Bihar Mahagathbandhan 2022 Vs 2015: देश की राजनीति में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) के बाद तीसरे मोर्चे को बनाने की बात लंबे अरसे चली आई लेकिन महागठबंधन (Mahagathbandhan) जरूर एक बार फिर खड़ा होकर गया है. महागठबंधन की शुरूआत बिहार (Bihar) के 2015 के चुनाव के वक्त हुई. इसमें आरजेडी (RJD), जेडीयू (JDU), कांग्रेस (Congress), वाम पार्टियां (Left Parties) और जीतनराम मंझी की पार्टी हिंदुस्तान आवाम मोर्चा (Hindustani Awam Morcha) शामिल हुई. शुरू में समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) ने भी महागठबंधन में शामिल होने का मन बनाया था लेकिन सीटों के बंटवारे के मुद्दे पर उसने खुद को अलग कर लिया था. 


महागठबंधन ने 2015 के चुनाव में बिहार में भारी जीत हासिल की थी और नीतीश कुमार के नेतृत्व में इसकी सरकार बन गई. 2017 में महागठबंधन में उस वक्त सेंध लग गई जब नीतीश कुमार ने एक बार फिर एनडीए का दामन पकड़ लिया और इस्तीफा दे दिया. उन्होंने बीजेपी के साथ सरकार बना ली. 2020 के चुनाव में भी नीतीश कुमार बीजेपी के सहयोग से सीएम बने. इस दौरान महागठबंधन चारपाई पर पड़े बीमार व्यक्ति की तरह सांसे भर रहा था लेकिन अचानक नीतीश कुमार की एनडीए से रुख्सती ने उसमें फिर से प्राण फूंक दिए और वह उठ खड़ा हुआ. कांग्रेस ने भी नीतीश के फैसले को समर्थन देने में देर नहीं लगाई. 


2015 से कैसे अलग है 2022 का महागठबंधन


दलों के हिसाब से 2015 और 2022 के महागठबंधन में कोई विशेष फर्क नहीं है क्योंकि जेडीयू की वापसी करने के बाद यह लगभग वैसा ही हो गया है. वर्तमान महागठबंधन में आरजेडी, जनता दल यूनाइटेड, कांग्रेस, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा शामिल हैं. 


सीटों की गिनती के हिसाब से 2015 और 2020 के महागठबंधन में फर्क आया है. दरअसल, 2015 के नतीजों में आरजेडी को 80 सीटों पर जीत मिली थी लेकिन 2020 में उसकी पांच सीटें कम रह गई यानी 75 सीटें उसकी झोली में गईं. जेडीयू को खासा नुकसान हुआ क्योंकि 2015 में जेडीयू ने जहां 71 सीटें जीती थीं, वहीं, 2020 में विधानसभा में उसके मात्र 43 विधायक रह गए और यहीं से एक बार फिर बीजेपी के प्रति नीतीश कुमार के मन में शक की बीज पनप गया था. कांग्रेस की सीटें भी घटीं क्यों कि 2015 में पार्टी ने 27 सीटें जीती थीं लेकिन 2020 में वह केवल 19 सीटों पर जीत दर्ज कर सकी.


बदलेंगे चुनाव के समीकरण


अब बिहार में अगला विधानसभा चुनाव 2025 में होगा, उससे पहले लोकसभा का चुनाव भी है. 2019 में बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से 39 पर एनडीएन ने जीत दर्ज कर ली थी और आरजेडी का खाता भी नहीं खुला था. एक सीट निर्दलीय के हिस्से में चली थी. हालांकि, एनडीए में 17 सीटों पर बीजेपी जीती थी, 16 सीटों पर जेडीयू को सफलता मिली थी और एलजेपी के खाते में छह सीटें चली गई थीं. अब जेडीयू ने एनडीए से रिश्ता तोड़ लिया है, इसलिए अगले लोकसभा चुनाव में सियासी समीकरण बदलना तय है. वहीं बिहार विधानसभा में नीतीश, तेजस्वी और कांग्रेस वाले का गठजोड़ के सामने चुनौती होगी कि ज्यादा से ज्यादा सीटें जीती जाएं. हालांकि, इसमें सबसे ज्यादा चुनौती बीजेपी के सामने पेश आने वाली क्योंकि राज्य में सदस्यों की संख्याबल ज्यादा होने के बाद भी उसने अपनी पार्टी का मुख्यमंत्री इसलिए नहीं बनाया क्योंकि राज्य की सत्ता के समीकरण इसकी इजाजत नहीं देते हैं. 


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2015 में ऐसा था महागठबंधन का मत्रिमंडल 


2015 में महागठबंधन के मंत्रिमंडल विस्तार में सोशल इंजीनियरिंग यानी जातिगत समीकरण का बखूबी खयाल रखा गया था. इसे लेकर कहा गया कि नीतीश कुमार कभी इंजीनियरिंग के छात्र रहे हैं, इसलिए जातिगत समीकरण को साधने जानते हैं. महागठबंधन के 28 मंत्रियों को शपथ दिलाई गई थी, जिसमें सबसे ज्यादा यादवों में से सात मंत्री बनाए गए थे. राज्य में ओबीसी वोट बैंक अच्छा खासा है और दूसरे नंबर पर माना जाता है. इसके अलावा, कैबिनेट में चार मुस्लिम, पांच दलित, तीन-तीन निषाद (ईबीसी) और कुशवाहा, 2 राजपूत, एक-एक भूमिहार और ब्राह्मण और दो महिलाओं को शामिल किया गया था. जानकारों का मानना है कि इस बार की महागठबंधन सरकार के मंत्रीमंडल में सबसे ज्यादा आरजेडी के 20 मंत्री बनाए जा सकते हैं, जेडीयू से 13, कांग्रेस से चार और हिंदुस्तान आवाम मोर्चा से एक मंत्री बनाया जा सकता है. 


इस मायने में अलग है महागठबंधन


इस बार का महागठबंधन इस मायने में जरूर अलग है कि अब आरजेडी नेता लालू प्रसाद यादव का दखल इसमें कम हो पाएगा क्योंकि माना जा रहा है कि वह अब सियासी करियर के आखिरी छोर पर हैं. वह बीमार भी रहते हैं, इस कारण नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव के शपथग्रहण समारोह में दिल्ली से नहीं आ पाए. वहीं, सियासी पंडित मानते हैं कि आरजेडी की बैटिंग अब इसके युवा चेहरे तेजस्वी यादव के हवाले ज्यादा है. तेजस्वी यादव पुरानी पार्टी से जरूर है लेकिन वह खाटी परंपरा का निर्वहन नहीं करते हैं और समय-जरूरत के हिसाब से फैसले बदलने की लचक रखते हैं.


वाक पटुता में भी अपनी उम्र के नेताओं में से वह किसी से कम नहीं दिखाई देते हैं. लच्छेदार भाषण से चाहें विरोधियों पर निशाने साधना हो या जनता को लुभाना, इसकी ट्रेनिंग उन्हें बखूबी मिली हुई है, इसका उदाहरण कल ही देखने को मिला जब नीतीश कुमार के एनडीए को छोड़ने की घटना को उन्होंने अंग्रोजों भारत छोड़ो आंदोलन से जोड़कर पेश कर दिया. हो सकता है कि तेजस्वी को ज्यादा जिम्मेदारी देकर नीतीश कुमार दिल्ली की पिच पर खुलकर बैटिंग करने उतर जाएं.


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