नई दिल्ली: देश की राजनीति में विद्रोही, समाजवादी और मजदूर राजनेता के तौर पर शुमार जॉर्ज फ़र्नान्डीस का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है. परंपराओं को तोड़ने और लीक से हटकर अपनी राजनीति की राह बनाने वाले जॉर्ज फ़र्नांडीस अक्सर मौके पर अपने विरोधियों से टकरा जाने के लिए जाने जाते रहे हैं. फ़र्नान्डीस की पूर्व पीएम इंदिरा गांधी से सीधी टक्कर हो या रक्षा मंत्री रहते रक्षा सौदे में घोटाले का आरोप, वो हमेशा सुर्खियों में रहे. निजी जीवन के रिश्तों का विवाद उनकी उम्र के आखिरी पड़ाव तक रहा.


इस मजदूर नेता की अनेक कहानियां-किस्से हैं. सत्ता से बाहर रहकर सत्ता को उखाड़ फेंकने की कसमें खाई और जब खुद सत्ता में आए तो भ्रष्टाचार के आरोप से बच न सके, लेकिन इन सब आरोप-प्रत्यापों के बावजूद उनका शुमार एक ईमानदार नेता के तौर पर होता रहा.


अपना काम खुद से करने में यकीन रखने वाले जॉर्ज फ़र्नांडीस  सादगी की मिसाल अपने आप है. जॉर्ज के बारे में कहा जाता है कि उनके सिर्फ दो अदद ही कपड़े होते थे और वो अपने कपड़े खुद धोया करते थे. इसमें किसी मदद नहीं लेते थे. सादगी की दूसरी मिसाल ये है कि उन्होंने कभी अपने आवास के लिए सुरक्षा गार्ड नहीं लिए. यहां तक कि वाजपेयी सरकार में रक्षा मंत्री बनने के बाद भी उन्होंने सुरक्षा गार्ड नहीं लिए. और जब साल 2001 में संसद पर हमला हुआ जब जाकर काफी मशक्कत के बाद वो तैयार हुए और फिर उनके आवास पर सुरक्षा गार्ड की तैनाती की गई.


जॉर्ज फ़र्नांडीस  के बारे में कहा जाता है कि वो पढ़ने और खाने के खासे शौकीन थे. उनकी अपनी एक बड़ी लाइब्रेरी थी और उन्होंने उसकी एक-एक किताबें पढ़ डाली थी. इस तरह वो खाने के भी जबरदस्त शौकीन थे. उन्हें मछली खूब पंसद थी.


रक्षा सौदे में दलाली के आरोप


13 मार्च 2001 में 'तहलका' पत्रिका ने एक स्टिंग ऑपरेशन किया, जिसमें रक्षा सौदे में दलाली का आरोप लगा और ये आरोप तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फ़र्नांडीस  पर लगा. इस स्टिंग ऑपरेशन को नाम दिया गया “ऑपरेशन वेस्टएंड.”. दरअसल तहलका ने वेस्ट एंड इंटरनेशनल नाम की लंदन की फर्जी हथियार कंपनी प्लांट की. इसके जरिए वो हथियार सौदे में होने वाले घोटाले को खोलना चाह रहे थे. इस ऑपरेशन में सबसे पहले पड़ताल ब्यूरोकेसी के निचले स्तर से शुरू हुई. धीरे-धीरे यह पड़ताल बीजेपी के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण तक भी पहुंची. जिसके बाद उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा.

इस स्टिंग में जॉर्ज फर्नांडिस की करीबी सहयोगी और समता पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष जया जेटली को दो लाख की रिश्वत लेते हुए दिखाया गया. इसके बाद आरोप के छींटे जॉर्ज तक भी आए. उनकी पार्टी को ढाई लाख रुपए पहुंचाए गए थे.


जब बात उनतक पहुंची तो उन्हें भी अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा. हालाकि इस मामले के लिए बनी जांच कमिटी ने जांच के बाद उन्हें क्लीनचीट दे दी और वह फिर एक बार अपने पद पर आ गए.


इंदिरा गांधी से सीधे टक्कर


जब 1975 में तात्कालिक प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाया तो उसके विरोध में विपक्ष के सभी पार्टियों ने देशभर में आंदोलन छेड़ दिया था. जॉर्ज फ़र्नांडीस उस समय मजदूर नेता के रूप में उभरे थे. वे अमेरिकी सम्राज्यवाद और विदेशी पूंजी के घोर विरोधी रहे. द हिन्दू के मुताबिक, आपातकाल के विरोध में जॉर्ज तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार को गिराने के लिए आंदोलन चला रहे थे. विकिलीक्स के दस्तावेजों के मुताबिक, इस सिलसिले में उन्होंने फ्रांस सरकार के लेबर अटैशे मैनफ्रेड तरलाक से मुलाकात की थी और उनसे आर्थिक मदद मांगी थी.


डायनामाइट लगाकर विस्फोट और विध्वंस करने का फैसला


जब देश में आपातकाल की घोषणा हुई तो इसके बाद जॉर्ज को लगा अब वक्त आ गया है कुछ करने का. इसके बाद उन्होंने डायनामाइट लगाकर विस्फोट और विध्वंस करने का फैसला किया. इसके लिए ज्यादातर डायनामाइट गुजरात के बड़ौदा से आया पर दूसरे राज्यों से भी इसका इंतजाम किया गया था. इस घटना का जिक्र आपातकाल पर लिखी कूमी कपूर की किताब में है. इसमें बताया गया है कि जॉर्ज समर्थकों के निशाने पर मुख्यत: खाली सरकारी भवन, पुल, रेलवे लाइन और इंदिरा गांधी की सभाओं के नजदीक की जगहें थीं.


इसके बाद जॉर्ज और उनके साथियों को जून 1976 में गिरफ्तार कर लिया गया. इसके बाद उन सहित 25 लोगों के खिलाफ सीबीआई ने मामला दर्ज किया जिसे बड़ौदा डायनामाइट केस के नाम से जाना जाता है.


1977 में जेल से लड़ा चुनाव


जॉर्ज फ़र्नांडीस ने 1974 में रेलवे स्ट्राइक की. इसके बाद वो अंडरग्राउंड हो गए. 1976 में ये पकड़े गए थे. हथकड़ियों में लिपटे जॉर्ज की फोटो इंदिरा के अत्याचार की तस्वीर बन गई थी. 25 जून, 1975 से लेकर 21 मार्च, 1977 तक भारत में इमरजेंसी लगी रही. इसी दौरान 23 जनवरी, 1977 को इंदिरा गांधी ने अचानक से एलान कर दिया कि देश में चुनाव होंगे. 16 से 19 मार्च तक चुनाव हुए. 20 मार्च से काउंटिंग शुरू हुई और 22 मार्च तक लगभग सारे रिजल्ट आ गए.


इस चुनाव में जेल से ही जॉर्ज फ़र्नांडीस ने चुनाव लड़ा. इस लोकसभा चुनाव से वह मुज़फ़्फ़रपुर से चुनाव लड़े और जीते. उस वक्त वो तिहाड़ जेल के वार्ड नंबर 17 में बंद थे.


लैला कबीर से शादी और फिर दूरियां


लगातार गरीबों के लिए आवाज़ उठाने वाले जॉर्ज को प्यार हुआ और प्यार शादी में भी बदला लेकिन शादी चल नहीं पाई. दरअसल नेहरू के मंत्रिमंडल में शिक्षा मंत्री रहे हुमांयु कबीर की बेटी लैला कबीर से जॉर्ज की मुलाकात 1971 में कलकत्ता से दिल्ली आते हुए इंडियन एयरलाइंस की एक फ़लाइट में हुई थी. पहली मुलाकात में जॉर्ज को प्यार हो गया. जब इंडियन एयरलाइंस फ़लाइट दिल्ली पहुंची तो जॉर्ज ने लैला कबीर को घर छोड़ने की बात कही. उन्होंने हां कह दिया और फिर जॉर्ज उन्हें उनके घर छोड़ने चले गए. इसके बाद मिलने का सिलसिला शुरू हो गया. तीन महीने बाद जॉर्ज ने लैला कबीर को दिल की बात बताई और शादी के लिए कहा. लैला कबीर ने भी उनका प्रस्ताव मान लिया. 22 जुलाई, 1971 को उन्होंने शादी कर ली. लैला ने एक बेटे को जन्म दिया, जिसका नाम शॉन फर्नांडिस. है. दोनों की शादी हुई और इस शादी में जॉर्ज की सबसे बड़ी विरोधी इंदिरा गांधी भी पहुंची थी.


हालाकि यह शादी ज्यादा नहीं चल पाई और 1984 में दोनों के संबंधों में दरार आ गई. दरअसल 25 जून 1975 को जब आपातकाल लगा, जॉर्ज और लैला उड़ीसा के गोपालपुर में छुट्टियां मनाने गए हुए थे. जॉर्ज यहां से अंडरग्राउंड हो गए थे. अगले 22 महीने तक उनकी लैला से कोई बात नहीं हुई. लैला अपने बेटे के साथ अमेरिका चली गईं. आपातकाल खत्म होने पर जॉर्ज ने उन्हें बुलावा भेजा. लेकिन तब तक इस रिश्ते में काफी पानी बह चुका था.


जया से मुलाकात और कोर्ट कचहरी के चक्कर


जॉर्ज फ़र्नान्डीस की जया जेटली से पहली मुलाकात 1977 में हुई. ये वो वक्त था जब जॉर्ज फ़र्नांडीस  जनता पार्टी सरकार में उद्योग मंत्री थे और दिलचस्प बात ये है कि जया के पति अशोक जेटली उनके स्पेशल असिस्टेंट थे. इसी के बाद जॉर्ज-जया के बीच मुलाकातों का सिलसिला बढ़ा. जया जेटली ने अपनी किताब 'लाइफ़ अमंग द स्कॉरपियंस' में लिखा है कि वो जॉर्ज एक अच्छे राजनेता था और उनकी मानवतावादी सोच के कारण वो उनकी मुरीद हो गईं.


जॉर्ज इस समय 'अलज़ाइमर' की बीमारी से पीड़ित हैं. उनकी याददाश्त और पहचानने की शक्ति जाती रही है. इस बीच लगभग 23 साल बाद जॉर्ज की अपनी पत्नी लैला कबीर से फोन पर बात हुई. बेटे को भी पिता के बीमारी के बारे में पता चला. इसके बाद 2 जनवरी, 2010 को लैला जॉर्ज के घर पहुंचती हैं. उनके साथ उनके बेटे शॉन और बहू भी होती हैं. लैला घर के एक कमरे में खुद को जॉर्ज के साथ बंद कर लेती हैं. जब वो वहां से निकलती हैं, तो जॉर्ज के अंगूठे पर स्याही का निशान छोड़ जाती हैं. इस तरह जॉर्ज की पावर ऑफ़ अटर्नी, जो कि नवंबर 2009 में जया के नाम पर लिखी गई थी, वो लैला के पक्ष में चली जाती है.


इसके बाद एक लंबी कानूनी लड़ाई चलती है. 2014 में काफ़ी मशक्कत और कानूनी लड़ाई लड़ने के बाद जया जेटली को हर 15 दिनों पर सिर्फ़ 15 मिनटों के लिए जार्ज फ़र्नान्डीस से मिलने की अनुमति मिल जाती है. जो अब तक उनके निधन से पहले जारी रहा.


जॉर्ज ने 1994 में बनाई नई पार्टी

1994 में जॉर्ज ने नई पार्टी बनाई. उन्होंने नीतीश कुमार सहित कुल 14 सांसदों के साथ जनता दल से नाता तोड़कर जनता दल जे बनाया जिसका नाम अक्टूबर 1994 में समता पार्टी पड़ा.


इसके बाद पार्टी ने 1995 में बिहार विधानसभा चुनाव लड़ा लेकिन अपेक्षित सफलता नहीं मिली. इसके बाद 1996 में बीजेपी से समता पार्टी का गठबंधन हुआ. सब सहयोगियों को सरकार में शामिल किया गया तब वाजपेयी ने जॉर्ज को रक्षा मंत्री बनाया था. 1999 में करगिल के वक्त ताबूत घोटाला सामने आया. कांग्रेस ने संसद नहीं चलने दी कफन चोर तक कहा. लेकिन जब जांच हुई तो जॉर्ज बेदाग साबित हुए और दोबारा मंत्री बने.


जॉर्ज को जनता का नेता कहना गलत नहीं होगा. उन्होंने हर बार गलत चीजों के खिलाफ आवाज़ उठाई. उनपर जब भी आरोप लगे तब उन्होंने इस्तीफा दिया और बेदाग होकर लौटे.