आडवाणी के साथ ‘वो सुबह’ लाकर ही माने अटल
इस जोड़ी ने वाक़ई देश की सियासी दशा-दिशा बदलकर रख दी. ख़ास बात है कि बीजेपी के इन दोनों शिखर पुरुषों के बीच कई बार मतभेद भी हुए, लेकिन वैचारिक मुद्दों पर इन्होंने कभी व्यक्तिगत संबंधों में कोई जरब नहीं आने नहीं दिया.
नई दिल्ली: जब वक़्त ख़राब हो तो दो बातें सबसे महत्वपूर्ण होती हैं. पहला संयम और दूसरा सच्चा हमसफ़र. अटल बिहारी वाजपेयी में धैर्य और संयम तो कूट-कूटकर था ही, मगर लालकृष्ण आडवाणी के रूप में ऐसा सियासी हमसफ़र मिला, जिसके साथ उन्होंने हर चुनौती को न सिर्फ ध्वस्त किया, बल्कि भारतीय राजनीति की दशा-दिशा बदल दी. संकट में अटल-आडवाणी दोनों ने आसान जीवन का विकल्प छोड़ कठिन रास्ते को चुना.
हार के बाद देखी थी फिल्म
1984 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की जब सिर्फ दो सीटें आईं थीं तब पूरी पार्टी अवसाद में थी. मगर अटल हार मानने वाले नहीं थे. ‘ न हार से न जीत से किंचित नहीं भयभीत मैं, संघर्ष पथ पर जो मिला यह भी सही वह भी सही..’ अपनी इस पंक्ति को जीवन में उतार चुके अटल उस समय आडवाणी के साथ दिल्ली में रात का फ़िल्मी शो देखने चले गए. आडवाणी इस क़िस्से का अक्सर ज़िक्र करते हैं और दिलचस्प है कि उस फ़िल्म का नाम था कि ‘ वो सुबह कभी तो आएगी’. ख़ास बात है कि ये जोड़ी वाक़ई बीजेपी के लिए वो सुबह लेकर आई और पार्टी सत्ता के शीर्ष पर पहुँची. इस जोड़ी ने वाक़ई देश की सियासी दशा-दिशा बदलकर रख दी. ख़ास बात है कि बीजेपी के इन दोनों शिखर पुरुषों के बीच कई बार मतभेद भी हुए, लेकिन वैचारिक मुद्दों पर इन्होंने कभी व्यक्तिगत संबंधों में कोई जरब नहीं आने नहीं दिया.
अटल दोस्ती का मर्म
अटल-आडवाणी की जोड़ी की तुलना राम और लक्ष्मण की जोड़ी से की जाए तो अतिशयोक्तिपूर्ण नही होगा. जैसे राम-लखन ने वनवास को चुना क्योंकि आदर्श स्थापित करना था वैसे भारत की राजनीति में एक ही जोड़ी है अटल आडवाणी की. वैसे तो उन्होंने जो राजनीतिक दिशा चुनी उसमें सिर्फ कांटे ही थे मगर सबसे कठिन दौर था जब पार्टी दो सीटों पर सिमट गई थी. तब दोनों ने पितृ पुरुष बनकर पार्टी को संभाला, मनोबल बरकरार रखा. दोनों की जोड़ी से नया सवेरा हुआ. दावे तो बहुत लोग करते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि इस जोड़ी का मर्म केवल वही समझते है, तीसरा कोई नहीं.
आडवाणी का कांप्लेक्स
ऐसे कितने संस्मरण हैं कि दोनों एक दूसरे के पूरक बने. कभी जब मतभेद भी हुए तो कई तीसरा उसमें जगह नहीं बना सका. दोनों का एक दूसरे पर अमिट विश्वास और आपसी सामंजस्य अभी भी पार्टी क्या भारतीय सियासत में नज़ीर है.
ख़ास बात है कि आडवाणी कभी भी वाजपेयी की तारीफ़ करने से नही चूकते थे. आडवाणी खुद ही ये बताते हैं कि कि अटलजी के भाषणों को लेकर वह हमेशा हीनभावना से ग्रस्त रहे. आडवाणी ने बताया था कि "जब अटलजी चार वर्ष तक भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके तो उन्होंने मुझसे अध्यक्ष बनने की पेशकश की. मैंने ये कहकर मना कर दिया कि मुझे हज़ारों की भीड़ के सामने आपकी तरह भाषण देना नहीं आता. उन्होंने कहा संसद में तो तुम अच्छा बोलते हो. मैंने कहा संसद में बोलना एक बात है और हज़ारों लोगों के सामने बोलना दूसरी बात. बाद में मैं पार्टी अध्यक्ष बना लेकिन मुझे ताउम्र यह कांपलेक्स रहा कि उनके जैसा भाषण कभी नहीं सका. ‘’ वहीं अटल भी आडवाणी की सांगठनिक क्षमता के हमेशा क़ायल रहे और सार्वजनिक रूप से इस बात का हमेशा इज़हार भी किया.