नई दिल्ली: एक बार फिर महाराष्ट्र में हजारों किसान और आदिवासी सड़कों पर हैं और मुंबई की ओर बढ़ रहे हैं. 'लोक संघर्ष मोर्चा' का लाल और हरा झंडा लिए किसानों की जुबां पर 'लड़ेंगे-जीतेंगे' जैसे नारे हैं. इसे किसानों ने 'उलगुलान मोर्चा' का भी नाम दिया है. दरअसल, उलगुलान शब्द अपने आप में संघर्ष की एक कहानी बयां करता है और हमें सन् 1885 से 1900 की याद दिलाती है. अंग्रेज लगातार भारतीयों का दमन कर रहे थे. जल, जंगल और जमीन पर उनका कब्जा हो चुका था.
इंडियन फॉरेस्ट एक्ट के तहत गरीब आदिवासियों की जमीन ले ली गई थी. आदिवासियों के सामने संस्कृति और अस्मिता बचाने की चुनौती थी. तभी बिरसा मुंडा नाम का योद्धा सुर्खियों में आता है. वे उलगुलान (संघर्ष) का मोर्चा संभालते हैं. 1895 में उन्होंने अंग्रेजों की लागू की गयी जमींदारी प्रथा और महाजन (जो कर्ज के बदले जमीन पर कब्जा जमा लेते थे) के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी. आदिवासियों का भरपूर साथ मिला. उन्होंने परंपरागत हथियार उठा लिया था. अंग्रेजों की फौज को बिरसा मुंडा लगातार चुनौती पेश कर रहे थे. तब उनपर अंग्रजों ने इनाम रखा. लेकिन वो पकड़ से बाहर रहे.
बिरसा मुंडा की फौज (समर्थकों) और अंग्रेजों के बीच 1900 में रांची के पास दूम्बरी पहाड़ी पर संघर्ष हुआ. परंपरागत हथियार (तीर-धनुष आदि) के मुकाबले अंग्रेजों ने तब के आधुनिक हथियारों का इस्तेमाल किया. यह वजह थी की मुंडा के सैकड़ों समर्थक मारे गए. तब बिरसा मुंडा बच निकले. लेकिन बाद में उनके ही कुछ लालची समर्थकों ने अंग्रजों को गुप्त सूचना देकर उन्हें पकड़वा दिया. तब उन्हें दो साल की सजा हुई और बाद में हैजे की वजह से उनकी मौत हो गई. आदिवासी इलाकों में इन्हें आज भी भगवान की तरह पूजा जाता है.
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यही वजह है कि आज उन्हीं के उलगुलान को आदिवासी, किसान आगे बढ़ाते हुए मुंबई की तरफ मार्च कर रहे हैं. आज लोकतांत्रिक व्यवस्था है और इसी आधार पर अपनी मांगों को मनवाने के लिए सड़कों पर हैं. किसानों की मांग है कि आदिवासियों की जमीन के मसले को सुलझाया जाए. साथ ही लोड शेडिंग की समस्या, वनाधिकार कानून, सूखे से राहत, न्यूनतन समर्थन मूल्य, स्वामीनाथ रिपोर्ट को जल्द से जल्द लागू किया जाए.