भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दिए जाने के दो दिन बाद एक और क्रांतिकारी ने देश के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी थी. वो क्रांतिकारी थे गणेश शंकर विद्यार्थी. सांप्रदायिक दंगों को शांत कराने के दौरान उन्होंने सिर्फ 40 साल की उम्र में अपने प्राणों की आहुति दे दी थी. उनके निधन पर तब महात्मा गांधी ने कहा था कि उन्हें ऐसी मृत्यु से ईर्ष्या होती है, काश उन्हें भी वैसी मौत नसीब हो.


गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहबाद के अतरसुईया में हुआ था.  उनके पिता एक टीचर थे और स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद विद्यार्थी इलाहबाद चले गए. उन्होंने कायस्थ पाठशाला कॉलेज में एडमिशन लिया, लेकिन आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने की वजह से वह पढ़ाई पूरी नहीं कर सके. आर्थिक हालातों के चलते उन्होंने काम शुरू कर दिया. साथ में पढ़ाई भी चलती रही. इस पढ़ने-लिखने के क्रम में उन्होंने विद्यार्थी शब्द को अपने नाम में जोड़ लिया, ताकि सीखने का क्रम जारी रहे. शुरुआत में वह साहित्यिक पत्रिका 'सरस्वती' के लिए राइटिंग और एडिटिंग का काम करते थे, लेकिन उनकी ज्यादा रुचि करंट अफेयर्स में थी. इसके साथ ही उनकी लिखने-पढ़ने में रुचि बढ़ती गई और फिर उन्होंने कर्मयोगी के लिए लिखना शुरू कर दिया. इस तरह उनका मन स्वतंत्रता आंदोलन की तरफ भी तेजी से झुकने लगा.


प्रताप की स्थापना
जब वह 23 साल के थे तो कानपुर चले गए और यहां उन्होंने हिंदी के साप्ताहिक अखबार प्रताप की नींव रखी.  9 नवंबर 1913 को तीन साथी शिव नारायण मिश्र, नारायण प्रसाद अरोड़ा और यशोदानंदन के साथ मिलकर उन्होंने प्रताप अखबार शुरू किया. प्रताप के प्रतिरोध की आवाज इतनी बुलंद थी कि बहुत जल्द ही इसे पहचान मिल गई और प्रताप का ऑफिस क्रांतिकारियों के लिए शरणगाह बन गया. प्रताप में गणेश शंकर विद्यार्थी ने ब्रिटिश हुकूमत, किसानों के मुद्दे और स्वतंत्रता आंदोलन को भी प्रमुखता से छापा इसलिए उनके ऑफिस पर पुलिस की भी नजर रहती थी. देशवासियों, किसानों के पक्ष में और ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध लिखे लेखों के कारण गणेश विद्यार्थी को पांच बार जेल भी जाना पड़ा. एक मामले में पंडित जवाहर लाल नेहरू, मोती लाल नेहरू और श्री कृष्ण मेहता ने उनके लिए गवाही भी दी, लेकिन अंग्रेजों ने फिर भी उन्हें जेल में डाल दिया. 


गांधीवादी से बन गए क्रांतिकारी
प्रताप को चलाते वक्त गणेश शंकर विद्यार्थी ने जो लेख लिखे उन्होंने क्रांतिकारियों में तो खूब पहचान दिलाई ही, लेकिन अंग्रेजों की आंखों को भी वह बहुत चुभने लगे. इसके चलते, उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा. उनका बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह से संपर्क था. स्वतंत्रता आंदोलन की तरफ बढ़ती रुचि के चलते वह गांधीवादी से क्रांतिकारी बन गए. हालांकि, हिंसा के वह हमेशा खिलाफ थे. क्रांतिकारियों की भी उन्होंने खूब मदद की.


सांप्रदायिक दंगों में गई जान
यह बात 1931 की है, जब 23 मार्च को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दी गई और पूरे देश में बंद बुलाया गया. इसी दौरान कानपुर में दंगा भड़क गया. 25 मार्च को गणेश शंकर विद्यार्थी दंगा शांत कराने के लिए भीड़ में पहुंच गए और हिंदुओं की भीड़ से मुस्लिमों और मुस्लिमों की भीड़ से हिंदुओं को बचाया. दंगा शांत कराने में वह कामयाब भी रहे, लेकिन दो गुटों में फंस गए और हिंसक भीड़ ने कुल्हाड़ी और चाकू मार-मार कर उनकी जान ले ली.


क्या बोले थे महात्मा गांधी
गणेश शंकर विद्यार्थी के निधन पर महात्मा गांधी ने कहा था कि उनकी मृत्यु एक ऐसे महान उद्देश्य के लिए हुई है कि ऐसी मौत से उन्हें ईर्ष्या हो रही है. काश ऐसी मौत उन्हें भी नसीब हो.