नई दिल्ली : पिछले कई दिनों में देशभर किसान आंदोलन तेज हुआ है. मध्य प्रदेश में आंदोलन के हिंसक होने के बाद किसान उग्र हो गए हैं. लेकिन, इन सब के बीच किसानों की बदहाली को लेकर भी चर्चा चल रही है. किसानों पर तमाम चर्चाओं के बीच 'स्वामीनाथन आयोग' या राष्ट्रीय किसान आयोग (एनसीएफ) पर भी बहस तेज हो गई है. ऐसे में हम आपको बता रहे हैं कि यह आयोग आखिर है क्या और इसकी सिफारिशें क्या हैं.

स्वामीनाथन आयोग का गठन :

भारत सरकार ने 18 नवंबर, 2004 को राष्ट्रीय किसान आयोग (एनसीएफ) का गठन किया था. आयोग का चेयरमैन प्रो. एम.एस. स्वामीनाथन को बनाया गया. आयोग ने पांच रिपोर्ट्स सरकार को सौंपी हैं. पहली रिपोर्ट दिसंबर, 2004 में सौंपी गई थी. जबकि, आखिरी और फाइनल रिपोर्ट 4 अक्टूबर, 2006 को सौंपी गई. इसमें 'तेज और संयुक्त विकास' को लेकर सिफारिशें की गईं थी. इन सिफारिशों में किसानों के हालात सुधारने से लेकर कृषि को बढ़ावा देने की सलाहें थीं.

स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें :

भूमि बंटवारा :

आयोग का पहला महत्वपूर्ण बिंदु यही था. जमीन बंटवारे को लेकर इसमें चिंता जताई गई थी. इसमें कहा गया था कि 1991-92 में 50 प्रतिशत ग्रामीण लोगों के पास देश की सिर्फ तीन प्रतिशत जमीन थी. जबकि कुछ लोगों के पास ज्यादा जमीन थी. ऐसे में इसके सही व्यवस्था की जरूरत बताई गई थी.

भूमि सुधार :

बेकार पड़ी और सरप्लस जमीनों की सीलिंग और बंटवारे की सिफारिश की गई थी. इसके साथ ही खेतीहर जमीनों का गैर कृषि इस्तेमाल पर चिंता जताई गई थी. जंगलों और आदिवासियों को लेकर भी विशेष नियम बनाने की बात कही गई थी. साथ ही नेशनल लैंड यूज एडवाइजरी सर्विस के स्थापना की बात भी थी. इसका काम परिस्थितिकी, मौसम और बाजार को देखना होता.

सिंचाई सुधार :

सिंचाई व्यवस्था को लेकर भी आयोग ने चिंता जताई थी. साथ ही सलाह दी थी कि सिंचाई के पानी का उपलब्धता सभी के पास होनी चाहिए. इसके साथ ही पानी की सप्लाई और रेन वाटर हारवेस्टिंग पर भी जोर दिया गया था. पानी के स्तर को सुधारने पर जोर देने के साथ ही 'कुआं शोध कार्य़क्रम' शुरू करने की बात कही गई थी.

उत्पादन सुधार :

आयोग का कहना था कि कृषि में सुधार के लिए एक समग्र कोशिश की जरूरत है. इसमें लोगों की भूमिका को बढ़ाना होगा. इसके साथ ही कृषि से जुड़े सभी कामों में 'जन सहभागिता' / पब्लिक इंवेस्टमेंट की जरूरत होगी. चाहें वह सिंचाई हो, ड्रेनेजे हो, भूमि सुधार हो, जल संरक्षण हो या फिर सड़कों और कनेक्टिविटी को बढ़ाने के साथ शोध से जुड़े काम हों.

क्रेडिट और इंश्योरेंस :

इसमें कहा गया था कि क्रेडिट सिस्टम की पहुंच सभी तक होनी चाहिए. फसल बीमा का इंटरेस्ट रेट 4 प्रतिशत होना चाहिए. कर्ज वसूली पर रोक लगाई जाए. साथ ही एग्रीकल्चर रिस्क फंड भी बनाने की बात आयोग ने की थी. पूरे देश में फसल बीमा के साथ ही एक कार्ड में ही फसल भंडरण और किसान के स्वास्थय लेकर व्यवस्थाएं की जाएं. मानव विकास और गरीब किसानों के लिए विशेष योजना की बात कही गई थी.

खाद्य सुरक्षा :

आयोग ने समान जन वितरण योजना की सिफारिश की थी. साथ ही पंचायत की मदद से पोषण योजना को अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाने की भी बात थी. साथ ही सेल्फ हेल्प ग्रुप (स्वयं सहायक समूह) बनाकर कम्यूनिटी फूड एंड वाटर बैंक बनाने की बात भी कही गई थी. खाद्य सुरक्षा एक्ट के साथ ही गरीब किसानों की मदद को लेकर अन्य योजनाओं के बारे में आयोग ने विस्तार से लिखा था.

किसान आत्महत्या रोकना :

किसानों की बढ़ती आत्महत्या को लेकर भी आयोग ने चिंता जताई थी. इसके साथ ही ज्यादा आत्महत्या वाले स्थानों का चिह्नित वहां विशेष सुधार कार्यक्रम चलाने की बात कही थी. सभी तरह की फसलों के बीमा की जरूरत बताई गई थी. साथ ही आयोग ने कहा था कि किसानों के स्वास्थय को लेकर खास ध्यान देने की जरूरत है. इससे उनकी आत्महत्याओं में कमी आएगी.

वितरण प्रणाली में सुधार :

इसे लेकर भी आयोग ने कई सिफारिशें की थी. इसमें गांव के स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक पूरी व्यवस्था का खांका खींचा गया था. इसमें किसानों को पैदावार को लेकर सुविधाओं को पहुंचाने के साथ ही विदेशों में फसलों को भेजने की व्यवस्था थी. साथ ही फसलों के इंपोर्ट और उनके रेट पर नजर रखने की व्यवस्था बनाने की सिफारिश भी थी.

प्रतिस्पर्धा का माहौल बनाना :

आयोग ने किसानों में प्रतिस्पर्धा (कंपटीटिवनेस) को बढ़ावा देने की बात कही है. इसके साथ ही अलग-अलग फसलों को लेकर उनकी गुणवत्ता और वितरण पर विशेष नीति बनाने को कहा था. न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ाने की बात कही गई थी.

रोजगार सुधार :

खेती से जुड़े रोजगारों को बढ़ाने के लिए बातें कही गई थी. आयोग ने कहा कि सन 1961 में कृषि से जुड़े रोजगार में 75.0 प्रतिशत लोग लगे थे. जो कि 1999 से 2000 काफी कम 59.9 प्रतिशत दर्ज किया गया. इसके साथ ही किसानों के लिए 'नेट टेक होम इनकम' को भी तय करने की बात कही गई थी.

अब उठ रही हैं इसके लिए आवाजें : 

गौरतलब है कि रिपोर्ट पेश होने के 11 साल बाद अब इसे लागू करने की मांग तेज हो गई है. राजनीतिक दल और किसान आंदोलन से जुड़े नेता सिफारिशों को लेकर गंभीरता से अपनी-अपनी मांगे उठा रहे हैं. मध्य प्रदेश सहित देश के कई हिस्सों में किसान और उनकी समस्याओं को लेकर राजनीतिक माहौल गरम है.