नई दिल्लीः बड़े गौर से सुन रहा था जमाना, तुम्हीं सो गए दास्तां कहते-कहते...


महज 43 साल की उम्र में 1955 में इस दुनिया को अलविदा कह गए सआदत हसन मंटो के बेबाक फलसफे के बगैर उर्दू अदब की तारीख मुकम्मल नहीं होती. आज इस अफसानानिगार की जयंती है.


मुंशी प्रेमचंद के बाद क्रांतिकारी कलमकार के तौर पर जिन्होंने सबसे ज्यादा नाम कमाया वह मंटो ही हैं. साहित्य में दिलचस्पी रखने वालों के लिये मंटो कभी इस दुनिया से रुखसत ही नहीं हुये. उनकी कहानियां बंटवारे और उसके फौरन बाद के दौर में जितनी मौजूं थीं आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं. मंटो ने क्या लिखा और कितना लिखा ये उनकी मौत के करीब 60 साल बाद शायद उतना जरूरी नहीं है जितना ये कि उन्होंने जो लिख दिया वो आज भी हमारे समाज की हकीकत है और उसे आइना दिखाने का काम कर रहा है.


मशहूर शायर मुनव्वर राणा मंटो की कहानियों में किरदारों को आम आदमी की जिंदगी से जुड़ा पाते हैं. ‘मंटो ने अपने किरदारों में आम आदमी को जिया उस जमाने का आइना थे मंटो के किरदार.’


प्रख्यात कथाकार और समीक्षक असगर वजाहत कहते हैं कि मंटो ने ऐसा साहित्य रचा जो मानवीयता में हमारी आस्था को और मजबूत करता है. उन्होंने कहा, ‘‘मंटो का योगदान ये है कि उन्होंने साहित्य को माध्यम बना जीवन की विषमताओं और जटिलताओं के बीच छिपी मानवीयता को उजागर किया. उस जगह साहित्य को स्थापित किया जो इंसानियत में हमारी आस्था को बढ़ाता है.’’


मंटो ने जहां अपनी कहानियों में शहरी पृष्ठभूमि में किरदारों और उनकी बेचैनियों को बेलाग तरीके से पेश करने की हिम्मत दिखाई वहीं हर कहानी को ऐसा अंजाम दिया कि वह एक सबक के तौर पर पाठक के दिमाग पर अपनी छाप छोड़े. मंटो ने समाज की हकीकत दिखाई लेकिन उन पर अश्लीलता के आरोप भी लगे. हिंदुस्तान में 1947 से पहले उन्हें अपनी कहानी ‘धुआं’, ‘बू’ और ‘काली सलवार’ के लिये मुकदमे का सामना करना पड़ा तो वहीं विभाजन के बाद पाकिस्तान में ‘खोल दो’, ‘ठंडा गोश्त’ और ‘उपर-नीचे-दरमियान’ के लिये मुकदमे झेलने पड़े.


मंटो हालांकि इन आलोचनाओं से डरे नहीं और उन्होंने बड़ी बेबाकी से इनका जवाब दिया. आलोचनाओं के जवाब में वह कहते थे, ‘अगर आपको मेरी कहानियां अश्लील या गंदी लग रही हैं तो जिस समाज में आप रह रहे हैं वो अश्लील और गंदा है. मेरी कहानियां समाज का सच दिखाती हैं.’


दिल्ली विश्वविद्यालय में उर्दू विभाग के प्रमुख प्रोफेसर एन एम कमाल कहते हैं, ‘‘मंटो के बगैर उर्दू की तारीख मुकम्मल नहीं होती. मंटो इतने संवेदनशील लेखक थे कि उन्होंने जो कुछ देखा सच-सच बयां कर दिया, कहानी के अंदाज में. मंटो ने उम्र कम पाई लेकिन उर्दू दुनिया में उनका काम फरामोश नहीं हो सकता.’’


बंटवारे के दर्द को मंटो ने अपनी कहानी टोबा टेक सिंह में बेहद मर्मांत तरीके से पेश किया है. कहानी का मुख्य किरदार सरदार बिशन सिंह बंटवारे का दर्द झेलते हुये अंत में कहता है, ‘उधर खरदार तारों के पीछे हिंदुस्तान था, इधर वैसे ही तारों के पीछे पाकिस्तान, दरमियान में जमीन के उस टुकड़े पर जिसका कोई नाम नहीं था, टोबा टेक सिंह पड़ा था.’


मंटो को लेकर भी एक सवाल जेहन में उठता है कि क्या उनके अंदर भी एक ‘बिशन सिंह’ था जो भारत-पाक के बीच दरमियानी जगह खोजता था. सिर्फ 43 साल की उम्र पाए मंटो की शख्सियत को समझने को पंजाब के साथ हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी पंजाब को भी जोड़ना होगा.


मुनव्वर राणा कहते हैं, ‘‘पंजाब के बंटवारे का जो दर्द था वो उनकी कहानियों से झलका. दोनों तरफ जुल्म हुए और एक जैसा सलूक हुआ. कसूरवार दोनों तरफ के लोग थे. मंटो इसलिये विवादित हुए क्योंकि उनकी कहानियों में इधर के पंजाब की कहानियां भी मौजूद थीं और उधर के पंजाब की भी.’’


मंटो के किरदारों पर कमाल कहते हैं, ‘‘मंटो के किरदार हर जमाने की नुमाइंदगी करते हैं और जिंदा किरदार हैं. इनकी मौत कभी नहीं होगी.’’


मंटो की शख्सियत कितनी दिलचस्प थी इसका अंदाजा इस बात से हो जाता है कि एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, ‘उर्दू का सबसे बड़ा अफसानानिगार आठवीं जमात में उर्दू में फेल हो गया.’ ये खुद पर ही तंज करने का उनका अंदाज था. मंटो दरअसल जिंदगी का एक पूरा फलसफा थे. वह समाज के सच को सामने रखने के लिये ऐसे तल्ख शब्दों का इस्तेमाल करते थे कि सियासत और समाज के अलंबरदारों की नींद हराम हो जाती थी.


मंटो भले अब इस दुनिया में नहीं है लेकिन उनका साहित्य उनके नाम के साथ उर्दू अदब की दुनिया को हमेशा रौशन करता रहेगा.