Chandryaan-3 Update: चंद्रयान-3 के लैंडर मॉड्यूल 'विक्रम' की बुधवार (23 अगस्त) को चंद्रमा की सतह पर सफल लैंडिंग हो गई है. इसके साथ ही भारत ने इतिहास रच दिया है. चंद्रयान-3 की सफलता से पूरा देश गदगद हैं और देशभर में जश्न मनाया जा रहा है. वही, पूरी दुनिया नतमस्तक होकर हिंदुस्तान के इस कमाल को सलाम कर रही है.
आज भले ही भारत चांद पर पहुंच गया है, लेकिन यह सफर इतना आसान नहीं रहा. यहां तक पहुंचने के लिए हिंदुस्तान के वैज्ञानिकों को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा.भारत ने आज से कई साल पहले चांद पर पहुंचने का ख्वाब देखा था.
एक वक्त था जब स्पेसक्राफ्ट की लॉन्चिंग के लिए इस्तेमाल होने वाला सामान बैलगाड़ी की मदद से पहुंचाया जाता था और आज चांद पर कदम रखकर हमने दुनिया को बता दिया है कि भारत किसी भी मामले में कम नहीं है.बता दें कि अंतरिक्ष में उड़ान भरने की दौड़ में भारत बहुत देर से शामिल हुआ था और उसने बेहद सीमित संसाधनों के साथ दौड़ना शुरू किया था.
स्पेस का सिकंदर बनने के होड़
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से ही रूस और अमेरिका स्पेस का सिकंदर बनने के लिए बेताब हो गए थे. दोनों देश एक दूसरे को पीछे छोड़ने के लिए पैसा पानी की तरह बहा रहे थे. सबसे पहले 1957 में रूस ने अंतरिक्ष में कदम रखा. इसके बाद अमेरिका भी रूस के पीछे-पीछे चांद पर पहंच गया.आप जानकर हैरान रह जाएंगे कि 1969 में अमेरिका ने अपोलो-11 मिशन पर 2 लाख करोड़ खर्च किए थे.
वहीं, अगर बात करें भारत की स्पेस की दुनिया में हिंदुस्तान का सफर शुरू केरल के तट थुंबा से शुरू हुआ था. भारत ने 21 नवंबर 1963 को अपने पहले साउंडिंग रॉकेट को लॉन्च किया था. उस वक्त दुनिया के किसी देश ने कल्पना भी नहीं की थी कि भारत एक दिन अंतरिक्ष में ऐसी उड़ान भरेगा जो सबके लिए मिसाल बन जाएगी.
बिशप के घर को प्रयोगशाला बनाया
बता दें कि केरल का थुंबा मछुआरों का गांव था. यहां एक चर्च के आगे खाली जगह से रॉकेट लॉन्च किया गया था और चर्च के बिशप के घर को प्रयोगशाला बनाया गया था. इतना ही नहीं उस समय भारत ने स्पेस में विमान भेजने के लिए नासा से रॉकेट लिया था.
साइकिल से पहुंचे रॉकेट पार्ट्स
उस समय देश में ट्रांसपोर्टेशन के पर्याप्त साधन तक नहीं थे. जिसकी वजह से रॉकेट के हिस्से को साइकिल की मदद से लॉन्चिंग की जगह पर पहुंचाया गया था. केरल के थुंबा से पहला रॉकेट लॉन्च होने के 6 साल बाद 15 अगस्त 1969 को इसरो की स्थापना की गई थी.
1971 में श्रीहरिकोटा में स्पेस सेंटर बना
इसके बाद 1971 में श्रीहरिकोटा में स्पेस सेंटर बना था, जिसे आज सतीश धवन अंतरिक्ष सेंटर के नाम से जाना जाता है. अब यहीं से सभी सैटेलाइट्स को लॉन्च किया जाता है. 19 अप्रैल 1975 को इसरो ने अपना पहला सैटेलाइट आर्यभट्ट लॉन्च किया.
इसरो ने कम्युनिकेशन सैटेलाइट लॉन्च किया
1977 में सैटेलाइट टेलीकम्युनिकेशन एक्सपेरिमेंट प्रोजेक्ट शुरु हुआ
जो टीवी को गांव-गांव तक लेकर गया. 18 जुलाई 1980 को पहला स्वदेशी सैटेलाइट एसएलवी- 3 लॉन्च किया और 1981 में इसरो का पहला कम्युनिकेशन सैटेलाइट लॉन्च हुआ.
बैलगाड़ी से लाए गए पेलोड
गौरतलब है कि 1981 में इसरो को कम्युनिकेशन सैटेलाइट के लिए एक टेस्ट करना था और पेलोड ले जाने के लिए बैलगाड़ी की मदद लेनी पड़ी थी.
आखिरकार, तीन साल बाद वो मौका आया जब पहले भारतीय अंतरिक्ष यात्री के तौर पर राकेश शर्मा ने 8 दिन स्पेस में बिताए.
भारत ने अपना जीपीएस सिस्टम बनाया
जब कारगिल युद्ध में दुश्मन की लोकेशन का पता लगाने के लिए अमेरिका के जीपीएस की जरूरत पड़ी थी तब अमेरिका ने मदद से साफ इंकार कर दिया और तब हिंदुस्तान ने ठाना था कि वे अब अपना जीपीएस बनाकर रहेगा. भारत समेत दुनिया के चुनिंदा देशों के पास अपना खुद का नेविगेशन सिस्टम है.
भारत का चंद्रयान-1 मिशन
इतना ही नहीं साल 2008 में भारत ने चंद्रयान-1 का मिशन शुरू किया और 25 सितंबर 2009 को भारत ने दुनिया को बताया कि उसने चंद्रमा की सतह पर मौजूद पानी का पता लगाया है. उस वक्त विश्व ने हिंदुस्तान को सलाम किया.
इसरो ने मिशन मार्स लॉन्च किया
2013 में इसरो ने मिशन मार्स लॉन्च किया 24 सितंबर 2014 को भारत इस तरह के अभियान में पहली बार में ही सफल होने वाला इकलौता देश बन गया. इस मिशन के साथ भारत ने दुनिया को ये बता दिया कि किस तरह बेहद कम लागत में बड़े से बड़े मिशन को कामयाब करने में वो सक्षम है.
400 करोड़ में भेजा मंगलयान
मंगल तक जाने पर भारत को प्रति किलोमीटर 7 रुपए का खर्च आया था.आम तौर पर ऑटो का किराया इससे ज्यादा होता है मंगलयान की लागत सिर्फ 400 करोड़ थी. आप सुनकर दंग रह जाएंगे कि चंद्रयान-3 की लागत मिशन इंपासिबल 7 की लागत का सिर्फ एक चौथाई यानि 25 फीसदी है.
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