजने लगती है. प्रकृति की अंगड़ाई के साथ ही क्या युवा और क्या उम्रदराज लोग सबके दिल की उमंगे अंगड़ाई लेने लगती है, एक नया ख्वाब पलने लगता है. मानव के प्रेमी हृदय में खुमार की मस्ती छाने लगती है. ऐसे में कामदेव अपने बाणों को तरकश से निकाल मानव के दिल-ओ-दिमाग में पर कुछ इस कदर अंकित कर लेते हैं कि फ़ैज हर प्यार करने वालों के लिए इस बसंती बहार में कह उठते हैं
गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
इन पंक्तियों के साथ ही याद आ जाते हैं मशहूर शायर फैज़ अहमद फैज़. वही फैज़ जो खुद इस बसंती मौसम में इस दुनिया में आए थे. उनका जन्म 13 फरवरी 1911 में सियालकोट में हुआ. वही सियालकोट जो कभी अविभाजित हिन्दुस्तान का हिस्सा था लेकिन अब पाकिस्तान में है. फैज़ ने बसंत पर और इस मौसम में महसूस होने वाले प्यार पर कई ग़ज़ल, शेर और नज़्म लिखे. वह तो इस मौसम-ए-गुल को इस तरह मानते थे जैसे इसमें किसी का महबूब उससे मिलने छत पर आया हो. तभी उन्होंने लिखा
रंग पैराहन का ख़ुशबू ज़ुल्फ़ लहराने का नाम
मौसम-ए-गुल है तुम्हारे बाम पर आने का नाम
जब फैज ने मंटो से पूछा-क्लास में क्यों नहीं आते ?
1916 में, फैज़ ने मौलवी इब्राहिम सियालकोटी जो एक क्षेत्रीय विद्यालय था उसमें प्रवेश लिया. बाद में स्कॉट मिशन हाई स्कूल में दाखिला लिया जहां उन्होंने उर्दू, फारसी और अरबी का अध्ययन किया. उन्होंने अरबी में स्नातक की डिग्री हासिल की. फैज़ गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर से मास्टर्स करने के बाद 1935 में लेक्चरर के रूप में अमृतसर गए. वहां उनकी मुलाकात महान अफसानानिगार सआदत हसन मंटो से हुई जो उस वक्त कॉलेज में फैज़ के छात्र थे.
एक दिन फैज़ ने उनसे पूछा, ''क्यूं भई, क्लास में क्यों नहीं आते हो? क्या करतें हो सारा दिन?'' इसका मंटो ने जवाब दिया कि वह अपना सारा समय अंग्रेजी से उर्दू में कहानियों और उपन्यासों का अनुवाद करने में बिताते हैं. फैज़ ने मंटो को अपने अनुवादों के कुछ नमूने कक्षा में लाने के लिए कहा और फिर मंटो ने ऐसा ही किया. नमूना देखने के बाद फ़ैज़ ने कहा, "ठीक है, आपको कक्षा में नहीं आना है, जो आप कर रहे हैं उसे करते रहिए."
इस वाकये से जो बात साबित होती है वह यह है कि फैज़ के कद का ही कोई कवि मंटो जैसे लेखक की लेखनी को प्रोत्साहित कर सकता है. 1955 में जब मंटो की मृत्यु हो गई तो फैज़ ने अपनी पत्नी को लिखा, “मंटो की मौत के बारे में सुनकर मुझे बहुत दुख हुआ. अपनी सभी कमियों के बावजूद वह मुझे बहुत प्रिय था और मुझे गर्व है कि वह अमृतसर में मेरा छात्र था. हालांकि वह शायद ही कभी कक्षा में आता था, लेकिन हम अक्सर अपने घर पर मिलते और अंतोन चेखव, सिगमंड फ्रायड जैसे लोगों पर बहस किया करते थे.''
फैज़ ने मंटो पर लगाए गए आरोपों के खिलाफ मंटो का बचाव किया. इसलिए नहीं क्योंकि वह मंटो की कला और उनके लेखनी से बहुत ज्यादा प्रभावित थे बल्कि इसलिए क्योंकि उनका मानना था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक बुनियादी मानव अधिकार है जिसका हर कीमत पर बचाव किया जाना चाहिए.
फैज की यही सोच रही कि उन्होंने लिखा
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बां अब तक तेरी है
तेरा सुत्वां जिस्म है तेरा
बोल कि जां अब तक तेरी है
फैज़ में रुमानियत भी है और इंकलाब भी
ऐसा नहीं कि फैज़ ने सिर्फ इश्क़ या इसके अहसासों को लिखा. उनकी लेखनी के मिजाज में रुमानियत भी थी और इंकलाब भी. शायर के अलावा वह पत्रकार, फौजी, ट्रांसलेटर और आधा दर्जन से ज्यादा लैंग्वेज जानने वाले एक व्यक्ति भी थे.
बात उनकी लेखनी पर करें तो जिंदगी की कशमकश और नाइंसाफी के खिलाफ बगावत उनकी कविता में देखने को मिलती है. प्रेम का प्रतिनिधित्व करते-करते जब फैज देखते हैं कि समाज में जो सुविधाएं है वो सिर्फ चंद लोगों के हाथों में है तो उनकी कलम छटपटाने लगती है और वह एक ऐसी रचना रच देते हैं जो क्या पाकिस्तान और क्या भारत पूरी दुनिया के मजदूरों के लिए एंथम बन गया .
हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे,
इक खेत नहीं, इक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे
जब जेल गए फैज़
फैज़ का परिवार बंटवारे के बाद पाकिस्तान चला गया. लेकिन यह कलमकार वहां के निजाम के शोषण के खिलाफ भी लिखता रहा. इसी कारण उन्हें कई तरह की तकलीफों का भी सामना करना पड़ा. 1951 में पाकिस्तान के रावलपिंडी में पीएम लियाकत अली खां का तख्ता पलटने की साजिश हुई. इस साजिश का भंडाफोड़ हुआ, लोगों की गिरफ्तारियां हुईं, गिरफ्तार लोगों में फैज अहमद फैज़ भी शामिल थे.
फैज के खिलाफ इल्जाम साबित ना हो सके और वो 1955 में रिहा हो गए. लेकिन जेल में रहते हुए भी फैज़ ने कई शेर और नज़्मे लिखीं. उनकी जेल में लिखी शायरी ‘जिंदान नामा’ (कारावास का ब्योरा) के नाम से छपी.
मताए लौह-ओ-कलम छिन गई तो क्या गम है
कि खून-ए-दिल में डूबो ली हैं उंगलियां मैंने
जुबां पे मुहर लगी है तो क्या, कि रख दी है
हर एक हल्का-ए-जंजीर में जुबां मैंने
फैज ने न सिर्फ लिखा बल्कि ऐसा लिखा जो आज तक जिंदा है और आगे भी कई सालों तक जिंदा रहेगा. फैज़ की लेखनी को सरहदों में नहीं बांटा जा सकता क्योंकि उनके कलम से निकला मोहब्बत का पैगाम हो या इंकलाबी बोल वो सरहदों के दोनों तरफ उसी तरह से अपनाए गए जैसे खुद फैज़ को उनके चाहनेवालों ने अपनाया.
सरहद के उस पार लाहौर विश्वविद्यालय हो या सरहद के इस पार जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का परिसर, ''बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे'' हर जगह क्रांति के इस बोल का इस्तेमाल एक जैसा होता है.
फैज़ को न मजहबों में बांटा जा सकता है और न सरहदों में क्योंकि इंकलाब और मोहब्बत पर बंदिशें लगाना उतना ही मुश्किल है जितना फिजाओं में फैले खुशबू को पिंजरे में कैद करना. फैज़ की लेखनी उनको एक "क्रॉस-कल्चरल" कवि के रूप में पहचान देती है, जहां कीट्स भी है, शेली भी है, जहां हाफ़िज़ भी है और रूमी भी है, जहां ग़ालिब भी है और इकबाल भी है.
वैसे तो फैज़ के इंतकाल को काफी वक्त हो गया लेकिन वह हर रोज अपनी शायरी के जरिए जीवंत हो जाते हैं और वह तब तक जीवित रहेंगे जब तक किसी भी मुल्क का रहबर तानाशाही रवैया अपनाता रहेगा. उस तानाशाह को फैज़ के शब्दों से लोहा लेना ही पड़ेगा. वो अलग बात है कि आज फैज़ खुद नहीं बल्कि उनकी पंक्तियों की उंगली थामे सड़कों पर, सरकारी दफ्तरों के बाहर, कॉलेज और यूनिवर्सिटी में नौजवान कहते दिखते हैं
निसार मैं तेरी गलियों के ए वतन, कि जहां
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जां बचा के चले
बोल ये थोड़ा वक़्त बहोत है
जिस्म-ओ-ज़बां की मौत से पहले
बोल कि सच ज़िंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहना है कह ले
आज फैज़ जिंदा हैं मुल्क के हुक्मरान के खिलाफ आवाज़ बुलंद करते व्यक्ति के साथ, आज फैज़ जिंदा हैं मोहब्बत का पैगाम दुनिया को देने वालों के साथ, आज फैज़ जिंदा हैं उन सभी लोगों के साथ जो दुनिया को या सियासत को बदलना चाहते हैं. वो सभी फैज़ की पंक्ति गुनगुना रहे हैं.
हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन
कि जिसका वादा है
जो लौहे-अज़ल में लिखा है
जब ज़ुल्मो-सितम के कोहे गरां
रुई की तरह उड़ जाएंगे.
20 नवंबर 1984 को फैज़ दुनिया को अलविदा कहकर चले गए. लेकिन अपने पीछे मोहब्बत, बगावत और क्रांति की ऐसी विरासत छोड़ गए जो आज भी युवा पीढ़ी के लिए सबसे बड़ी दौलत है.