नई दिल्ली: भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का 94 साल के उम्र में निधन हो गया है. दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) अस्पताल में अटल बिहारी वाजपेयी ने आखिरी सांस ली. पूर्व प्रधानमंत्री सिर्फ जननेता ही नहीं बल्कि एक प्रखर वक्ता और ओजस्वी कवि भी थे. उनकी कविताओं से झलकती संवेदनाएं सुनने वाले और सुनाने वाले के बीच 'तुम' और 'मैं' की दीवारें तोड़ देती थीं. राजनीति की आपाधापी और रिश्ते नातों की गलियों से आगे सोच के रास्ते पर चलते हुए कवि के रूप में अटल विहारी वाजपेयी साहित्य के नुक्कड़ पर ऐसे शब्द छोड़े हैं, जिन्होंने कविताओं की शक्ल में कागज़ पर हमेशा के लिए अपने घर बना लिए हैं. अटल बिहारी वाजपेयी आज मानव काया के रूप में शिथिल जरूर हो गए हैं मगर उनकी कविताएं हमेशा लोगों के जेहन में जिंदा रहेंगी.



                ''जो कल थे वो आज नहीं हैं जो आज हैं वो कल नहीं होंगे. होने न होने का क्रम इसी तरह चलता रहेगा. हम हैं हम रहेंगे, ये भ्रम भी सदा पलता रहेगा.''


एक नजर अटलजी की उन अमर कविताओं पर डालते हैं. इरजेंसी के दौरान जब सारा देश एक जेलखाने में तब्दील कर दिया गया था, स्वतंत्रताओं का अपहरण किया गया था. बहुत बड़ी संख्या में लोग गिरफ्तार किए गए थे, जेलों में बंद कर दिए गए थे. इस घटना के जब एक साल पूरे हुए तब अटलजी को झुलसाते हुए जेठ के महीने, चांदनियों से उदास सर्दियों की रातें और सिसकी भरते सावन की याद आता है. उस वक्त अटलजी ने जेल में रहने के दौरान एक कविता लिखी. जो नीचे पढ़ी जा सकती है.


 एक बरस बीत गया


झुलासाता जेठ मास 
शरद चांदनी उदास 
सिसकी भरते सावन का 
अंतर्घट रीत गया 
एक बरस बीत गया 


सीकचों मे सिमटा जग 
किंतु विकल प्राण विहग 
धरती से अम्बर तक 
गूंज मुक्ति गीत गया 
एक बरस बीत गया 


पथ निहारते नयन 
गिनते दिन पल छिन 
लौट कभी आएगा 
मन का जो मीत गया 
एक बरस बीत गया


अटलजी संवेदनाओं के काफी धनी वक्ति थे. किसी को भी खो देने का दुख उन्हें हमेशा परेशान करता रहा था. इमर्जेंसी के दौरान जब अटलजी को बैंगलोर जेल से अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में लाया गया. कफी कड़े पहरे के साथ उन्हें तीसरी मंजिल पर रखा गया था. रोज सुबह उनकी अचानक नींद खुल जाती थी. वहां उन्हें किसी के रोने के आवाज सुनाई देती थी. जब उन्होंने इसकी पड़ताल करने की कोशिश की पता चला कि अस्पताल में जब मरीजों की मौत हो जाती थी तब उनके परिवार वालों को उनका शव सुबह दिया जाता था. परिवार वालों को सुबह ये जानकारी मिलती थी कि उनका परिजन अब नहीं रहा. ऐसी बाते अटलजी को विचलित कर देती थीं. दूर से रोने की आवाज आती थी और अटलजी के दिलों को चीर कर चली जाती थी. तब अटल जी ने कविता लिखी थी.


दूर कहीं कोई रोता है


तन पर पहरा भटक रहा मन


साथी है केवल सूनापन


बिछुड़ गया क्या स्वजन किसी का


क्रंदन सदा करूण होता है


दूर कहीं कोई रोता है


जन्म दिवस पर हम इठलाते


क्यों ना मरण त्यौहार मनाते


अन्तिम यात्रा के अवसर पर


आँसू का अशकुन होता है


दूर कहीं कोई रोता है


अंतर रोयें आँख ना रोयें


धुल जायेंगे स्वप्न संजोये


छलना भरे विश्व में केवल 


सपना ही तो सच होता है


दूर कहीं कोई रोता है


इस जीवन से मृत्यु भली है


आतंकित जब गली गली है


मैं भी रोता आसपास जब


 कोई कहीं नहीं होता है


दूर कहीं कोई रोता है


अटलजी बताते थे कि उन्होंने अपने जीवन में बहुत कम कविताएं लिखी हैं. लेकिन जब उनका जन्मदिन आता है तब वह अपने जन्मदिन पर कविता लिखा करते. राजनीति की आपाधापी में जीवन की सांझ कैसे ढल रही होती है. अपनी घटती हुई उम्र और बढ़ते हुए अनुभव के दायरे में अटलजी ने शांति से अर्थ और शब्द से जीवन की व्यर्थता पर इस कविता के शब्दों को उकेरा है.


जीवन की ढलने लगी सांझ


जीवन की ढलने लगी सांझ
उमर घट गई
डगर कट गई
जीवन की ढलने लगी सांझ.


बदले हैं अर्थ
शब्द हुए व्यर्थ
शान्ति बिना खुशियाँ हैं बांझ.


सपनों में मीत
बिखरा संगीत
ठिठक रहे पांव और झिझक रही झांझ.
जीवन की ढलने लगी सांझ.


इमेर्जेंसी के बाद जब सारे नेता जेल से छोड़ दिए गए तब अटलजी समेत सभी नेता जेपी के साथ राजघाट पर प्रण लेने पहुंचे. सभी ने प्रण लिया कि सब साथ रहेंगे और साथ चलेंगे. मगर इस संकल्प का इतिहास गवाह है जनता पार्टी कैसे टूटी, और कैसे बिखर गई. जेपी ने जिस दृष्टि से जनता पार्टी के सृजन का सपना देखा था. ठीक उलट उन्होंने अपने आखों के सामने इस पार्टी का विघटन भी देखा. राजघाट पर जेपी के साथ जो शपथ ली गई उसका पालन नहीं हुआ. इसका अटल जी को हमेशा अफसोस रहेगा. उसी वक्त अटलजी ने इस कविता को लिखा था जो उनकी पीड़ा को थोड़ी कम करती जरूर करती होगी.


कदम मिला कर चलना होगा


बाधाएं आती हैं आएं
घिरें प्रलय की घोर घटाएं,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं,
निज हाथों में हंसते-हंसते,
आग लगाकर जलना होगा.
क़दम मिलाकर चलना होगा.


हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा.
क़दम मिलाकर चलना होगा.


उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा.
क़दम मिलाकर चलना होगा.


सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढ़लना होगा.
क़दम मिलाकर चलना होगा.


कुछ कांटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा.
क़दम मिलाकर चलना होगा.


आखिर में अटलजी की उस कविता का जिक्र जरूर करना होगा जो हमेशा से उनकी पहचान रही है. आज अगर अटल जी अपनी वाणी से अभिव्यक्त करने में सक्षम होते तो शायद जिंदगी और मौत की इस जंग में अपनी परिस्थितयों को इस कविता के माध्यम से वक्त जरूर करते.


गीत नया गाता हूं


टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर ,
पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर,
झरे सब पीले पात,
कोयल की कूक रात,
प्राची में अरुणिमा की रेख देख पाता हूं.
गीत नया गाता हूं.
टूटे हुए सपनों की सुने कौन सिसकी?
अंतर को चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी.
हार नहीं मानूंगा,
रार नहीं ठानूंगा,
काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूं.
गीत नया गाता हूं.


अपने राजनीतिक सफर में हर किसी पार्टी के हर कार्यकर्ताओं का सम्मान करने वाले इस महान राजनेता ने कहा था 'मेरे प्रभु मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना, गौरों को गले न लगा सकूं मुझे इतनी रुखाई कभी मत देना'