योजनाओं की भरमार, आरक्षण पॉलिटिक्स भी..., गहलोत के ताबड़तोड़ वादों से राजस्थान में बदलेगा रिवाज?
राजस्थान के सियासी रण में अभी चुनावी वादे करने, लोकप्रिय और लुभावनी घोषणाएं करने में बीजेपी से सत्तारूढ़ कांग्रेस बहुत आगे है. किसानों के कर्ज माफी का वादा भी कांग्रेस कर रही है.
9 अगस्त को राहुल गांधी लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर भाषण देने के बाद बांसवाड़ा के मानगढ़ धाम के लिए रवाना हुए. यहां पर बड़ी संख्या में लोग उनका इंतजार कर रहे थे.
राहुल ने आदिवासी समुदायों की शिक्षा और आर्थिक समृद्धि सुनिश्चित करने के बजाय उन्हें वन भूमि तक सीमित रखने की बीजेपी की प्रवृत्ति पर ज्यादा ध्यान केंद्रित किया, वहीं गहलोत एक अलग ही टारगेट करते दिखे.
इसे राहुल गांधी की आदिवासी आउटरीच रैली माना जा रहा था. इसे आगामी राजस्थान विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस के अभियान की शुरुआत भी समझा जा रहा था. लेकिन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने इस मौके को आरक्षण के साथ अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को लुभाने का एक मंच बना दिया.
गहलोत ने कहा कि वह राजस्थान के लिए जाति आधारित जनगणना के राहुल के सुझाव से सहमत हैं. उन्होंने घोषणा की कि उनकी सरकार राज्य के ओबीसी के बीच सबसे हाशिए वाले वर्गों को सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा में 6 प्रतिशत कोटा प्रदान करेगी, जो ओबीसी के लिए 21 प्रतिशत आरक्षण के अतिरिक्त होगा. यह गहलोत की पहली बड़ी चुनाव-केंद्रित घोषणा थी.
ऐसा लग रहा है कि राजस्थान के सियासी रण में अभी चुनावी वादे करने, लोकप्रिय और लुभावनी घोषणाएं करने में बीजेपी से सत्तारूढ़ कांग्रेस बहुत आगे है. किसानों के कर्ज माफी का वादा भी कांग्रेस कर रही है.
अपने पहले मुख्यमंत्री कार्यकाल (1998-2003) के दौरान गहलोत पर जाटों को ओबीसी का दर्जा देने का भारी दबाव था. जाटों को मोटे तौर पर राज्य में एक समृद्ध जाति माना जाता था.
अशोक गहलोत ऐसा नहीं चाहते थे, क्योंकि जाटों को ओबीसी का दर्जा देने का मतलब था कि उन्हें नौकरियों में आरक्षण के साथ-साथ ओबीसी की कीमत पर पंचायत और स्थानीय निकायों के चुनावों से भी लाभ होगा.
लेकिन जब केंद्र सरकार ने केंद्रीय नौकरियों में जाटों के लिए ओबीसी श्रेणी के तहत आरक्षण की घोषणा की, तो कांग्रेस आलाकमान ने गहलोत को अपने राज्य में जाटों को ओबीसी में शामिल करने के लिए कहा. तब से, 'मूल' और योग्य पिछड़ी जातियों के अधिकारों की रक्षा करने की मांग की जा रही है.
'मूल' ओबीसी अपने लिए मौजूदा 21 प्रतिशत आरक्षण के भीतर दो सूचियों की मांग कर रहे हैं- मूल पिछड़ी जातियों' के लिए लगभग 12 प्रतिशत और बाकी के लिए 9 प्रतिशत. हालांकि जाटों को इस पर आपत्ति है.
जाटों के लिए आरक्षण की बात से गुर्जरों ने अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा देने के लिए आंदोलन शुरू किया. हालांकि, मीणा समुदाय, जिसे एसटी आरक्षण से सबसे ज्यादा फायदा होता दिख रहा है.
एक लंबे समय के बाद गुर्जरों को 5 प्रतिशत का अति पिछड़ा वर्ग (एमबीसी) आरक्षण दिया गया, लेकिन यह न्यायिक जांच के दायरे में है. राजस्थान में अभी ओबीसी को 21%, एससी को 16%, एसटी को 12%, ईडब्ल्यूएस को 10% और एमबीसी को 5% आरक्षण है.
ताजा घोषणा ओबीसी आरक्षण को 21 से बढ़ाकर 27 प्रतिशत करने की है. इसके लिए ओबीसी आयोग अति पिछड़ी जातियों का सर्वे करेगा. राजस्थान में ओबीसी में 80 से ज्यादा जातियां शामिल हैं.
इनकी जनसंख्या 55 फीसदी तक मानी जा रही है. आयोग की सर्वे रिपोर्ट और बढ़ा हुआ आरक्षण लागू होने के बाद ओबीसी में ही अति पिछड़ी जातियों के युवाओं को सरकारी नौकरी और अन्य योजनाओं में फायदा मिलेगा.
गहलोत ने यह भी कहा कि वह ओबीसी में सबसे पिछड़े लोगों की पहचान करने के लिए एक सर्वेक्षण कराएंगे. जानकारों का मानना है कि जनसंख्या के आधार पर आरक्षण की मांग की जांच करने के उनके बयान के अलग-अलग मायने हैं.
इससे एक संकेत ये भी मिलता है कि वह जातिगत राजनीति को आगे बढ़ाने के अलावा राज्य में जातिगत जनगणना कराएंगे. इसका राजनीतिक प्रभाव आने वाले दिनों में साफ होगी.
उदाहरण के लिए, जाट आरक्षण में और भी बड़े हिस्से की मांग कर रहे हैं और इस तरह सबसे पिछड़े लोगों के लिए ओबीसी कोटा सीमा को 27 प्रतिशत तक बढ़ाने की मांग रखी जा रही है.
राजस्थान विधानसभा में विपक्ष के नेता राजेंद्र राठौड़ ने मीडिया को दिए इंटरव्यू में कहा कि गहलोत संवैधानिक प्रावधानों का पालन किए बिना आरक्षण का विस्तार नहीं कर सकते.
'मूल' ओबीसी की कोई श्रेणी नहीं है, और उनमें से सबसे पिछड़े की पहचान करने के लिए, सरकार को एक पूर्ण आयोग का रास्ता अपनाना होगा. अगर गहलोत इस मुद्दे को लेकर गंभीर हैं, तो उन्हें पहले एक पूर्ण आयोग नियुक्त करना चाहिए.
क्या ओबीसी वोटरों को साधने के लिए गहलोत ने चला ये दांव
राजनीतिक जानकारों का ये मानना है कि जिस तरह से ओबीसी आरक्षण की मांग एक लंबे समय से रखी जा रही थी, और अब जिस तरह चुनावी साल में गहलोत ने ओबीसी आरक्षण की बात कही है वो सीधे तौर पर ओबीसी वोटरों को साधने के लिए एक सियासी चाल है.
जानकारों का ये भी मानना है राजस्थान आगामी विधानसभा चुनाव नजदीक है. मुख्यमंत्री गहलोत के फैसले का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ने की संभावना है, क्योंकि यह ओबीसी समुदाय के भीतर सबसे हाशिए पर रहने वाले लोगों की जरूरतों को पूरा करने पर केंद्रित है.
उन्हें शिक्षा और सरकारी नौकरियों में अतिरिक्त अवसर प्रदान करके, गहलोत का उद्देश्य इन समुदायों का उत्थान करना और विकास में अंतराल को पाटना है.
भारत में आरक्षण नीतियों के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता है. इन नीतियों को कुछ समुदायों द्वारा सामना किए जाने वाले ऐतिहासिक नुकसान को सुधारने और समावेशिता को बढ़ावा देने के लिए डिज़ाइन किया गया है. लेकिन अशोक गहलोत इसमें तभी कामयाब माने जाएंगे जब वो संतुलन बनाते हुए सभी पृष्ठभूमि के योग्य उम्मीदवारों को समान अवसर दिला सकें.
चुनाव पर कितना पड़ेगा असर
चूंकि यह घोषणा विधानसभा चुनाव से ठीक पहले की गई है, इसलिए यह ओबीसी समुदाय के मतदाताओं को पार्टी की तरफ आकर्षित कर सकती है. गहलोत का यह कदम संभावित रूप से अपनी पार्टी के पक्ष में इन मतदाताओं का समर्थन दिलाने में अहम भूमिका निभा सकता है.
कुल मिलाकर ओबीसी समुदाय के भीतर अति पिछड़ी जातियों के लिए 6% आरक्षण शुरू करने के मुख्यमंत्री गहलोत के फैसले से राजस्थान के सामाजिक-आर्थिक विकास पर सकारात्मक प्रभाव पड़ने की उम्मीद है.
गहलोत ने एक मैसेज ये भी दिया है कि पार्टी समाज के सभी वर्गों के लिए समान अवसर बनाने की कोशिश कर रहे हैं. आगामी विधानसभा चुनाव से पता चलेगा कि यह निर्णय किस हद तक मतदाताओं को लुभाता है और राजस्थान के राजनीतिक परिदृश्य को आकार देता है.
क्या ताबडतोड़ वादे राजस्थान में कांग्रेस को मदद पहुंचाएंगे
पिछले चुनाव में भी दोनों ही पार्टियों ने अपने घोषणा पत्र में वादों की झड़ी लगा दी थी. इस बार भी पार्टियां एक से बढ़ कर लोकलुभावन वादे कर रही है. ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि चुनाव से पहले पार्टियों ने लोकलुभावने वादे किए हों.
जानकारों का ये मानना है कि राजस्थान के रण में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों ही सीधे तौर पर मुकाबले में हैं. राज्य में कोई दूसरी पार्टी को ज्यादा अहमियत नहीं दी जाती है.
लिहाजा दोनों की ओर से किए गए वादों और बयानों का राजनीतिक, समाजिक, और आर्थिक मायनों में काफी महत्व है. अगर हम पिछले 10 साल की बात करें तो दोनों ही पार्टियां 1-1 बार सत्ता के सिंहासन पर काबिज हो चुकी हैं.
इसके बावजूद भी राजस्थान की सूरत बहुत ज्यादा नहीं बदली है.
कांग्रेस वादों और फ्री स्कीम को लेकर बीजेपी से आगे चल रही है लेकिन तथ्य यह है कि पूर्व मुख्यमंत्री सचिन पायलट के खुले विद्रोह के बाद पार्टी में कलह दूर नहीं हुई है.
पार्टी में दरार ने संगठनात्मक ढांचे को भी कमजोर कर दिया है जिसे आने वाले दिनों में मजबूत करने की जरूत है. चुनाव नजदीक है और वक्त कम. गहलोत को पार्टी के संगठनात्मक ढांचे में सुधार करने की जरूरत है.
दिलचस्प बात यह है कि 2022 राज्य में कांग्रेस के दो साल पूरे होने पर बीजेपी नेताओं ने कृषि ऋण माफी और बेरोजगारी पर ध्यान केंद्रित करने वाली सरकार की आलोचना करते हुए एकता दिखाई थी. कांग्रेस में अंदर से एकता की कमी है. जो पार्टी के लिए सबसे बड़ा सवाल है.