नई दिल्ली: भारत में चल रहे किसान आंदोलन के लिए इन दिनों अंतरराष्ट्रीय समर्थन जताने और जुटाने की भी कोशिशें हो रही हैं. ब्रिटेन के 36 सांसदों ने जहां इस मुद्दे को लेकर ब्रिटिश विदेश मंत्री के नाम खत लिख दखल देने की अपील की है. वहीं किसान आंदोलन पर टीका टिप्पणियों को लेकर भारतीय ऐतराज को नजरअंदाज कर कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने एक बार फिर बयान दे, इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ा मामला करार दिया.
कनाडा के प्रधानमंत्री की ओर से की गई टिप्पणियों पर विदेश मंत्रालय ने दो दिन पहले ही कनाडाई उच्चायुक्त को तलब कर भारत का सख्त ऐतराज दर्ज कराया था. विदेश मंत्रालय प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव के मुताबिक कनाडा को यह बताया गया है कि एक लोकतांत्रिक देश के अंदरूनी मामलों पर ऐसी टिप्पणियां अनुचित हैं. साथ ही यह बेहतर होगा को कूटनीतिक बातचीत राजनीतिक उद्देश्यों के लिए पेश न की जाए. (बाइट 3 दिसम्बर 2020 को विदेश मंत्रालय की ब्रीफिंग में आखिर के 5 मिनट में इस बाबत दिया जवाब है)
हालांकि जाहिर है भारत की इस नसीहत को पीएम ट्रूडो ने नज़रंदाज़ करते हुए एक बार फिर न केवल किसान आंदोलन को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़ने की कोशिश की, बल्कि इसके लिए कनाडा का समर्थन भी जताया. इस बीच संकेत हैं कि भारत एक बार फिर कनाडाई उच्चायुक्त नादिर पटेल को तलबकर डिमार्श दे सकता है.
कनाडा में भारत के पूर्व उच्चायुक्त विष्णु प्रकाश ने एबीपी न्यूज़ से बातचीत में कहा कि इन प्रधानमंत्री ट्रूडो की टिप्पणियों का रिश्ता भारतीय किसानों से किसी हमदर्दी से नहीं बल्कि अपनी राजनीति से है. लेबर पार्टी की अगुवाई कर रहे ट्रूडो कनाडा में बसी भारतीय-सिख बिरादरी को अपना वोटबैंक मानती है, क्योंकि इसका प्रभाव करीब 12 सीटों पर है. छोटी आबादी वाले मुल्क की महज़ 238 सीटों वाली कनाडाई संसद में एक दर्जन सीटें सत्ता का समीकरण बना या बिगाड़ सकती हैं.
इतना ही नहीं, विष्णु प्रकाश के मुताबिक कई खालिस्तान समर्थक गुट और उनके नियंत्रण वाले गुरुद्वारे भी ट्रूडो की लेबर पार्टी के लिए फ़ंडरेसिंग करते हैं. यही तत्व ट्रूडो और अन्य स्थानीय नेताओं पर ऐसी बयानबाज़ी का दबाव बनाते हैं. इतना ज़रूर साफ है कि ट्रूडो को भारतीय किसानों के लाभ से ज़्यादा फिक्र अपने सियासी नफे नुकसान की है.
केवल कनाडा ही नहीं ब्रिटेन में भी भारत के किसान आंदोलन की हिमायत करने और समर्थन जताने का सिलसिला. शुरू हुआ है. ब्रिटेन के 36 सांसदों ने विदेश मंत्री डोमनिक राब को पत्र लिखकर इसे ब्रिटिश सिखों के लिए बड़ी चिंता का विषय बताते हुए हस्तक्षेप की मांग की. सांसद तरनजीत धेसी की अगुवाई में इस खत पर अपना नाम देने वालों में अधिकांश लेबर पार्टी के सांसद हैं.
भारत की पेशानी पर परेशानी की लकीरें बढ़ाने वाली बात यह है कि ब्रिटिश सांसदों के इस पत्र में कृषि कानूनों को सिखों के लिए अपने परिजनों की फिक्र का कारण बताते हुए कहा गया है कि मौजूदा हालात में पंजाब के रिश्ते केंद्र से खराब हो रहे हैं. जाहिर है सीमावर्ती सूबे पंजाब में अलगाववाद की दबी चिंगारी के मद्देनजर इसको लेकर चिंताएं हैं कि कहीं किसान नाराज़गी की आड़ में खालिस्तानी तत्व इसका फायदा उठाने में न जुट सकें.
इस बीच कई संगठनों ने ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, और अमेरिका में भारत के किसान प्रदर्शनों के समर्थन में रैलियों से लेकर चंदा उगाही का सिलसिला शुरू किया है. इस बात की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि लोकतांत्रिक मूल्यों पर समर्थन के साथ-साथ इसकी आड़ में कुछ अलगाववादी तत्व भी अपनी रोटी सेंकने की कोशिश करें. भारत विरोधी गतिविधियों के कारण प्रतिबंधित संगठन सिख फ़ॉर जस्टिस जैसे संगठनों की किसान विरोधी प्रदर्शनों के दौरान सक्रियता ऐसी आशंकाओं को और हवा देती हैं.
हालांकि यह दर्ज करना रोचक है कि जिन देशों में कथित रूप से भारत के किसानों के समर्थन में आवाज़ें उठाई गई हैं, वही मुल्क अक्सर WTO जैसी संस्थाओं में भारत सरकार की किसान सहायता योजनाओं का विरोध करते आए हैं. ध्यान रहे कि सितंबर 2020 में कनाडा सरकार ने WTO की कमेटी ऑन एग्रीकल्चर की बैठक में भारत की किसान सम्मान निधी योजना और फसल बीमा योजना जैसे कार्यक्रमों पर सवाल उठाए थे. उसी तरह अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया जैसे देश पारंपरिक तौर पर भारत में कृषि सब्सिडी का विरोध करते रहे हैं. ऐसे में जो विदेशी सांसद, नेता भारत में किसानों की मांग पर समर्थन जता रहे हैं वो अपनी सरकारों का रुख बदलने या उसमें परिवर्तन का आश्वासन क्यों देते नहीं नज़र आते.