Gyanvapi Mosque Survey: ज्ञानवापी सर्वे से चर्चा में आया 'प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट', सुप्रीम कोर्ट में दी गई कानून को चुनौती
Gyanvapi Mosque: ज्ञानवापी मस्जिद में चल रहे सर्वे के बीच प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट चर्चा में है. 1991 में बना यह कानून कहता है कि देश में धार्मिक स्थलों में वही स्थिति बनाई रखी जाए जो 15 अगस्त 1947 को थी.
Gyanvapi Mosque Survey: वाराणसी के ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में चल रहे सर्वे के बीच 'प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट' (Place of Worship Act) एक बार फिर चर्चा में है. 1991 में बना यह कानून कहता है कि देश में सभी धार्मिक स्थलों की स्थिति वही बनाए रखी जाएगी, जो 15 अगस्त 1947 को थी.
इसी को आधार बना कर वाराणसी की अंजुमन इंतजामिया मस्जिद की मैनेजमेंट कमेटी ने सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) का दरवाजा खटखटाया है. कमेटी का कहना है कि सर्वे का आदेश इस कानून का उल्लंघन है. 'प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट' को सुप्रीम कोर्ट में पहले ही चुनौती दी चुकी है. कोर्ट ने पिछले साल इस पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया था.
सुप्रीम कोर्ट में लंबित है मामला
14 जून 2020 को इस मुद्दे पर विश्व भद्र पुजारी पुरोहित महासंघ नाम की संस्था ने याचिका दाखिल की थी. मामले की सुनवाई से पहले ही जमीयत उलेमा ए हिंद सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया था. सुन्नी मुस्लिम उलेमाओं के संगठन ने सुप्रीम कोर्ट से निवेदन किया था कि वह पुजारी महासंघ की याचिका पर सुनवाई न करे. जमीयत का कहना था कि अयोध्या के फैसले के बाद अगर सुप्रीम कोर्ट इस याचिका पर नोटिस जारी करता है, तो इससे मुस्लिम समुदाय में डर का माहौल पैदा हो जाएगा. हालांकि, इन दोनों याचिकाओं पर सुनवाई से पहले ही कोर्ट ने एक दूसरी याचिका पर नोटिस जारी कर दिया.
कोर्ट ने पूछा है केंद्र से सवाल
12 मार्च 2021 को बीजेपी नेता और वकील अश्विनी उपाध्याय की याचिका पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया. इस याचिका में बताया गया है कि 1991 में जब प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट बना, तब अयोध्या से जुड़ा मुकदमा पहले से कोर्ट में लंबित था. इसलिए, उसे अपवाद रखा गया. लेकिन काशी-मथुरा समेत बाकी सभी धार्मिक स्थलों के लिए यह कह दिया गया कि उनकी स्थिति नहीं बदल सकती. इस तरह का कानून न्याय का रास्ता बंद करने जैसा है.
किसी मसले को कोर्ट तक लेकर आना हर नागरिक का संवैधानिक अधिकार है. लेकिन 'प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट' इस अधिकार से वंचित करता है. यह कानून हिंदू, सिख, बौद्ध और जैन समुदाय को अपने उन पवित्र स्थलों पर दावा करने से रोकता है, जिनकी जगह पर जबरन मस्ज़िद, दरगाह या चर्च बना दिए गए थे. यह न सिर्फ न्याय पाने के मौलिक अधिकार का हनन है, बल्कि धार्मिक आधार पर भी भेदभाव है.
याचिकाकर्ता की तरफ से वरिष्ठ वकील विकास सिंह और गोपाल शंकरनारायण जिरह के लिए पेश हुए थे. लेकिन उन्हें ज़्यादा दलीलें रखने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी. याचिका में उठाए गए कानूनी बिंदुओं के आधार पर तत्कालीन चीफ जस्टिस एस ए बोबड़े, जस्टिस ए एस बोपन्ना और वी रामासुब्रमण्यम की बेंच ने केंद्रीय गृह मंत्रालय, कानून मंत्रालय और संस्कृति मंत्रालय को नोटिस जारी कर दिया था. इस मामले में अभी तक आगे की सुनवाई नहीं हुई है.
लखनऊ की मस्जिद के सह-मुतवल्ली भी पहुंचे सुप्रीम कोर्ट
इस मामले में एक याचिका लखनऊ की टीले वाली मस्जिद के सह-मुतवल्ली ने भी दाखिल की है. याचिकाकर्ता वासिफ हसन ने खुद को मामले में पक्षकार बनाने की मांग की है. उन्होंने बताया है कि उनकी मस्जिद को भी एक प्राचीन मंदिर बता कर लखनऊ की सिविल कोर्ट में मुकदमा दायर हुआ है.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सीधा असर उस मुकदमे पर पड़ेगा. इसलिए, मामले में उन्हें भी सुना जाना चाहिए. उन्होंने प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज करने की मांग की है. उनका कहना है कि देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे को बनाए रखने के लिए यह कानून बहुत जरूरी है.