वाराणसी: "अगर कोई ये कहे है कि वो मरने से नहीं डरता, तो या तो वो झूठ बोल रहा है या फिर वो गोरखा सैनिक है." ये कहना था भारत के फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ का. भारत के लिए पिछले 200 सालों से जी-जान से सेवा और सुरक्षा करने वाले गोरखा राईफल्स के सैनिकों के लिए ये शब्द एकदम सटीक बैठते हैं. गोरखा राईफल्स की सबसे पुरानी रेजीमेंट, नाइन-जीआर ('9जीआर') शुक्रवार को अपना 200वां स्थापना दिवस मना रही है. भारतीय सेना की कम ही रेजीमेंट हैं जो इतनी पुरानी हैं.
नेपाली मूल के नागरिक हो सकते हैं शामिल:-
गोरखा राईफल्स की खास बात ये है कि नेपाली मूल के नागरिक ही शामिल हो सकते हैं. 9जीआर में नेपाल के ब्राह्मण, क्षेत्री, ठाकुर, सेन और शाही जाति के लोग ही भर्ती हो सकते हैं. गोरखा राईफल्स के जवानों ने आजादी के बाद से सभी लड़ाईयों में बढ़चढ़कर हिस्सा लिया है. फिर वो चाहे 1948 हो या फिर चीन से 1962 का युद्ध हो या फिर पाकिस्तान के खिलाफ '65, '71 और करगिल युद्ध हो. आजादी से पहले भी ब्रिटिश काल में गोरखा सैनिकों ने पहला विश्वयुद्ध हो या दूसरा, दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में जाकर जंग लड़ीं.
हालांकि गोरखा राईफल्स की स्थापना अंग्रेजों ने 1817 में की थी, जिसके चलते ही इस साल 9जीआर का दो सौवां स्थापना दिवस मनाया जा रहा है. इस मौके पर 9जीआर के बनारस (वाराणसी) स्थित रेजीमेंटल सेंटर में भव्य आयोजन किया जा रहा है. इस कार्यक्रम में थलसेना प्रमुख, जनरल बिपिन रावत खुद मौजूद रहेंगे. आपको बता दें कि जनरल बिपिन रावत भी गोरखा रेजीमेंट से ताल्लुक रखते हैं. हालांकि वे गोरखा राईफल्स की 11जीआर से जुड़े हुए हैं. 9जीआर के कर्नल-कमांडेंट (यानि सबसे सीनियर अधिकारी) मौजूदा डीजीएमओ, लेफ्टिनेंट जनरल ए के भट्ट हैं.
1817 में हुई की स्थापना:-
दरअसल, भारतीय सेना की गोरखा राईफल्स ही एक मात्र पलटन ऐसी है जिसकी अलग-अलग रेजीमेंट की अलग अलग बटालियन हैं. आजादी से पहले ब्रिटिश सेना में 11 गोरखा रेजीमेंट थीं (1-11 तक). जब देश आजाद हुआ तो भारतीय सेना को इनमें से 1, 3, 4, 5, 8, 9, 11 रेजीमेंट मिली, जबकि 2, 6, 7 और 10 रेजीमेंट, ब्रिटिश सेना में ही रह गईं. भारतीय सेना में ये सातों रेजीमेंट की सैन्य-पंरपरा जारी है लेकिन ब्रिटिश सेना में चारों रेजीमेंट्स को मिलाकर एक गोरखा रेजीमेंट बना दी गई है (1947 में सेना के बंटवारे के वक्त पाकिस्तान को एक भी गोरखा रेजीमेंट नहीं मिली थी).
भारतीय सेना की इन से सात रेजीमेंट्स की अलग-अलग बटालियन हैं जैसे 3/9 यानि नाइन जीआर की तीसरी बटालियन. हालांकि, अंग्रेजों ने गोरखाओं की बहादुरी और कर्तव्यनिष्ठा को देखते हुए वर्ष 1817 में पहली गोरखा रेजीमेंट की स्थापना की थी, लेकिन उससे पहले महाराजा रणजीत सिंह ने 1814 में अपनी सिख सेना में एक गोरखा पलटन की स्थापना की थी. माना जाता है की महाराजा रणजीत सिंह का नेपाल के राजा से युद्ध हुआ था. उस युद्ध में गोरखा सैनिकों की बहादुरी से प्रभावित होकर उन्होनें अपनी सेना में गोरखाओं की एक पलटन तैयार की थी. उस वक्त नेपाल के राजा का शासन हिमाचल के कांगड़ा से लेकर उत्तराखंड और दार्जिलिंग तक फैला हुआ था.
सियाचिन से लेकर चीन सीमा तक हैं तैनात:-
1817 में गोरखा रेजीमेंट बंगाल इन्फेंट्री आर्मी का हिस्सा थी और उसका रेजीमेंटल सेंटर फतेहगढ़ में हुआ करता था (बाद में ये बनारस हो गया). आजादी के बाद से अबतक भारत में करीब 15 हजार गोरखा सैनिक अब तक अलग-अलग युद्ध और काउंटर-टेरेरिज्म ऑपरेशन्स में शहीद हो चुके हैं. नेपाल के अलावा हिमाचल और दार्जिलिंग में रहने वाले गोरखा ने नागरिक भारतीय सेना में शामिल हो सकते हैं. आज गोरखा सैनिक सियाचिन के हिमशिखर से लेकर कश्मीर और एलओसी से लेकर चीन सीमा तक में तैनात हैं.
इस वक्त भारतीय सेना में करीब 32 हजार गोरखा सैनिक तैनात हैं. करीब 90 हजार पूर्व सैनिक नेपाल में रहते हैं. माना जाता है कि भारत इन पूर्व सैनिकों को हर साल करीब 2000 करोड़ रूपये पेंशन के तौर पर देता है. गोरखा राईफल्स ने अबतक भारत को तीन सेना प्रमुख दिए है. पहले थे फील्ड मार्शल मानेकशॉ, दूसरे थे जनरल दलबीर सिंह सुहाग (जिनके कार्यकाल में पाकिस्तान और म्यांमार के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक की गई) और जनरल बिपिन रावत. कम ही लोग जानते हैं कि भारतीय सेना प्रमुख नेपाल की सेना के 'ओनोरेरी' सेनाध्यक्ष होते हैं. ऐसे ही नेपाल के सेना प्रमुख को भारतीय सेना के 'ओनोरेरी' सेनाध्यक्ष की उपाधि दी जाती है. ये दर्शाता है कि भारत और नेपाल की दोस्ती एक पड़ोसी से कहीं ज्यादा है.
गोरखा सैनिकों को लेकर भारतीय सेना में एक किवदंती है कि एक बार एक वरिष्ठ सैन्य अधिकारी ने अलग अलग यूनिट्स के सैनिकों का टेस्ट लेना चाहा. उसके लिए उसने एक गहरे गड्डे में सभी यूनिट्स के सैनिकों को कूदने के लिए कहा. गहरे गड्डे में कूदने से पहले सभी यूनिट्स के सैनिकों ने उस वरिष्ठ अधिकारी से गड्डे में कूदने को लेकर सवाल-जवाब किए और कूदने का कारण पहुंचा. लेकिन जब गोरखा सैनिक की बारी आई तो उसने कमांडिंग ऑफिसर के आदेशनुसार बिना किसी सवाल-जबाव के उसमें छंलाग लगा दी. माना जाता है कि यही कारण है कि जब भी युद्ध के मैदान में गोरखा रेजीमेंट पहुंचती है सब कह उठते हैं, ' आयो गोरखाली', जो गोरखा रेजीमेंट का वॉर-क्राई यानि युद्धघोष भी है.