(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)
जलवायु परिवर्तन से निपटने का रास्ता दिखाते हैं भारत के ये आदिवासी
आदिवासी समाज अपने अलग नियम- कानून बनाते हैं और उसे ही मानते भी हैं. इस समुदाय की खास बात ये है कि उनके लिए प्रकृति ही सब कुछ है और वो न सिर्फ जंगलों में रहते हैं बल्कि उसकी रक्षा भी करते हैं.
दुनियाभर में आदिवासियों की कुल जनसंख्या 48 करोड़ के आसपास है. जबकि कुल संख्या का लगभग 22 फीसदी आदिवासी भारत में रहते हैं. हमारे देश में आदिवासी सदियों से जंगलों में रहते आए है.
इतना ही नहीं उनका भारत के इतिहास के कई ऐसे संघर्ष और सत्याग्रह में भी नाम दर्ज हैं जिसमें इस समुदाय के लोगों ने जल, जंगल, जमीन को आबाद करने में अपना योगदान दिया है.
आदिवासी जीवन की बात की जाए तो इस समुदाय ने हमेशा ही पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना अपने जीवन को सरल और आसान बनाया है. ऐसे में आज जब दुनिया जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण में बदलाव की चुनौतियों का सामना कर रही है, तो हमें आदिवासियों से सीखने की जरूरत है कि किस तरह जंगल या पेड़ पौधों को नुकसान पहुंचाए बिना जिंदगी जी जाती है.
इस रिपोर्ट में हम आदिवासियों की कुछ ऐसे समुदायों और उनकी परंपराओं के बारे में जानेंगे जो दिखाती हैं कि प्रकृति के संरक्षण में आदिवासियों हमसे कहीं ज्यादा समृद्ध, संस्कारी व सजग हैं..
सबसे पहले जानते हैं कि आदिवासी होते कौन है?
आदिवासी को वनवासी, गिरिजन, मूलनिवासी, देशज, स्वदेशी जैसे तमाम अलग अलग नामों से जाना जाता है. इस शब्द का मतलब होता है ऐसे लोग जो शुरुआत से ही यहां रह रहे हों. इन लोगों को भारत में सरकारी और कागज़ी तौर पर अनुसूचित जनजाति भी कहा जाता है.
आमतौर पर अनुसूचित जनजातियां यानी एसटी समूह मुख्यधारा के समाज से काफी अलग थलग रहते हैं. इनका समाज और रीति-रिवाज तक आम लोगों से काफी अलग होता है.
आदिवासी समाज अपने अलग नियम- कानून बनाते हैं और उसे ही मानते भी हैं. इस समुदाय की खास बात ये है कि ये किसी भगवान को नहीं मानते, उनके लिए प्रकृति ही सब कुछ है. आमतौर पर आदिवासी समाज जंगलों और पहाड़ों में रहते हैं.
जंगल और हरियाली की रक्षा कैसे कर रहे हैं आदिवासी
दक्षिण भारत की कादर जनजाति: कादर जनजाति तमिलनाडु के अन्नामलाई पहाड़ियों के जंगल में रहती है. इस समुदाय के लोगों को अपने गांवों के जंगलों में उगने वाले पौधों, जड़ी-बूटियों और पेड़ों के औषधीय महत्व का गहरा ज्ञान है.
भोटिया समुदाय: आदिवासियों का भोटिया समुदाय प्रकृति के संरक्षण में काफी अहम भूमिका निभाते है. दरअसल इस समुदाय के लोग ज्यादा से ज्यादा मिट्टी का इस्तेमाल करते हैं, चाहे वह घर बनाने में हो या चूल्हा बनाने में.
यह समुदाय कोशिश करती कि जितना हो सके उतना पेड़ काटने से बचा जा सके. औषधीय पौधों की कटाई के दौरान भी वह पहले पत्तियों से निरीक्षण कर लेती है करते हैं ताकि कोई गलत पेड़ न कट जाए.
गरासिया जनजाति: आदिवासियों का ये समुदाय राजस्थान के सिरोही ज़िले में रहती है. यह समुदाय जंगल के इन पेड़ो को संरक्षित करती है जो विलुप्त होने की स्थिति में हैं.
उन परंपराओं के बारे में भी जान लीजिये जो वन संरक्षित करने में मददगार साबित होती आई है
राऊड़ की प्रथा: आदिवासी समुदायों में राऊड़ की प्रथा है, जो पर्यावरण संरक्षण के लिए काफी मददगार साबित होती रही है. इस प्रथा के तहत गांव के पास जंगल के एक इलाके को राऊड़ बनाया जाता है. इन क्षेत्र में पेड़ों की कटाई, आगे लगाने जैसे कामों पर प्रतिबंध रहता है.
चैतरई समाज: आदिवासी समुदायों में मार्च के आखिर में या अप्रैल के पहले सप्ताह में चैतरई पर्व मनाई जाती है. इस पर्व के पहले आदिवासी समाज के लोग आम चखते तक नहीं हैं.
इसके पीछे की सोच भी ये है कि आम जब कच्चा होता है तो उसमें चेर यानी बीज नहीं बनता है और अगर इसे खा लिया जाए तो आम के पेड़ लगाने के बीज नहीं मिलेंगे. यही कारण है कि चेर बनने यानी बीज होने के बाद चैतरई पर्व मनाकर आम खाया जाता है.
इस पर्व के बाद लोग आम खाकर इसके बीज फेंक देते हैं जो आम का पेड़ बनता है. ये भी वजह है कि दक्षिण बस्तर में आम के पेड़ बहुतायत दिखते हैं.
तैयार करते हैं अपना बीज बैंक
कई जगहों पर आदिवासियों अपना बीज बैंक भी तैयार करते हैं. ये बीजों का अनूठा संग्रह होता है जहां 200 से ज्यादा कीमती वनस्पतियों के बीज इकट्ठा किए जाते हैं, इनमें कई वनस्पतियां तो ऐसी होती है जो ढूंढ़ने पर भी आसानी से नहीं मिल पाती.
बीज बैंक तैयार करने वाले आदिवासियों को डर है कि प्रकृति ने जो उपहार दिए हैं कहीं वो आने वाली पीढ़ियों के लिए बचे ही नहीं, इसलिए आदिवासी ये बीज जुटाते हैं.
आदिवासियों के इस बीज बैंक के कारण ही ही पौधों की 200 से ज्यादा ऐसी प्रजातियां सुरक्षित हैं, जो विलुप्त होने के कगार पर है. इन बीजों में फलदार, छायादार, औषधीय गुण के लिए पौधों के बीज के साथ ऐसे अनाज के बीज भी हैं, जो बगैर हल चलाए उपजते हैं.
किसी शुभ काम में पानी-पेड़ का नहीं होता इस्तेमाल
धुरवा जनजाति के आदिवासी समाज पानी को साक्षी मानकर एक-दूजे के संग साथ रहने की कसमें खाते हैं. आदिवासी का ये समुदाय पानी के इस्तेमाल और महत्व के लिए भी सजग है. इनकी परंपरा में जल स्रोतों का संरक्षण भी शामिल है. ये जल स्रोत के आसपास ही बसते हैं.
पेड़ों की करते हैं पूजा
उत्तर छत्तीसगढ़ में आदिवासी टुंटा पूजन करते हैं. ये आयोजन क्षेत्र में स्थापित सरना में किया जाता है. सरना का मतलब होता है देवों का क्षेत्र, जो असल में पेड़ों का समूह होता है.
यहां रहने वाले आदिवासी पेड़ों को ही अपना आराध्य मानते हैं और पेड़ों का संरक्षण ही उनका लक्ष्य भी है. इस समुदाय के लोग जेठ माह के शुक्ल पक्ष पर टुंटा सरना का आयोजन करते हैं.