नई दिल्लीः राज्यों को नौकरियों और दाखिले में आरक्षण देने के लिए अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों को और वर्गीकृत करने का अधिकार नहीं होने के 2004 के अपने फैसले की समीक्षा की वकालत करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बृहस्पतिवार को कहा, ‘‘एक समान वर्ग बनाने की आड़ में अमीरों को दूसरों की कीमत पर फलों की पूरी टोकरी नहीं दी जा सकती.’’


न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने कहा, ‘‘अगर अनुसूचित जातियों (एससी) की सूची में शामिल सभी जातियों के उद्धार के लाभ केवल कुछ जातियों को हड़पने दिये जाते हैं जिन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिलता है, जो आगे बढ़ गये हैं और क्रीमी लेयर से ताल्लुक रखते हैं तो यह असमानता पैदा करने के समान होगा जबकि भूख की बात करें तो सभी का पेट भरना और रोटी देना जरूरी है.’’


उन्होंने कहा, ‘‘एक समान श्रेणी बनाने की आड़ में अमीरों को दूसरों की कीमत पर फलों की पूरी टोकरी नहीं दी जा सकती.’’ पीठ ने कहा कि अगर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) में आरक्षण के फायदे उठाने के बाद सामाजिक स्तर पर ऊपर उठ चुके लोगों को अलग नहीं रखा जाता है और उनमें सबसे गरीबों को बढ़ावा नहीं दिया जाता है, तो संविधान के तहत प्रदत्त समानता का अधिकार निष्फल हो जाएगा.


पीठ में न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी, न्यायमूर्ति विनीत सरण, न्यायमूर्ति एम आर शाह और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस भी शामिल हैं. संविधान पीठ ने कहा, ‘‘संविधान निर्माताओं ने हमेशा के लिए आरक्षण का विचार नहीं किया था. एक ओर जहां ऊपर उठ गये लोगों को इससे अलग नहीं किया जाता, वहीं दूसरी ओर अगर संविधान के तहत उपश्रेणियां नहीं बनाई जातीं तो समानता का अधिकार निष्फल हो जाएगा.’’


उसने कहा, ‘‘आरक्षण देने का मकसद ही असमानता समाप्त करना है. संविधान में असमानता का ध्यान रखा गया है. एससी, एसटी और सामाजिक तथा आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों में असमानता के शिकार लोग हैं. अनेक रिपोर्ट में संकेत मिलते हैं कि एससी और एसटी एक समान समूह नहीं है.’’



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