बसंत वह मौसम है जब सूरज की रोशनी और चांद की शीतलता दोनों ही दिल-अजीज हो जाती है. लहराती सरसों और रंग-बिरंगे फूल जिंदगी को खुशनुमा बना देते हैं. प्रकृति के सतरंगी होने के साथ ही हमारे दिल में भी मोहब्बत के सरगम की धुन बजने लगती है. प्रकृति की अंगड़ाई के साथ ही क्या युवा और क्या उम्रदराज लोग सबके दिल की उमंगे अंगड़ाई लेने लगती है, एक नया ख्वाब पलने लगता है. मानव के प्रेमी हृदय में खुमार की मस्ती छाने लगती है. ऐसे में कामदेव अपने बाणों को तरकश से निकाल मानव के दिल-ओ-दिमाग में पर कुछ इस कदर अंकित कर लेते हैं कि हर प्यार करने वाला इस बसंती बहार में कह उठता है


गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले


इन पंक्तियों के साथ ही याद आ जाते हैं मशहूर शायर फै़ज़ अहमद फै़ज़. वही फै़ज़ जो खुद इस बसंती मौसम में इस दुनिया में आए थे. उनका जन्म 13 फरवरी 1911 में सियालकोट में हुआ. वही सियालकोट जो कभी अविभाजित हिन्दुस्तान का हिस्सा था लेकिन अब पाकिस्तान में है. फै़ज़ ने बसंत पर और इस मौसम में महसूस होने वाले प्यार पर कई ग़ज़ल, शेर और नज़्म लिखे. वह तो इस मौसम-ए-गुल को इस तरह मानते थे जैसे इसमें किसी का महबूब उससे मिलने छत पर आया हो. तभी उन्होंने लिखा.


रंग पैराहन का ख़ुशबू ज़ुल्फ़ लहराने का नाम
मौसम-ए-गुल है तुम्हारे बाम पर आने का नाम


फै़ज़ को हम में से ज्यादातर लोग इंकलाब के लिए जानते हैं लेकिन उसी शख़्स का एक मिज़ाज रुमानियत भी था. यकीन न हो तो ये शेर देखिए


गर बाजी इश्क़ की बाजी है
तो जो भी लगा दो डर कैसा
जीत गए तो बात ही क्या
हारे भी तो हार नहीं


फै़ज़ को पहली दफा उनकी जीवन संगनी एलिस अमृतसर में मिलीं. पहली ही मुलाकात में दोनों एक-दूसरे को दिल दे बैठे. एलिस MO कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ. तासीर की बीवी की बहन थी, जो उन दिनों इंग्लैंड से हिन्दुस्तान आईं थीं. जैसे ही फै़ज़ से वह मिलीं तो उनके लिए अमृतसर हिन्दुस्तान बन गया और हिन्दुस्तान का मतलब फै़ज़. पहली मुलाकात के दो साल बाद दोनों की शादी हो गई. शादी की पूरी रस्म शेख़ अब्दुल्लाह ने अदा की थी.


फै़ज़ जब जेल में थे तो एलिस पर क्या बीती


1951 में पाकिस्तान के रावलपिंडी में पीएम लियाकत अली खां का तख्ता पलटने की साजिश हुई. इस साजिश का भंडाफोड़ हुआ, कई लोगों की गिरफ्तारियां हुईं, गिरफ्तार लोगों में फै़ज़ अहमद फै़ज़ भी शामिल थे. फै़ज़ के खिलाफ इल्जाम साबित ना हो सके और वो 1955 में रिहा हो गए. लेकिन जेल में रहते हुए भी फै़ज़ ने कई शेर और नज़्मे लिखीं.


जब फ़ैज़ जेल में थे तो उस दौरान उनकी पत्नी एलिस पर क्या बीती इसका जिक्र 'सच जिंदा है अब तक' नामक किताब में है.


एलिस कहती हैं-


''जब मार्च की एक सुबह को फै़ज़ ने मुझे और सोते हुए बच्चों को ख़ुदा हाफिज़ कहा तो मेरे सामने पहला और संगीन मसअला था कि चार सौ रुपये मासिक की आमदनी में घर कैसे चलेगा. हमने शफीउल्ला के अलावा सभी नौकरों को न चाहते हुए भी अलग कर दिया. इस घटना की पहली चोट हमारे बच्चों पर पड़ी. क्वीन मेरी स्कूल से नाम कटवाकर केन्याज मिशन स्कूल में दाखिल करवाना पड़ा.''


एलिस ने जेल में फै़ज़ के साथ मुलाकातों को ऐसे बयान किया है- ''जेल में मिलने की इजाजत मुद्दतों की प्रतीक्षा के बाद मिलती थी और हर मुलाकात की याद हम अगली मुलाकात तक सीने में लगाए रखते थे. ये मुलाकातें दो-तीन महीने में एक बार होती थी. हर मुलाकात के लिए सिंध मरुभूमि को पार करना पड़ता था. ये यात्राएं थका देने वाली होती थी और खर्चों का बोझ भी पड़ता था.जेलर हर मुलाकात की निगरानी करता था.''


जब फै़ज़ की बेटी ने कहा- अब्बू, वो कहते हैं आपके हाथ-पैर काट दिए जाएंगे


एलिस एक और मुलाकात का जिक्र करते हुए कहती हैं- मैं दोनों बेटियों के साथ ललायपुर जेल में फ़ैज़ के मिलने गई.जब हम फ़ैज़ के कमरे में दाखिल हुए तो दोनों बच्चियां दौड़ती हुई उनकी गोद में समा गई. मुनिजा ने बुड़बुड़ाते हुए कहा- अब्बू..वो कहते थे कि आपके हाथ और पैर काट डालेंगे.', मुझे नहीं मालूम वो कौन थे लेकिन जब मेरी और फ़ैज़ की नज़रे मिली तो मालूम हुआ कि निराशा के अनुभव और भय के बीच हम दोनों अकेले नहीं थे.''


जेल में  फै़ज़ ने कई शेर और नज़्मे लिखीं


जेल में रहते हुए भी फै़ज़ ने कई शेर और नज़्मे लिखीं. उनकी जेल में लिखी शायरी ‘जिंदान नामा’ (कारावास का ब्योरा) के नाम से छपी.


मताए लौह-ओ-कलम छिन गई तो क्या गम है
कि खून-ए-दिल में डूबो ली हैं उंगलियां मैंने
जुबां पे मुहर लगी है तो क्या, कि रख दी है
हर एक हल्का-ए-जंजीर में जुबां मैंने


फै़ज़ ने न सिर्फ लिखा बल्कि ऐसा लिखा जो आज तक जिंदा है और आगे भी कई सालों तक जिंदा रहेगा. फै़ज़ की लेखनी को सरहदों में नहीं बांटा जा सकता क्योंकि उनके कलम से निकला मोहब्बत का पैगाम हो या इंकलाबी बोल वो सरहदों के दोनों तरफ उसी तरह से अपनाए गए जैसे खुद फै़ज़ को उनके चाहनेवालों ने अपनाया.


सरहद के उस पार लाहौर विश्वविद्यालय हो या सरहद के इस पार जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का परिसर, ''बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे'' हर जगह क्रांति के इस बोल का इस्तेमाल एक जैसा होता है.


फै़ज़ को न मजहबों में बांटा जा सकता है और न सरहदों में क्योंकि इंकलाब और मोहब्बत पर बंदिशें लगाना उतना ही मुश्किल है जितना फिजाओं में फैले खुशबू को पिंजरे में कैद करना. फै़ज़ की लेखनी उनको एक "क्रॉस-कल्चरल" कवि के रूप में पहचान देती है, जहां कीट्स भी है, शेली भी है, जहां हाफ़िज़ भी है और रूमी भी है, जहां ग़ालिब भी है और इकबाल भी है.


वैसे तो फै़ज़ के इंतकाल को काफी वक्त हो गया लेकिन वह हर रोज अपनी शायरी के जरिए जीवंत हो जाते हैं और वह तब तक जीवित रहेंगे जब तक किसी भी मुल्क का रहबर तानाशाही रवैया अपनाता रहेगा. उस तानाशाह को फै़ज़ के शब्दों से लोहा लेना ही पड़ेगा. वो अलग बात है कि आज फै़ज़ खुद नहीं बल्कि उनकी पंक्तियों की उंगली थामे सड़कों पर, सरकारी दफ्तरों के बाहर, कॉलेज और यूनिवर्सिटी में नौजवान कहते दिखते हैं


निसार मैं तेरी गलियों के ए वतन, कि जहां
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जां बचा के चले


बोल ये थोड़ा वक़्त बहोत है
जिस्म-ओ-ज़बां की मौत से पहले
बोल कि सच ज़िंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहना है कह ले


आज फै़ज़ जिंदा हैं मुल्क के हुक्मरान के खिलाफ आवाज़ बुलंद करते व्यक्ति के साथ, आज फै़ज़ जिंदा हैं मोहब्बत का पैगाम दुनिया को देने वालों के साथ, आज फै़ज़ जिंदा हैं उन सभी लोगों के साथ जो दुनिया को या सियासत को बदलना चाहते हैं. वो सभी फै़ज़ की पंक्ति गुनगुना रहे हैं.


हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन
कि जिसका वादा है
जो लौहे-अज़ल में लिखा है
जब ज़ुल्मो-सितम के कोहे गरां
रुई की तरह उड़ जाएंगे.


20 नवंबर 1984 को फै़ज़ दुनिया को अलविदा कहकर चले गए. लेकिन अपने पीछे मोहब्बत, बगावत और क्रांति की ऐसी विरासत छोड़ गए जो आज भी युवा पीढ़ी के लिए सबसे बड़ी दौलत है.