UCC Issue: 200 साल पहले अंग्रेजों ने यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू होने से रोका? जानिए यूसीसी का पूरा इतिहास
शाह बानो से लेकर सरला मुद्गल और शायरा बानो तक कई बार यूनिफॉर्म सिविल कोड का रास्ता देश की सरकारों के सामने खुला, लेकिन फिर भी यूसीसी लागू करने का सपना अधूरा ही रह गया.
Uniform Civil Code History: यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर देश में चर्चा तेज है. ये एक ऐसी पहेली है जिसे हिंदुस्तान का कोई भी सियासतदान आज तक नहीं सुलझा पाया. इसको लेकर बातें हुई, कानून बनें, फिर कानूनों में संशोधन हुए या फिर कानून बनाकर यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू होने से ही रोक दिया गया. आजादी के बाद पिछले 75 सालों में इस मामले में कई मोड़ देखने को मिले.
कई बार यूनिफॉर्म सिविल कोड का रास्ता खुला, लेकिन फिर भी यूसीसी लागू करने का सपना अधूरा ही रह गया. अब मोदी सरकार यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करने पर विचार कर रही है. जिसके बाद ये मसला फिर से ट्रेंड कर रहा है, लेकिन हम में से कितने लोग होंगे जिन्हें पता होगा कि यूनिफॉर्म सिविल कोड आखिर होता क्या है और इसका क्या इतिहास रहा है.
इसके अलावा कितने लोगों को ये पता है कि भारत में एक राज्य ऐसा भी है जहां यूनिफॉर्म सिविल कोड पिछले 150 साल से लागू है. आपको ये भी बताएंगे कि आज से करीब 200 साल पहले ब्रिटिश राज में किस तरह से यूनिफॉर्म सिविल कोड को एक कूटनीति के तहत लागू होने से रोका गया था.
यूनिफॉर्म सिविल कोड क्या है?
सबसे पहले हमारा ये जानना जरूरी है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड आखिर होता क्या है? असल में यूनिफॉर्म सिविल कोड सामाजिक मामलों से संबंधित एक कानून होता है जो किसी भी पंथ या मजहब के लोगों के लिए शादी, तलाक, विरासत या बच्चा गोद लेने आदि में समान रूप से लागू होता है. आसान शब्दों में कहें तो जिस देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू हो जाता है वहां अलग-अलग पंथों के लिये अलग-अलग सिविल कानून नहीं होते. यानी देश के हर नागरिक पर एक ही कानून लागू होगा जो किसी भी पंथ जाति के सभी निजी कानूनों से ऊपर होता है.
पहले से ही मौजूद है हिंदू कोड बिल
ये कानून जेंडर इक्वेलिटी पर भी जोर देता है यानी मर्द हो या औरत इस कानून के तहत हर किसी को समान अधिकार प्राप्त होता है. भारत की बात करें तो हिंदुओं के लिए जहां पहले से ही हिंदू कोड बिल 1956 और हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 2005 मौजूद है और इसके तहत भारत में महिलाओं को पुरूषों के बराबर अधिकार प्राप्त हैं, लेकिन ये कानून मुस्लिम धर्म पर लागू नहीं होता. जिसके चलते मुस्लिम महिलाओं को समान अधिकार प्राप्त नहीं हैं.
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को मानते हैं मुसलमान
भारतीय मुसलमान, मुस्लिम पर्सनल लॉ मानते हैं. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, एक प्राइवेट ऑर्गेनाइजेशन है जो मुस्लिम धर्म में होने वाली शादी, तलाक, विरासत और बाकी निजी मुद्दों को शरिया के तहत सुलझाती है. यानी फिलहाल मुस्लिम धर्म के निजी मसलों में भारत का सिविल कानून नहीं चलता. इसे थोड़ा और आसान कर देते हैं. भारत में दो तरह के कानून हैं- क्रिमिनल लॉ और सिवाल लॉ.
सरकार सबको लाना चाहती है सिविल लॉ में
अब ये जो क्रिमिनल लॉ हैं वो भारत के हर नागरिक पर समान रूप से लागू होता है फिर चाहे वो हिंदू और या मुसलमान. जबकि भारत का सिविल लॉ देश में रह रहे अल्पसंख्यक और नॉर्थ ईस्ट की कई ट्राइबल कम्युनिटीज पर लागू नहीं होता, लेकिन मोदी सरकार यूनिफॉर्म सिविल कोड के जरिए सभी धर्मों को भारत के सिविल लॉ के तहत लाना चाहती है जिसे लेकर पूरे देश में बहस चल रही है.
करीब 200 साल पुराना है यूसीसी का इतिहास
अब यूसीसी को लेकर जो डिबेट आप सुन रहे हैं इसका इतिहास करीब 200 साल पुराना है. ईस्ट इंडिया कंपनी के दौरान साल 1840 में लेक्स लोकी रिपोर्ट में अपराध, सबूत और अनुबंध से जुड़े भारतीय कानून में समानता पर जोर दिया गया था, लेकिन इस रिपोर्ट में हिंदुओं और मुसलमानों से जुड़े पर्सनल लॉ को जानबूझ कर बाहर रखा गया था. यानी 1840 में भारतीय कानून को जब कोडिफाई किया जा रहा था तब हिंदुओं और मुसलमानों के शादी, विरासत, और रखरखाव से जुड़े मसलों को उनके पर्सनल लॉ के तहत ही छोड़ दिया गया.
ईश्वर चंद्र बंद्योपाध्याय ने महिलाओं के लिए किया काम
इस दौरान कुछ लोग ऐसे भी थे जो धर्म के आधार पर महिलाओं के शोषण के खिलाफ भी काम कर रहे थे. इनमें से एक थे बंगाल के सामाजिक कार्यकर्ता ईश्वर चंद्र बंद्योपाध्याय जिन्होंने हिंदू धर्म में विधवा महिलाओं की दोबारा शादी पर जोर दिया और उन्हीं की मुहिम के चलते हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, 1856 पास हुआ, लेकिन 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों ने 'फूट डालो, राज करो' की पॉलिसी के तहत काम करना शुरू किया. जिसके चलते रानी विक्टोरिया ने साल 1858 में धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का आदेश जारी किया ताकि हिंदुओं और मुसलमानों को अलग रखा जा सके.
ब्रिटिश सरकार लेकर आई स्पेशल मैरिज एक्ट
1872 में ब्रिटिश सरकार स्पेशल मैरिज एक्ट लेकर आई जिसके तहत भारतीय नागरिक सिविल मैरिज कर सकते थे, लेकिन इस एक्ट की कुछ खामियां थीं. पहली खामी थी कि ये एक्ट गैर-हिंदू पर ही लागू होता था और दूसरा जिसे भी सिविल मैरिज करनी होती थी उसे अपना धर्म त्यागना होता था. फिर साल 1923 में स्पेशल मैरिज एक्ट में संशोधन किया गया जिसके तहत हिंदू, बौद्ध, सिख और जैन को शादी करने के दो अधिकार दिए गए.
स्पेशल मैरिज एक्ट में किया गया बदलाव
पहला वो अपने पर्सनल लॉ के तहत भी शादी कर सकते थे और दूसरा बिना अपना धर्म और उत्तराधिकार का अधिकार छोड़े उन्हें सिविल मैरिज का अधिकार भी दिया गया. हालांकि इस दौरान हिंदुओं के लिए विवाहित महिला संपत्ति अधिनियम 1923 और हिंदू विरासत (विकलांगता निवारण) अधिनियम, 1928 भी लाया गया जिससे हिंदू महिलाओं के अधिकारों की रक्षा हो सके, लेकिन ये कानून रूढ़िवादी मुस्लिम समूह के विरोध के चलते मुसलमानों पर लागू नहीं हो सके क्योंकि वो सिर्फ शरिया लॉ के तहत ही अपने मसले सुलझाना चाहते थे. इसके लिए साल 1937 में मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) अधिनियम, 1937 बनाया गया जिसके तहत आज भी मुसलमानों में शादी से लेकर तलाक और प्रॉपर्टी तक के मसले सुलझाये जाते हैं.
कैसे आया था हिंदू कोड बिल?
1937 में ही हिंदू महिलाओं का संपत्ति का अधिकार अधिनियम 1937 लागू हुआ जिसे देशमुख बिल भी कहा जाता है. इसी बिल के आधार पर बीएन राव कमेटी का गठन किया गया था. जिसका मकसद भारत में हिंदू लॉ की जरूरत को परखना था. ये कमेटी 1944 में बनाई गई थी और 1947 में इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट संसद को सौंप दी. इस रिपोर्ट में कहा गया था कि वक्त आ गया है जब देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू कर दिया जाए, लेकिन ये सिफारिश आगे चलकर यूनिफॉर्म सिविल कोड की शक्ल तो नहीं ले पाई, लेकिन हिंदू कोड बिल की वजह जरूर बन गई.
यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करना चाहते थे अंबेडकर
असल में संविधान निर्माता बाबा साहब अंबेडकर यूनिफॉर्म सिविल कोड के पक्ष में थे. उनका मानना था कि समाज में सुधार करना है तो यूनिफॉर्म सिविल कोड सब धर्मों पर लागू कर सभी धर्मों के लोगों को समान अधिकार दिए जा सकते हैं, लेकिन इस बात के लिए बाबा साहब अंबेडकर को संसद में काफी विरोध का सामना करना पड़ा जिसके चलते उन्होंने इस्तीफा दे दिया. उधर जवाहरलाल नेहरू और उनकी महिला समर्थक भी यूसीसी को लागू करना चाहते थे, लेकिन विरोध के चलते नेहरू प्रशासन ने भी अपने पैर पीछे खींच लिए और सभी धर्मों पर कानून बनाने की बजाए हिंदू कोड बिल का खाका तैयार किया गया.
हिंदू कोड बिल का हुआ विरोध
इस बिल का काफी विरोध भी हुआ क्योंकि इस बिल में हिंदू धर्म के लोगों को सिर्फ एक शादी, तलाक से जुड़े नियम और महिलाओं को संपत्ति में अधिकार देने की बात कही गई थी. 1951 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इस बिल पर नाराजगी जताते हुए कहा था कि यूनिफॉर्म सिविल कोड की जगह किसी धर्म विशेष के पर्सनल लॉ को कानून के दायरे में लाना मुश्किलें पैदा कर सकता है.
खैर नेहरू सरकार ने साल 1956 में हिंदू कोड बिल पर मुहर लगा दी. जिसके तहत चार अलग एक्ट बनाए गए. हिंदू विवाह अधिनियम, उत्तराधिकार अधिनियम, अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम और दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, लेकिन इस बिल में भी महिलाओं को संपत्ति में पुत्रों के बराबर अधिकार नहीं दिए गए थे. खैर ये बिल लागू हुए और यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने का सपना अधूरा ही रह गया.
शाह बानो केस के बाद फिर उठी मांग
देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड की मांग धीरे-धीरे दम तोड़ने लगी थी, लेकिन 1985 में शाह बानो केस ने फिर से यूसीसी को लेकर एक बड़ी बहस छेड़ दी. असल में 73 साल की शाह बानो को उसके पति मुहम्मद अहमद खान ने तीन तलाक दे दिया. शाह बानो ने कोर्ट जाकर अपने गुजारे के लिए पति से मैंटेनेंस की मांग की. लोअर कोर्ट ने फैसला शाह बानो के हक में सुनाया. शाह बानो का पति मुहम्मद जो खुद एक वकील था वो शरिया लॉ की दलील लेकर इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंचा.
सुप्रीम कोर्ट ने राजीव गांधी सरकार को दी सलाह
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में सीआरपीसी के सेक्शन-125 को आधार बनाकर फैसला शाह बानो के हक में सुनाया. ये जो सेक्शन-125 है वो पत्नी, बच्चों और माता पिता को गुजारा भत्ता देने की बात कहता है और क्योंकि ये भारत आपराधिक संहिता का सेक्शन है तो क्रिमिनल लॉ होने की वजह से ये हर धर्म के व्यक्ति पर लागू होता है. इसी को आधार बनाकर सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो के हक में पैसला सुनाया. साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने राजीव गांधी सरकार को यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने की सलाह दी.
मुस्लिम महिलाओं के खिलाफ लिया गया फैसला
अब रूढ़िवादी मुस्लिम संगठनों को लगा कि अगर ये सेक्शन न हटाया गया तो कल को तलाक के केस में सभी महिलाएं कोर्ट जाकर पति से गुजारा भत्ता लेने में कामयाब हो जाएंगी. जिसके बाद राजीव गांधी सरकार पर दबाव बनाया गया और अपना मुस्लिम वोट बैंक खिसकता देख राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार ने अल्पसंख्यकों की बात मान ली. राजीव सरकार मुस्लिम महिला (तलाक के अधिकारों का संरक्षण) विधेयक 1986 लेकर आई जिसमें ये संशोधन किया गया कि सेक्शन-125 मुस्लिम महिलाओं पर लागू नहीं होगा.
तलाक के बाद गुजारा भत्ता मिलना हुआ बंद
मुस्लिम महिलाओं के लिए ये राजीव गांधी सरकार की ओर से लाया बिल कितना बुरा साबित हुआ इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि 1987 में समाज कल्याण मंत्री राजेंद्र कुमारी बाजपेयी ने संसद के सामने जब ये आंकड़ा रखा कि 1986 में कितनी महिलाओं को वक्फ बोर्ड की तरफ से तलाक के बाद गुजारा भत्ता मिला तो नंबर था शून्य. राजीव गांधी सरकार के उस एक फैसले ने मुस्लिम महिलाओं का हक उनसे छीन लिया.
बीजेपी ने यूसीसी को अपने मेनिफेस्टो में किया शामिल
इसके बाद 1995 में सरला मुद्गल बनाम भारत संघ केस में भी सुप्रीम कोर्ट ने यूसीसी लागू करने की सिफारिश की थी. 1996 वो साल था जब पहली बार बीजेपी ने अपने मेनिफेस्टो में यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करने की बात कही थी और 2019 में भी ये बीजेपी के मेनिफेस्टो का हिस्सा रहा है. यूनिफॉर्म सिविल कोड का रास्ता खुला तीन तलाक को लेकर बने कानून से.
तीन तलाक कानून से फिर खुला रास्ता
2017 के शायरा बानो केस में सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक को असंवैधानिक करार दिया था. जिसके बाद नरेंद्र मोदी सरकार ने अगस्त 2019 में मुस्लिम महिला (विवाह पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 के तहत तीन तलाक को अवैध घोषित कर दिया. जिसके बाद नवंबर 2019 में पहले राज्यसभा मेंबर नारायण लाल पंचारिया फिर March 2020 में राज्यसभा सांसद किरोड़ी लाल मीणा द्वारा दो बार यूसीसी को संसद में पेश किया गया, लेकिन दोनों बार ये प्रस्ताव पीछे खींच लिया गया.
बीजेपी 2024 से पहले लागू कर सकती है यूसीसी
2021 में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने की सभी याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट में शिफ्ट कर दिया गया और अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यूनिफॉर्म सिविल कोड को देश में लागू करने की बात कर रहे हैं. यानी ये हो सकता है कि साल 2024 के चुनाव से पहले बीजेपी मेनिफेस्टो में किया अपना ये वादा भी पूरा कर दे.
इस राज्य में 150 साल से लागू है यूनिफॉर्म सिविल कोड
अब ये भी जान लीजिए कि भारत का वो कौन सा राज्य है जहां यूनिफॉर्म सिविल कोड 150 सालों से लागू है. ये राज्य है गोवा. असल में गोवा पुर्तगाली शासन का पार्ट था तो 1869 में यहां पुर्तगालियों ने यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू कर दिया था और 1961 में जब गोवा भारत का अंग बना तो भारत सरकार ने गोवा में पहले से लागू पोर्टुगीज सिविल कोड को गोवा सिविल कोड का नाम दे दिया और वहां लागू यूनिफॉर्म सिविल कोड पहले की तरह लागू रखा.
गोवा के सिविल कोड की ये है बड़ी खामी
इस सिविल कोड में एक खामी है यहां पर हिंदू समुदाय के शख्स को भी दूसरी शादी करने का अधिकार है. गोवा का यूनिफॉर्म सिविल कोड कहता है कि अगर किसी शख्स को 30 साल की उम्र तक अपनी पत्नी से मेल चाइल्ड पैदा नहीं होता तो वो दूसरी शादी कर सकता है. यानी गोवा के यूसीसी में महिलाओं को लेकर ये काफी बड़ी खामी है.
संविधान में क्या कहा गया?
संविधान के आर्टिकल 44 में यूनिफॉर्म सिविल कोड के बारे में मेंशन किया गया है कि "राज्य, भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा", लेकिन संविधान का आर्टिकल 25 इसके आड़े आ जाता है. क्योंकि इसका विरोध करने वालों का कहना है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड का मतलब हिन्दू कानूनों को सभी धर्मों पर लागू करने जैसा है. जबकि आर्टिकल 25 किसी भी धर्म को मानने और उसके प्रचार की आजादी देता है और साथ ही इसका विरोध करने वाले आर्टिकल-14 की भी बात करते हैं कि यूसीसी समानता की अवधारणा के विरूद्ध है.
कौन-कौन कर रहा विरोध?
अब ये भी जान लीजिए कि न सिर्फ मुस्लिम पक्ष बल्कि नॉर्थ ईस्ट के आदिवासी भी लगातार यूनिफॉर्म सिविल कोड का विरोध कर रहे हैं. जैसे नगालैंड की बैपटिस्ट चर्च काउंसिल और नगालैंड ट्राइबल काउंसिल इन दोनों बड़े आदिवासी संगठनों का कहना है कि यूसीसी आदिवासियों को अपना धर्म पालन करने के हक से वंचित करेगा. उधर मेघालय- खासी हिल्स स्वायत्त जिला परिषद (KHADC) ने भी यूसीसी को लेकर अपनी चिंता जताई. वहीं मिजोरम की विधानसभा भी इसके विरोध पर बात कर चुकी है.
इसके अलावा, 25 जून को झारखंड में भी 30 से ज्यादा आदिवासी संगठनों ने बैठक की. वे आदिवासी समन्वय समिति के बैनर तले साथ आए थे. उन्होंने कहा कि यूसीसी के आने से कई जनजातीय परंपरागत कानून और अधिकार कमजोर हो जाएंगे. असल में यूसीसी के लागू होने से इन लोगों को संविधान की छठी अनुसूची की चिंता सता रही है जो भूमि हस्तांतरण से लेकर जिला अदालतों तक को कुछ खास शक्तियां देता है जो इन्हें यूसीसी के बाद छिन जाने का डर है, लेकिन इस पूरे मुद्दे पर जो बहस चल रही है वो अभी बेमानी है क्योंकि जबतक सरकार यूसीस बिल का ड्राफ्ट पेश नहीं करती तब तक ये नहीं कहा जा सकता है कि इसमें आखिर क्या होगा.
क्या मोदी सरकार यूसीसी कर पाएगी लागू?
जानकारों का ये भी कहना है कि मोदी सरकार को पिछले 9 सालों में यूसीसी को लेकर गहन अध्ययन करना चाहिए था ताकि इसे आसानी से लागू किया जा सके. यानी कुल मिलाकर फिलहाल नरेंद्र मोदी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती ये है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड को आखिर किस तरह लागू किया जाएगा. जिससे आदिवासियों से लेकर मुस्लिम समुदाय की धार्मिक स्वतंत्रता को भी कायम रखा जा सके और साथ ही देश में समन्वय की स्थिती भी बनी रहे. अब देखना ये होगा कि मोदी सरकार ये लैंडमार्क बिल पेश कर पाती है या नहीं.
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