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देश के पूर्व आर्थिक सलाहकार अशोक लाहिरी बंगाल की गलियों में मांग रहे वोट, टीएमसी के साथ है कांटे की टक्कर
भारत के पूर्व चीफ इकोनॉमिक एडवाइजर अशोक लाहिरी एक-एक वोट के लिए पश्चिम बंगाल के गांवों की गलियों के चक्कर लगा रहे हैं. लाहिरी को बीजेपी ने बालूरघाट से अपना उम्मीदवार बनाया है. लाहिरी का कहना है कि वोट मांगने और बाकी सारे काम में जमीन आसमान का अंतर है. वहीं, टीएमसी ने उनके मुकाबले वकील शेखर दासगुप्ता को मैदान में उतारा है.
![देश के पूर्व आर्थिक सलाहकार अशोक लाहिरी बंगाल की गलियों में मांग रहे वोट, टीएमसी के साथ है कांटे की टक्कर Former Economic Advisor Ashok Lahiri is seeking votes in the streets of Bengal, there is a fierce competition with TMC ANN देश के पूर्व आर्थिक सलाहकार अशोक लाहिरी बंगाल की गलियों में मांग रहे वोट, टीएमसी के साथ है कांटे की टक्कर](https://feeds.abplive.com/onecms/images/uploaded-images/2021/04/23/93cc577135db0c667cfaf0118f476b26_original.jpg?impolicy=abp_cdn&imwidth=1200&height=675)
बालूरघाटः अशोक लाहिरी (69 वर्ष ) अपनी सारी जिंदगी बड़े- बड़े पद और कद पर बैठे. यह पहला मौका होगा जब बंगाल की एक छोटे से गांव की गलियों में हाथ जोड़कर वोट मांग रहे हैं. राजनीति जो न कराए सब पूरा है, ऐसा ही हो रहा है अशोक लाहिरी के साथ . भारत के पूर्व चीफ इकोनॉमिक एडवाइजर के साथ वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इंटरनेशनल मॉनेटरी फंड और प्लानिंग कमीशन में भी काम कर चुके हैं.
बीजेपी के उम्मीदवार अशोक लाहिरी का कहना है कि, मैं किसी अमीर आदमी का लड़का नहीं, इसलिए मैंने फैसला लिया था कि राजनीति तभी करूंगा, जब मुझे चोरी करने की जरूरत ना पड़े और मेरे पास इतना हो कि मुझे किसी से मांगने की जरूरत ना पड़े. अब वह समय आ गया है. मुझे इतना पेंशन मिलती है कि मेरा घर -परिवार आराम से चल जाएगा. पूरी जिंदगी में जैसे-जैसे नौकरी मिलती रही, मैं खुश था. मैं उस चुनौती को लेकर एक कदम आगे बढ़ जाता था. यह बात सही है कि मुझे राजनीति में पहले आना चाहिए था लेकिन कोई बात नहीं देर आए दुरुस्त आए.
सलाहकार होना आसान है, वोट मांगना मुश्किल
दरअसल अशोक लाहिरी इस बार बालूरघाट विधानसभा से बीजेपी के उम्मीदवार हैं और पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में अपना भाग्य आजमा रहे हैं. पेशे से बड़े अर्थविद जाने जाते हैं लेकिन वह भी मानते हैं कि सलाहकार होना आसान है लेकिन एक-एक वोट के लिए घंटों पैदल चलना बहुत ही मुश्किल.
लाहिरी के मुताबिक, राजनीति मेरे पुराने किरदार से बिल्कुल अलग है. पहले मैं सलाहकार था. लोगों को सलाह देना आप ज्यादा आसान लगता है ना कि जनता में जाकर वोट मांगना. राजनीति में देना और अनुदान देना या फिर योजनाओं को जमीनी स्तर पर उतारना बड़ी चुनौती होता है, ना कि उन्हें बुरी तरह से बनाकर और एक सलाहकार की भूमिका अदा करना.
विरोध करने के लिए किसी नियम की जरूरत नहीं
कंपल्शन ऑफ कंपटीशन पॉलिटिक्स एक बहुत बड़ी भूमिका निभाता है. जब आप नेता होते हैं और सरकार में होते हैं तो आप जो करते हैं, वह नियम और कानून के मद्देनजर रखा जाता है लेकिन विरोध करने के लिए किसी नियम की जरूरत नहीं होती. अब मुझे समझ में आ रहा है कि कैसे चुनाव के लिए वोट मांगना और बाकी सारे काम में जमीन आसमान का अंतर है
टीएमसी ने टक्कर में उतारा वकील
अशोक लाहिरी अगर अर्थविद है तो तृणमूल कांग्रेस ने भी हार नहीं मानी. उनके खिलाफ वकालत में महारत हासिल किए हुए शेखर दासगुप्ता को मैदान में उतारा है. खुद शेखर भी ठंडे मिजाज के हैं और कुछ इसी अंदाज में अपने वोटरों तक पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं .
शेखर के पास तुरुप का इक्का है. वह कहते हैं कि अशोक लाहिरी बाहर से हैं लेकिन मैं भूमि पुत्र .जनता यह जानती है कि चुनाव के बाद भी मैं उनके साथ उनके बीच ही रहूंगा और यही मेरी सफलता का सबसे बड़ा कारण है.
टीएमसी उम्मीदवार शेखर दासगुप्ता लाहिरी पर लगा रहे बाहरी होने का आरोप
शेखर दासगुप्ता के अनुसार, मुझे ऐसा लगता है कि वह सिर्फ एक सरकारी कर्मचारी हैं जो प्रधानमंत्री की टीम में रह चुके हैं और वहां उनके साथ काम कर चुके हैं लेकिन जनता से उनका कोई तालमेल यह सामंजस्य नहीं है. अगर उन्होंने सही सलाह दी होती या वह अच्छे सलाहकार होते तो आज भारत की यह स्थिति नहीं होती. मैं यह नहीं सोचता कि यह एक वकील बनाम सरकारी कर्मचारी की लड़ाई है. मैं यह कह सकता हूं कि मैं इस जमीन से जुड़ा हुआ, यहां का लड़का हूं और वह बाहरी है और जनता को यह विश्वास है कि यह यहां पर सिर्फ चुनावी मौसम में आए हैं इसके बाद गायब हो जाएंगे.
अशोक लाहिरी छोटे-छोटे मिट्टी के मकानों के सामने खड़े होकर वहां रहने वाले लोगों को या यूं कहें वोटरों को समझा रहे हैं कि मैं बाहरी नहीं हूं, बालूरघाट मेरे मामा का घर है.
लाहिरी ननिहाल का हवाला देकर बाहरी होने के आरोपों को कर रहे खारिज
अशोक लाहिरी कहते हैं कि, बंगाल की राजनीति में एक नया शब्द आया है बहिरागाथ यानी जो बाहर से आया है तो मैं जब भी लोगों से यहां मिलता हूं तो सबको बताता हूं कि दिनाजपुर मेरा ननिहाल है. मेरे मामा का घर है. यहां पर मैं अपने मामा के घर में आकर वोट मांग रहा हूं. दिनाजपुर के लोग बहुत ही सीधे और साधारण लोग हैं. कोई दिखावा नहीं है यहां पर, लेकिन यह बताना जरूरी होता है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस अगर दिल्ली जाते थे तो उन्हें बाहरी व्यक्ति नहीं बोला जाता था और जब अटल बिहारी बंगाल आते थे तो उन्हें बाहर का नहीं बोला जाता था.
सत्ता के गलियारों में बैठकर राजनीति के फैसले करना आसान होता है लेकिन गांव की गलियों में घूम कर हाथ जोड़कर वोट मांगना चिलचिलाती धूप और बारिश में बड़ा चुनौतीपूर्ण होता है. अशोक लाहिरी के लिए यह अनुभव नया है लेकिन पार्टी के लिए यह कैसी चुनौती जिसमे जीत हासिल करना सबसे बड़ी चुनौती है
जमीनी हकीकत को समझ रहे
एक बदलाव आया है. पहले मैं देश को जानता था लेकिन अब मैं बंगाल के गांव में आकर यहां की बातों को यहां की चीजों को समझने की कोशिश कर रहा हूं.
यहां के लोगों की समस्या क्या है, यहां के लोगों को क्या चाहिए इनके बारे में जानना, इनकी बातों को समझना यह मेरे लिए बड़ी चुनौती है. जैसे प्रधानमंत्री ने अगर कोई योजना दी है तो उसका जमीनी स्तर पर कोई फायदा हुआ है या फिर बाकी सारी चीजों में क्या उसको और परिवर्तित करके लागू करना होगा. यह समझने की कोशिश करीब से जानने की कोशिश है.मुझे तो यहां आकर यह पता लगा कि कैसे अंडे की इकॉनॉमी बंगाल में कमजोर है क्योंकि बाहर से हमें करीब एक करोड़ अंडा खरीद के बंगाल में लेकर आना पड़ता है.
बंगाल में विकास नहीं होने का लगा रहे आरोप
अशोक लाहिरी बंगाल में विकास के मुद्दे पर कहते हैं कि बंगाल अब एक पिछड़ा राज्य है. पहले ऐसा नहीं था. हम बहुत आगे थे. बाहर से लोग यहां पढ़ने आते थे. मुझे खुद बंगाल छोड़कर बाहर जाना पड़ा पढ़ाई करने के लिए. 1981 में हम आठवें नंबर पर थे लेकिन अब हम 98 नंबर पर हैंय यह गिरावट है हमारे पद में पूरे देश में और यह दुख की बात है लेकिन अब मुझे ऐसा लगता है कि परिवर्तन का समय आ गया है.
शुरुआत में उम्मीदवारी का विरोध हुआ, अब शांत
जब मैं आया तो मेरा विरोध हुआ, लेकिन मुझे यह पता था कि यह मेरा काम नहीं है. यह पार्टी का काम है. 1 हफ्ते के अंदर सबको मेरे साथ काम करने में अच्छा लगने लगा और मुझे लगता है कि मेरी यह बड़ी वजह है. यह तो होना ही था क्योंकि जो बाहर से आते हैं पार्टी में उन्हें हेलीकॉप्टर ड्रॉप कहा जाता है लेकिन यहां के लोगों ने मुझे स्वीकार लिया है. अब मैं भी खुश हूं और यह भी खुश हैं अब इन सब बातों का कोई असर नहीं पड़ेगा.
बंगाल की वित्तीय व्यवस्था चिंताजनक है और मुझे इसनी चिंता है. कौन वित्त मंत्री बनेगा मुख्यमंत्री बनेगा यह पार्टी का फैसला होगा और मैं उसमें हमेशा पार्टी के साथ खड़ा मिलूंगा. बंगाल में इस समय सुरक्षा इंफ्रास्ट्रक्चर, पढ़ाई और विकास सबसे ज्यादा जरूरी है.
ममता बनर्जी के जादू के भरोसे शेखर दासगुप्ता
वहीं, टीएमसी को यह भरोसा है कि इस बार वाममोर्चा कोई कमाल नहीं दिखा पाएगा. अगर कुछ चलेगा तो सिर्फ और सिर्फ ममता बनर्जी का जादू. जिन्हें आज भी बंगाल की जनता दीदी के रूप में पूजती है
टीएमसी के उम्मीदवार शेखर दासगुप्ता के मुताबिक, मुझे नहीं लगता कि मेरे सामने कोई चुनौती है. मेरी पार्टी ने मुझे काम दिया है जो मुझे करना है. टीएमसी में ममता बनर्जी ऐसी नेत्री हैं कि लोग उन्हें प्यार और भरोसा दोनों करते हैं. ऐसे में मुझे सिर्फ उनका संदेश जनता तक पहुंचाना है. लोग उनकी सरकार में खुद को सुरक्षित महसूस करते है.
हर चुनाव में रंग-ढंग अलग-अलग
हर चुनाव अलग तरह का होता है और उसकी अलग खासियत और कमियां होती हैं. 2019 का लोकसभा चुनाव 2021 के विधानसभा से अलग होगा तो दो हजार अट्ठारह का पंचायत चुनाव 2020 के निकाय चुनाव से अलग. हर चुनाव का विश्लेषण अलग होता है क्योंकि उसके मुद्दे अलग होते हैं. लेकिन जनता यह जानती है कि वह किसी के बहकावे में नहीं आएंगे जैसे कि डबल इंजन, इसका मतलब है कि केंद्र सरकार ने यह मान लिया है कि राज्य सरकार में जो पार्टी की सरकार है. वह ठीक से काम नहीं कर पा रही है इसलिए दो इंजन लगाने की जरूरत पड़ रही है.
बालूरघाट विधानसभा सीट पर वाममोर्चा का रहा है दबदबा
बालूरघाट विधानसभा सीट पर हमेशा वाममोर्चा का कब्जा जा रहा है. 2001 में पहली बार इस पर टीएमसी ने जीत हासिल की थी लेकिन 2016 में यह सीट वापस वाममोर्चा के घटक दल आरएसपी के पास चली गई. 2019 के लोकसभा चुनाव में आंकड़े बदले और इस सीट से सांसद बने डॉक्टर सुकांता मजूमदार. उन्होंने 40000 वोट से लीड हासिल की और इस बढ़त से बीजेपी मानती है कि उसे 2021 के विधानसभा चुनाव में फायदा होगा.
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