हरियाणा विधानसभा चुनाव 2019: अक्टूबर में हरियाणा में होने वाले विधानसभा चुनाव में मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस गुटबाजी से परेशान है. कांग्रेस में गुटबाजी होने की बड़ी वजह भूपेंद्र सिंह हुड्डा के अलावा कुलदीप बिश्नोई, किरण चौधरी, अशोक तंवर, रणदीप सुरजेवाला और कुमारी शैलजा जैसे बड़े चेहरों का होना है. कभी इन नेताओं की हरियाणा की राजनीति में तूती बोला करती थी लेकिन मौजूदा वक्त में ये अपनी जगह बचाए रखने की लड़ाई लड़ रहे हैं. पूर्व सीएम भजनलाल के बेटे कुलदीप बिश्नोई एक वक्त अपने आप को सीएम के दावेदार के तौर पर पेश किया करते थे, पर अभी उनका कद सिर्फ अपने हलके तक सिमट कर रह गया है.
कुलदीप बिश्नोई का जन्म साल 1968 में हरियाणा के हिसार जिले के आदमपुर गांव में हुआ था. कुलदीप बिश्नोई के पिता भजनलाल हरियाणा के दो बार मुख्यमंत्री बने. 1998 में कुलदीप बिश्नोई की राजनीति का आगाज हुआ और वह आदमपुर से विधायक चुने गए. 2004 में कुलदीप बिश्नोई दो पूर्व सीएम के बेटे अजय चौटाला और सुरेंद्र को भिवानी से लोकसभा चुनाव में मात देकर पहली बार संसद में पहुंचे. 2005 में जब भजनलाल को राज्य का सीएन नहीं बनाया गया तो कुलदीप बिश्नोई ने बगावती तेवर अख्तियार कर लिए.
2014 में मिली पहली हार
दो साल तक बागी तेवर अपनाने के बाद कुलदीप बिश्नोई ने हरियाणा में हरियाणा जनहित कांग्रेस पार्टी बनाई. 2009 के विधानसभा चुनाव में कुलदीप बिश्नोई की पार्टी को 6 सीटों पर जीत मिली. इस चुनाव में कांग्रेस को 40 सीटों पर ही जीत मिली थी, ऐसे में कुलदीप बिश्नोई के हाथ में सत्ता की चाबी आ गई. लेकिन कुलदीप को उस वक्त बड़ा झटका लगा जब उनकी पार्टी के 5 एमएलए कांग्रेस में शामिल हो गए.
2011 में भजनलाल के निधन के बाद हिसार लोकसभा सीट खाली हो गई. कुलदीप बिश्नोई ने उप चुनाव में जीत हासिल की और दूसरी बार लोकसभा पहुंचने में कामयाब हुए. कुलदीप बिश्नोई को 2014 के लोकसभा चुनाव में भी हार का सामना करना पड़ा. इतना ही नहीं 2014 के विधानसभा चुनाव में कुलदीप बिश्नोई की पार्टी सिर्फ दो सीटों पर जीत दर्ज कर पाई.
2016 में कुलदीप बिश्नोई ने अपनी पार्टी हरियाणा जनतहित कांग्रेस का इंडियन नेशनल कांग्रेस में विलय कर दिया. 2019 के लोकसभा चुनाव में कुलदीप बिश्नोई के बेटे भव्य बिश्नोई ने हिसार से लोकसभा चुनाव में किस्मत आजमाई, पर वो तीसरे नंबर पर रहे. विधानसभा चुनाव में कुलदीप बिश्नोई के सामने आदमपुर की वो सीट बचाए रखने की चुनौती है जिस पर उनके परिवार को 1968 के बाद से कभी हार सा सामना नहीं करना पड़ा.
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