Hari Shankar Tiwari Story: साल 1985 मार्च का महीना था. तब उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव थे. प्रदेश की कुल 425 विधानसभा सीटों में से गोरखपुर की एक सीट चिल्लूपार पर पूरे प्रदेश की नजरें टिकी हुई थीं, क्योंकि वहां से एक ऐसा शख्स चुनाव लड़ रहा था जो जेल में बंद था.
उस पर हत्या की साजिश, किडनैपिंग, लूट और रंगदारी जैसे कई गंभीर मुकदमे दर्ज थे. वो महाराजगंज से 1984 का लोकसभा चुनाव लड़कर हार चुका था और राष्ट्रीय सुरक्षा कानून यानी कि रासुका के तहत जेल में बंद था. जब नतीजे आए तो पता चला कि 52 साल के उस शख्स ने गोरखपुर में कांग्रेस के कद्दावर उम्मीदवार मार्कंडेय चंद को करीब 22 हजार वोटों से मात दे दी थी.
उस शख्स का नाम हरिशंकर तिवारी था, जिसके लिए उत्तर प्रदेश में पहली बार माफिया जैसे शब्द का इस्तेमाल किया गया था और पहली बार उत्तर प्रदेश गैंगस्टर एक्ट लाया गया था. इस शख्स ने भारतीय राजनीति के इतिहास में पहली बार जेल में रहते हुए चुनाव जीतने का इतिहास बनाया था. हरिशंकर तिवारी ने चिल्लूपार से विधायक बनकर अपराध और राजनीति का ऐसा कॉकटेल तैयार किया कि उसकी कोई दूसरी मिसाल खोजने से भी नहीं मिलती है.
ब्राह्मणों को लामबंद कर उनकी राजनीति की
70 के दशक में पूरे गोरखपुर की राजनीति के केंद्र में सिर्फ एक जाति ठाकुरों का वर्चस्व था. गोरखपुर की राजनीति का केंद्र गोरक्षपीठ था.इसे ठाकुरों का खुला समर्थन था, लेकिन मठ का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) से पुराना रिश्ता था और विचारधारा भी मिलती-जुलती थी.
ये बात कांग्रेस को खलती थी, क्योंकि केंद्र हो या राज्य, सरकार तो कांग्रेस की ही थी. ये वो दौर था, जब गोरखपुर विश्वविद्यालय पूर्वांचल में पढ़ाई के सबसे बड़े केंद्र में से एक था. वहां भी ठाकुरों का ही वर्चस्व था, जिसके नेता रविंद्र सिंह हुआ करते थे. वो गोरखपुर विश्वविद्यालय के अध्यक्ष भी बनाए गए तो फिर पूरे शहर पर ठाकुरों का एकछत्र राज हो गया.
इसी दौर में ब्राह्मण समुदाय से ताल्लुक रखने वाले हरिशंकर तिवारी भी गोरखपुर में मौजूद थे, जो किराए पर कमरा लेकर रहते थे. ठाकुरों के विरोधी ब्राह्मणों को लामबंद कर वो उनकी राजनीति कर रहे थे. ठेके-पट्टे से लेकर आपसी लड़ाई-झगड़े भी सुलझाने लगे थे और प्रशासन उनकी मदद कर रहा था, क्योंकि कांग्रेस सरकार चाहती थी कि गोरखपुर पर मठ और ठाकुर, दोनों का प्रभाव कम से कमतर किया जा सके.
यहीं से गोरखपुर में शुरू हो गई ब्राह्मण बनाम ठाकुर की लड़ाई, जिसने गैंगवॉर का रूप धारण कर लिया. ब्राह्मणों की ओर से अकेले हरिशंकर तिवारी ने मोर्चा संभाल रखा था तो ठाकुरों की ओर से रवींद्र सिंह को एक और शख्स वीरेंद्र शाही का साथ मिल गया था.
हाता बनाम शक्ति सदन
रवींद्र सिंह विधायक भी बन गए, लेकिन 1978 में राजधानी लखनऊ में उनकी हत्या हो गई तो ठाकुरों का सारा दारोमदार वीरेंद्र शाही पर आ गया. अब वही ठाकुरों के सबसे बड़े नेता थे. ऐसे में हरिशंकर तिवारी और वीरेंद्र शाही की लड़ाई बढ़ती गई. हर रोज गैंगवॉर होने लगा.
हर रोज हत्याएं होने लगीं. हर रोज ठेके-पट्टे के लिए सरेआम गोलियां चलने लगीं. फिर शहर ने हरिशंकर तिवारी बनाम वीरेंद्र शाही की लड़ाई को हाता बनाम शक्ति सदन नाम दिया .
जेल से लड़ा चुनाव
हरिशंकर तिवारी किराये का कमरा छोड़कर बड़े घर में रहने लगे थे, क्योंकि दरबार सजाने के लिए बड़ी जगह चाहिए थी. उनके घर को हाता कहा जाता था. आज भी कहा जाता है. वहीं, वीरेंद्र शाही के घर को शक्ति सदन कहा जाता था. तो दोनों की लड़ाई शक्ति सदन बनाम हाता की हो गई और इसका अखाड़ा गोरखपुर का रेलवे बना,क्योंकि दोनों को पैसे चाहिए थे.
ये पैसे रेलवे के टेंडर से मिलने थे, जिसके लिए दोनों एक-दूसरे के खून के प्यासे थे. दोनों पर मुकदमे दर्ज हुए. फिर हरिशंकर तिवारी को मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने रासुका के तहत जेल में डलवा दिया, लेकिन हरिशंकर तिवारी नहीं रुके. 1985 में जेल से ही निर्दलीय के तौर पर चुनाव लड़ा. उन्होंने कांग्रेस नेता मार्कंडेय चंद को 22 हजार वोटों से हरा दिया.
लगा गैंगस्टर एक्ट
इस बीच 1985 का साल आया. वीर बहादुर सिंह मुख्यमंत्री बन गए. वो रहने वाले गोरखपुर के थे तो सब जानते थे और सबको जानते थे. लिहाजा सख्ती शुरू की. अलग से गैंगेस्टर एक्ट लेकर आए और हरिशंकर तिवारी पर भी लगा दिया, लेकिन हरिशंकर तिवारी अब माननीय विधायक थे.
उन्होंने पहला चुनाव जीतने के बाद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. अपराध के ऊपर राजनीति का मुलम्मा चढ़ाकर उन्होंने खुद को ऐसा पेश किया कि वो हर सरकार की जरूरत बनते चले गए.
जब बनने लगा कमलापति त्रिपाठी सा रुतबा
1985 में कांग्रेस प्रत्याशी को चुनाव हराने वाले हरिशंकर तिवारी चंद दिनों में ही कांग्रेस के चहेते भी बन गए, क्योंकि उस वक्त पूरे देश में ब्राह्मणों के सबसे बड़े नेता के तौर पर कमलापति त्रिपाठी उभरे थे. हरिशंकर तिवारी ने गोरखपुर के बड़हलगंज में ब्राह्मणों का एक कार्यक्रम करवाया और उसमें पंडित कमलापति त्रिपाठी को भी आमंत्रित किया.
हरिशंकर तिवारी विधायक बन ही गए थे तो कमलापति त्रिपाठी आए. वह जाने लगे तो हरिशंकर तिवारी भी साथ गए और उन्हें छोड़कर लौटे तो पुलिस ने हरिशंकर तिवारी को गिरफ्तार कर लिया. लोगों को पता चला तो शहर में बवाल हो गया.
पूरे शहर में जय-जय शंकर, जय हरिशंकर के नारे गूंजने लगे. खबर कमलापति त्रिपाठी तक भी पहुंची. उन्होंने मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह से बात की. फिर हरिशंकर तिवारी रिहा हो गए. ब्राह्मणों में जो जगह कमलापति त्रिपाठी की थी, वैसी ही जगह अब हरिशंकर तिवारी की बनने लगी थी.
हर पार्टी की जरूरत बन गए थे हरिशंकर तिवारी
फिर क्या था कांग्रेस ने खुले दिल से हाथ बढ़ा दिया. उन्हें 1989 में विधानसभा का टिकट दे दिया. वो फिर जीते और इतना जीते कि लगातार 2007 तक चिल्लूपार से विधायक बनते रहे. इंदिरा गांधी वाली कांग्रेस से भी, नारायण दत्त तिवारी वाली कांग्रेस से भी और अपनी बनाई अखिल भारतीय लोकतांत्रिक कांग्रेस से भी.
इस बीच कई सरकारें आईं और गईं और तकरीबन हर सरकार में वो मंत्री बनते रहे. चाहे वो सरकार कल्याण सिंह की हो, चाहे राम प्रकाश गुप्ता की, चाहे राजनाथ सिंह की, चाहे मुलायम सिंह यादव की और चाहे मायावती की. हरिशंकर तिवारी बीजेपी से लेकर सपा और बसपा, हर पार्टी की जरूरत बन गए थे.
श्रीप्रकाश शुक्ला ने खाई थी तिवारी को मारने की कसम
उनके इसी राजनीतिक रसूख ने उन्हें अपराधियों का भी चहेता और दुश्मन भी बना दिया था. ऐसा ही एक दुश्मन श्रीप्रकाश शुक्ला था, जो चिल्लूपार के ही मामखोर गांव का रहने वाला था. वो श्रीप्रकाश शुक्ला, जिसने हरिशंकर तिवारी के सबसे बड़े दुश्मन वीरेंद्र प्रताप शाही की राजधानी लखनऊ में सरेआम एके 47 से गोलियां मारकर हत्या कर दी.
1997 में हुई इस हत्या के पीछे कहा गया कि हाथ तो हरिशंकर तिवारी का ही है, लेकिन तब श्रीप्रकाश शुक्ला ने हरिशंकर तिवारी को भी मारने की कसम खा ली, क्योंकि वो भी विधायक बनना चाहता था और उसी चिल्लूपार से विधायक बनना चाहता था, जहां के निर्विवाद नेता हरिशंकर तिवारी थे.
श्रीप्रकाश शुक्ला के कहे में दम भी था, क्योंकि उसने वीरेंद्र शाही जैसे कद्दावर की हत्या की थी. बिहार सरकार में मंत्री रहे बृज बिहारी प्रसाद की हत्या की थी. तो वो हरिशंकर तिवारी की भी हत्या कर सकता था.
इसी बीच ये भी खबर आई कि श्रीप्रकाश शुक्ला ने मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को भी मारने की सुपारी ले ली है. फिर तो यूपी पुलिस ने स्पेशल टास्क फोर्स बनाई. श्रीप्रकाश शुक्ला का घेराव किया और 22 सितंबर, 1998 को गाजियाबाद में उसका एनकाउंटर कर दिया गया.
हरिशंकर तिवारी ने ही दिया था प्रश्रय
पूर्वांचल का उभरता सबसे खूंखार अपराधी पुलिस के हाथ मारा गया तो सबने चैन की सांस ली. खुद हरिशंकर तिवारी ने भी, क्योंकि श्रीप्रकाश शुक्ला ने 1993 में जब पहली हत्या की थी तो उसे प्रश्रय हरिशंकर तिवारी ने ही दिया था और बैंकॉक भागने में उसकी मदद भी की थी, लेकिन वापसी के बाद शुक्ला को हरिशंकर तिवारी की सीट चाहिए थी और इसके लिए वो उनके खून का प्यासा बन गया था.
इस रूप में हमेशा किए जाएंगे याद
हरिशंकर तिवारी ने 2007 के बाद कोई चुनाव नहीं जीता. वो नेपथ्य में चले गए. राजनीतिक विरासत उनके बेटों ने संभाली. एक बेटा सांसद बना, दूसरा विधायक. परिवार के और भी लोग राजनीति में हैं.
हरिशंकर तिवारी अब नहीं हैं. 16 मई 2023 को उनका निधन हो गया, लेकिन राजनीति के अपराधीकरण और अपराध के राजनीतिकरण के लिए उन्हें हमेशा याद किया जाता रहेगा, क्योंकि पूर्वांचल के चाहे जितने भी माफिया हों, जीवित या मृत, उनके होने की वजह हरिशंकर तिवारी ही थे.
इन माफियाओं को बनाने में भी हरिशंकर तिवारी की भूमिका
1993 में पहली हत्या के बाद अगर हरिशंकर तिवारी ने श्रीप्रकाश शुक्ला को बचाया न होता तो वो एक हत्या के बाद ही पकड़ा जाता, लेकिन उसने इतनी हत्याएं कीं कि गिनती ही नहीं है. आखिरकार 1998 में वो मारा गया.
मधुमिता शुक्ला हत्याकांड के दोषी बाहुबली अमरमणि त्रिपाठी भी हरिशंकर तिवारी के हाते से ही निकले हैं, जिन्होंने हरिशंकर तिवारी के धुर विरोधी वीरेंद्र शाही को महाराजगंज की लक्ष्मीपुर सीट से 1989 के विधानसभा चुनाव में ऐसी मात दी कि वीरेंद्र शाही को राजनीति से संन्यास लेना पड़ा और फिर 1997 में उनकी हत्या ही हो गई.
अभी के माफिया चाहे बृजेश सिंह हो या फिर मुख्तार अंसारी, इनको बनाने में भी हरिशंकर तिवारी की ही भूमिका रही है.
कैसे बना मुख्तार अंसारी की गैंग?
दरअसल, हरिशंकर तिवारी के दो शॉर्प शूटर हुआ करते थे, लेकिन दोनों ही ठाकुर बिरादरी से थे. इनके नाम साहेब सिंह और मटनू सिंह थे. वक्त के साथ दोनों अलग हो गए और दोनों में दुश्मनी भी हो गई, क्योंकि साहेब सिंह के एक नजदीकी त्रिभुवन सिंह के बडे़ पिता की जमीन पर मटनू सिंह ने अपना कब्जा कर लिया.
साहेब सिंह ने इसका विरोध किया तो मटनू सिंह ने साहेब सिंह के खास रहे त्रिभुवन सिंह के तीन भाइयों और पिता की हत्या कर दी. मुख्तार अंसारी के अपराध की शुरुआत इसी मटनू गैंग से हुई थी. वहीं बृजेश सिंह ने अपराध की शुरुआत साहेब सिंह गैंग से मिलकर की थी, लेकिन एक दिन गाजीपुर में ही मटनू सिंह की सरेआम हत्या कर दी गई.
इल्जाम लगा साहेब सिंह पर और फिर मटनू सिंह के भाई साधू सिंह ने गैंग की कमान संभालकर एलान किया कि वो अपने भाई की हत्या का बदला लेगा, लेकिन 1999 में उसकी भी हत्या हो गई. तब उस गैंग की कमान संभाल ली मुख्तार अंसारी ने, जो आज यूपी पुलिस के दस्तावेज में आईएस-191 गैंग है.
वहीं, मुख्तार अंसारी के गैंग संभालने के बाद साहेब सिंह की भी हत्या हो गई. तब उस गैंग की कमान संभाली बृजेश सिंह ने. उसके बाद बृजेश सिंह-मुख्तार अंसारी की अदावत में कैसे पूर्वांचल गोलियों से दहलता रहा और कैसे इन दोनों ने भी अपराध में राजनीति के कॉकटेल को मिलाकर पूरे पूर्वांचल की राजनीति का अपराधीकरण कर दिया, उसकी कहानी फिर कभी.
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