शेर ओ शायरी के अदब की दुनिया में किसी भी शायर का कद कभी उसे मिलने वाले पुरस्कार और सम्मान से नहीं आंका जाता, बल्कि यहां तो ये देखा जाता है कि उस शायर ने आम लोगों के बीच किस कदर शोहरत हासिल की है. देखा जाता है कि उसने सच्चाई के हक में किस कदर अपनी आवाज बुलंद की है. जब शायर का कद इन बातों के आधार पर आंका जाता है तो फिर सबसे पहले जहन में जो नाम आता है वो है फैज़ अहमद फैज़. 13 फरवरी 1911 को अविभाजित भारत में जन्मा सबसे बड़ा पाकिस्तानी शायर. जिसे कभी मुल्क की सरहद अपने दायरे में बांध नहीं सकी. ये फैज़ की शख्सियत का ही जादू है कि आज उनके जितने चाहने वाले पाकिस्तान में हैं उससे कहीं ज्यादा हिंदुस्तान में हैं.
फैज़ का दौर वो दौर था जब उर्दू अदब का एक बड़ा सितारा अल्लामा इकबाल दुनिया से रुखसत हो चुका था. इस वक्त पूरे दक्षिण एशिया में आजादी के लिए अलग-अलग मुल्कों में आंदोलन हो रहे थे. 1917 की रूसी क्रांति के बाद दुनिया में धीरे-धीरे साम्यवाद का प्रभाव बड़ रहा था. भारत में साहिर लुधियानवी, कैफ़ी आज़मी और फ़िराक़ गोरखपुरी अपनी गजलों और नज्मों से क्रांति का बिगुल बजा रहे थे. लेकिन इस सारे आंदोलन को अपना सबसे नायक मिला भी तो ब्रिटिश भारतीय सेना के एक कर्नल में. ये शख्स कोई और नहीं खुद फैज़ अहमद फैज़ थे.
फैज़ के पिता एक बैरिस्टर थे जो काफी मजहब पांबद इंसान थे. उनकी आरंभिक शिक्षा उर्दू, अरबी तथा फ़ारसी में हुई. बाद में उन्होंने स्कॉटिश मिशन स्कूल और लाहौर यूनिवर्सिटी से अंग्रेजी और अरबी में एम.ए. किया. इसी वक्त वो मार्क्सवादा के प्रभाव में आए. ये वो वक्त था जब हिंदी में प्रगतिवाद का युग चल रहा था. नागार्जुन और मुक्तिबोध प्रगतिवाद के इस आंदोलन के झंडाबरदार थे. फैज़ 1936 में प्रगतिवादी लेखक संघ से जुड़े और इसकी पंजाब शाखा की स्थापना की.
साल 1941 में फैज़ की पहली रचना 'नक्श ए फरियादी' का प्रकाशन हुआ जिसने उनकी शोहरत को एक मकबूल ऊंचाई दी. इस वक्त वो ब्रिटिश भारतीय फौज में शामिल हो गए और कर्नल की रेंक तक पहुंचे. 1947 में भारत का विभाजन हो गया और फैज़ पाकिस्तान चले गए. लेकिन 6 महीने के बाद ही वो ये समझ गए ये वो आजादी नहीं है जिसके लिए हमने लड़ाई लड़ी. तब उन्होंने ने 'सुबह-ए-आजादी' जैसी महान कृति की रचना की. 'सुबह-ए-आजादी' की शुरुआत करते हुए फैज़ लिखते हैं 'ये दाग़ दाग़ उजाला, ये शबगज़ीदा सहर वो इन्तज़ार था जिस का, ये वो सहर तो नहीं'. एक बार 'सुब्ह-ए-आज़ादी' के बारे में बोलते हुए इकबाल अहमद ने उसे फ्रैंज़ फैनन की अमर कृति 'द रेचेड ऑफ दि अर्थ' के बराबर बता दिया.
1951 में पाकिस्तान की लियाकत अली खां सरकार ने फैज़ के ऊपर तख्तापलट की साजिश में शामिल होने का इल्जाम लगाया और उन्हें मांटगोमरी जेल भेज दिया. माना जा रहा था कि अब उन्हें फांसी की सजा होगी, लेकिन इल्जाम साबित न हो सके और उन्हें 1955 में रिहा कर दिया गया. जेल में रहते हुए भी इस शायर ने कभी सत्ता के आगे सिर नहीं झुकाया बल्कि उन्होंने हुकूमत की ज्यादती पर तंज करते हुए लिखा
निसार मैं तेरी गलियों के ए वतन, कि जहां चली है रस्म
कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जां बचा के चले
जेल में रहते हुए फैज़ ने 'जिंदान नामा' (कारावास का ब्योरा) नाम से अपनी रचना लिखी. सरकार को डर था कि अगर उन्हें लिखने दिया गया तो वो हुकूमत की इन ज्यादतियों को दुनिया के सामने उजागर कर देंगे. इसलिए जेल में उनके लिखने पर रोक लगा दी गई. इन बंदिशों ने फैज से उनकी कलम को तो उनसे छीन लिया लेकिन उनके हौसले को छू ना सकी. उन्होंने हुकूमत के इस तुगलकी फरमान को धता बताते हुए लिखा
मताए लौह-ओ-कलम छिन गई तो क्या गम है
कि खून-ए-दिल में डूबो ली हैं उंगलियां मैंने.
जुबां पे मुहर लगी है तो क्या, कि रख दी है
हर एक हल्का-ए-जंजीर में जुबां मैंने
फैज़ की तालीम भले ही एक मजहबी परिवेश में हुई थी लेकिन फैज हमेशा एक आजाद ख्याल इंसान रहे. वो हमेशा बराबरी की बात करते रहे. उन्होंने खुद को किसी एक दायरे में बंधने नहीं दिया. 1980 को दौर आते-आते पाकिस्तान के अंदरूनी हालात पूरी तरह से बदल चुके थे. आजादी के बाद जिस पाकिस्तान की आधुनिकता को देखते हुए उसकी पहली पीढ़ी को ब्रिटिश जनरेशन तो दूसरी पीढ़ी को अमेरिकन जनरेशन कहा गया था, अब उस मुल्क की कमान जनरल जिया उल हक के हाथ में आ चुकी थी. जनरल जिया उल हक इस्लाम को लेकर काफी कट्टर रवैया रखते थे.
जिया उल हक ने पाकिस्तान में साड़ी पहनने और फैज की रचनाओं पर रोक लगा दी. ये वो वक्त था जब हर तरक्की पंसद इंसान की जुबान पर फैज के शेर होते थे. इस दौर में पाकिस्तान की मशहूर गायिका इकबाला बानों ने जरनल जिया के इस फरमान को धता बताते हुए लाहौर के अलहमरा ऑडिटोरियम में 50 हजार लोगों के सामने सिल्क की साड़ी पहन जब फैज की मशहूर नज़्म, 'हम देखेंगे, लाज़िम है कि हम भी देखेंगे' गाया. उन्होंने जैसे ही इस नज़्म को गुनगुनाना शुरू किया सारा का सारा ऑडिटोरियम फैज के नाम से गूंज उठा. जब हुकूमत को किसी शायर पर पाबंदी लगानी पड़ जाए तो इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि उस शायर ने अपने दौर में किस तरह की शोहरतें कमाई होंगी.
1963 में फैज को रूस ने लेनिन शांति पुरस्कार प्रदान किया और 1984 में उनका नामांकन नोबल प्राइज के लिए भी हुआ. लेकिन, इन सब से इतर फैज की नज्मों, गजलों और शेरों में ऐसी क्या बात है जो उन्हें सबसे अलग खड़ा कर देती है. असल में उन्होंने जिस तरह से मोहब्बत के साथ इंकलाब को आवाज दी वो आज भी उनके पढ़ने वालों के दिल के बहुत करीब से गुजरता है. एक तरफ जहां फैज ने आजादी की हिमायत करते हुए लिखा
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बां अब तक तेरी है
तेरा सुतवां जिस्म है तेरा
बोल कि जां अब तक तेरी है
वहीं दूसरी तरफ उन्होंने मोहब्बत में चोट खाए हुए आशिक के लिए लिखा
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
उन्होंने एक ब्रिटिश समाजवादी महिला एलिस जॉर्ज से शादी की थी. इसके अलावा फैज ने पाकिस्तान में इमरोज़ और पाकिस्तान टाइम्स का संपादन भी किया था. 1984 में उर्दू अदब का ये बड़ा सितारा दुनिया से विदा हो गया. लेकिन अपनी पीछे फैज ने जो विरासत छोड़ी है वो आज भी लोगों को अपने हक में बोलने के लिए आवाज देती है. ये उनकी शख्सियत का ही जादू है कि भारत-पाकिस्तान के कॉलेजों में जब भी छात्रों को विरोध करना होता है तो वहां पर फैज के शेरों और नज्मों की मौजूदगी जरूर होती है. चलते-चलते मांटगोमरी जेल में लिखी फैज की ये गजल जरूर पढ़ीए
गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
क़फ़स उदास है, यारो सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले
कभी तो सुब्ह तेरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्कबार चले
बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे आयेंगे, ग़मगुसार चले
जो हम पे गुज़री सो गुज़री है शब-ए-हिज़्रां
हमारे अश्क़ तेरी आक़बत संवार चले
हुज़ूर-ए-यार हुई दफ़्तर-ए-जुनूं की तलब
गिरह में लेके गरेबां का तार-तार चले
मुक़ाम ‘फ़ैज़’ कोई राह में जंचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले