नई दिल्ली: अगर सवाल यह हो कि किनके गीतों-कविताओं में जीवन-मृत्यू, हार-जीत, सुख-दुख, अंधकार और उसके बाद होने वाले प्रकाश जैसा सबकुछ है तो इस सवाल का जवाब गोपालदास नीरज हैं. वही गोपालदास नीरज जिन्हें हिन्दी की वीणा कहकर पुकारा गया. जिंदगी के हर रंग को वह कागज पर कुछ यूं उकेरते रहें जैसे कोई भावनाओं का संजीव चित्र बना रहा हो. वे रुमानियत और श्रृंगार के कवि तो माने ही जाते थे पर उनकी कविताओं में जीवन दर्शन भी काफी गहराई से उभर कर आती है.


जितना कम सामान रहेगा
उतना सफ़र आसान रहेगा
जितनी भारी गठरी होगी
उतना तू हैरान रहेगा


संघर्ष के भरा रहा जीवन

गोपालदास सक्सेना 'नीरज' का जन्म 4 जनवरी 1925 को इटावा जिले के पुरावली गांव में हुआ. बड़ी छोटी उम्र में पिता ब्रजकिशोर सक्सेना का साया उनके उपर से उठ गया. नीरज ने 1942 में एटा से हाई स्कूल परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की. परिवार की माली हालत अच्छी नहीं थी इसलिए शुरुआत में इटावा की कचहरी में कुछ समय टाइपिस्ट का काम किया उसके बाद सिनेमाघर की एक दुकान पर भी नौकरी की. लंबी बेरोजगारी के बाद दिल्ली जाकर सफाई विभाग में टाइपिस्ट की नौकरी करने लगे.


इसके बाद भी जैसे संघर्ष ने नीरज का पीछा नहीं छोड़ा. वह दिल्ली से नौकरी छूट जाने के बाद कानपुर पहुंचे और वहां डीएवी कॉलेज में क्लर्क की नौकरी की. फिर बाल्कट ब्रदर्स नाम की एक प्राइवेट कंपनी में पांच साल तक टाइपिस्ट का काम किया. कानपुर के कुरसंवा मुहल्ले में उनका लंबा वक्त गुजरा. नौकरी के साथ पढ़ाई करते रहे और 1953 में प्रथम श्रेणी में हिन्दी साहित्य से एमए किया.


इसके बाद मेरठ के कॉलेज में हिन्दी प्रवक्ता के तौर पर काम किया. उसके बाद अलीगढ़ में धर्म समाज कॉलेज में नौकरी की. यहीं उनका अपना घर हुआ. सारी उम्र सफर करते हुए नीरज थक गए थे तभी उन्होंने कहा था


तमाम उम्र मैं इक अजनबी के घर में रहा
सफ़र न करते हुए भी किसी सफ़र में रहा


कवि सम्मेलन में अपार लोकप्रियता मिली


कवि सम्मेलनों में उनको अपार लोकप्रियता मिली. कहा जाता था कि अगर नीरज घर बैठ जाएं तो कवि सम्मेलन बंद हो जाएंगे. लोग उनकी कविता को सुनने मीलों का सफर तय करके आते थे. जब वह अपने प्रेम की कविताओं को सुनाया करते तो पूरा मजमा वाह-वाह कर उठता था.


हरिवंशराय बच्चन से बहुत प्रभावित थे


नीरज हरिवंशराय बच्चन से बहुत प्रभावित थे. उन्होंने इस बात को 1944 में प्रकाशित उनकी पहली काव्य-कृति 'संघर्ष' में बताया. 'संघर्ष' में 'नीरज' ने बच्चन जी के प्रभाव को ही स्वीकार नहीं किया, बल्कि यह पुस्तक भी उन्हें समर्पित की थी. उन्होंने लिखा था, ''बच्चन जी से मैं बहुत अधिक प्रभावित हुआ हूं. इसके कई कारण हैं, पहला तो यही कि बच्चन जी की तरह मुझे भी ज़िन्दगी से बहुत लड़ना पड़ा है, अब भी लड़ रहा हूं और शायद भविष्य में भी लड़ता ही रहूं.''


फिल्मों में लिखे कई मशहूर गाने


नीरज को मुंबई के फिल्म जगत से गीतकार के रूप में फिल्म 'नई उमर की नई फसल' के गीत लिखने का निमन्त्रण मिला. पहली ही फिल्म में उनके लिखे कुछ गीत - ''कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे'' और ''देखती ही रहो आज दर्पण न तुम, प्यार का यह मुहूरत निकल जाएगा'' बेहद लोकप्रिय हुए. इसके बाद वे मुंबई में रहकर फिल्मों के लिए गीत लिखने लगे. सफर जब शुरू हुआ तो 'लिखे जो खत तुझे' 'ए भाई जरा देख के चलो' 'दिल आज शायर है', 'फूलों के रंग से' और 'मेघा छाए आधी रात' जैसे सदाबहार नग्में यादों में बस गए.


अलीगढ़ वापसी


फिल्मों में लिखते-लिखते वह मुंबई की ज़िन्दगी से उब गए. इसके बाद वे अलीगढ़ वापस लौट आए. इसका एक कारण यह भी था कि बॉलीवुड में उनके गीतों की कद्र करने वाले संगीतकारों की फेहरिश्त खत्म हो गई थी. उन्होंने मुंबई के फिल्म इंडस्ट्री के बीरे में ही कहा था


न पीने का सलीका न पिलाने का शऊर
ऐसे भी लोग चले आए हैं मयखाने में

नीरज का शरीर तो दुनिया से जा चुका है लेकिन नीरज गीत बनकर आज भी हमारे साथ हैं. जब तक दुनिया में साज रहेगा, प्रेम रहेगा तब तक पपीहा नीरज का पता बताती रहेगी.