Congress President Election Race: कांग्रेस के लोकसभा सांसद शशि थरूर (Shashi Tharoor) 19 सितंबर को पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिले. इस मुलाकात के बाद उन्हें  संगठन के अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने की मंजूरी मिल गई. इससे पहले गहलोत की इस पद के लिए उम्मीदवारी 23 अगस्त को सोनिया गांधी से मिलने के बाद चर्चा में आई थी. इससे ये भी साफ हो गया कि पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए थरूर और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत (Ashok Gehlot) के बीच मुकाबला होगा. बशर्ते नेहरू-गांधी परिवार से कोई भी चुनाव न लड़े, अगर वह अध्यक्ष पद पर काबिज होने के लिए राजी हो जाए तो फिर कोई उनके खिलाफ नहीं उतरेगा ये भी पक्का है.


नेहरू-गांधी के उत्तराधिकारी राहुल गांधी ने अभी तक यह साफ नहीं किया है कि वह 17 अक्टूबर को होने वाले चुनाव में उतरेंगे या नहीं. पार्टी के अंदर ये कयास भी हैं कि राहुल गांधी की अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने की कोई मंशा नहीं है.  राहुल गांधी 7 सितंबर से भारत जोड़ो यात्रा पर हैं. अपनी यात्रा में अब तक उन्होंने पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए अपनी उम्मीदवारी के बारे में कोई साफ बयान नहीं दिया है. अगर राहुल इस दौड़ से बाहर हो जाते हैं तो गहलोत-थरूर के बीच मुकाबला होने की पूरी संभावना है. कांग्रेस के अध्यक्ष पद की चुनाव प्रक्रिया 24 सितंबर से शुरू होगी. इस महीने के आखिर तक उम्मीदवार अपना नामांकन दाखिल करना शुरू कर सकते हैं. हालांकि इस अहम चुनाव की असली तस्वीर 30 सितंबर को सामने आएगी. फिलहाल अभी के लिए ये चुनाव गहलोत-थरूर का मामला लगता है. अगर कांग्रेस के इन दो दिग्गज नेताओं के बीच मुकाबला होता है तो ये पांच वजहें जो गहलोत का पलड़ा भारी कर रही हैं. 


नेहरू-गांधी परिवार के भरोसेमंद


गहलोत को नेहरू-गांधी का वफादार और भरोसेमंद माना जाता है. अहम मामलों में सोनिया और राहुल गांधी दोनों उनसे ही सलाह लेते हैं. जब जून में राहुल गांधी को पांच दिनों और 50 घंटों के लिए प्रवर्तन निदेशालय- ईडी (Enforcement Directorate -ED) ने बुलाया था. सबसे मुखर होकर इसका विरोध करने वाले अशोक गहलोत ही थे. उन्होंने राहुल के जून और सोनिया गांधी के जुलाई में तीन दिनों तक ईडी में बुलाए जाने पर हुए पार्टी के विरोध प्रदर्शनों में सक्रिय भूमिका निभाई थी. राजस्थान के ये सीएम विरोध प्रदर्शनों में सड़क पर उतर आए थे. विरोध प्रदर्शनों के दौरान उन्हें कई बार बार हिरासत में भी लिया गया.


उन्होंने सोनिया (Sonia Gandhi) और राहुल (Rahul) का बचाव करने का बीड़ा उठाया और दिल्ली में कई प्रेस कॉन्फ्रेंस की. राजस्थान के मुख्यमंत्री होने के अलावा, वह गुजरात (Gujarat) के वरिष्ठ पर्यवेक्षक भी हैं, जहां अगले कुछ महीनों में विधानसभा चुनाव होने हैं. दूसरी ओर, थरूर को नेहरू-गांधी परिवार के वफादार के रूप में नहीं जाना जाता है. उन्हें एक असंतुष्ट और विरोधी नेता के तौर पर देखा जाता है. थरूर जी -23 के नाम मशहूर 23 कांग्रेस नेताओं में से एक हैं. उन्होंने साल 2020 में सोनिया गांधी को एक खत लिखा था. जिसमें शीर्ष स्तर पर आंतरिक-पार्टी सुधार और फैसले लेने में पारदर्शिता की मांग की गई थी. 


सरकार चलाने का लंबा अनुभव 


अशोक गहलोत कट्टर कांग्रेसी हैं और उनकी एक लंबी राजनीतिक पृष्ठभूमि भी है. वे पांच बार लोकसभा के लिए चुने गए हैं. उन्होंने पहला लोकसभा चुनाव 1980 में जोधपुर से लड़ा था. गहलोत पांच बार विधायक भी रह चुके हैं. वह अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव भी रह चुके हैं. जहां तक शशि ​​थरूर का सवाल है साल 2009 में पार्टी में शामिल होने के बाद वह कांग्रेस में गहलोत की तुलना में अपेक्षाकृत नए सदस्य हैं. वह 2009 से लगातार केरल के तिरुवनंतपुरम (Thiruvananthapuram) से तीन बार के सांसद हैं.  वह ऑल इंडिया प्रोफेशनल्स कांग्रेस (AIPC) के अध्यक्ष भी हैं. अशोक गहलोत को  सरकार चलाने का खासा अनुभव है. उनके  प्रशासनिक अनुभव की ही बानगी है कि वह तीन बार केंद्रीय मंत्री रहे. कांग्रेस के तीन प्रधानमंत्रियों इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और पीवी नरसिम्हा राव के मंत्रिमंडल में भी वो रहे. इतना ही नहीं वह तीन बार के सीएम भी हैं.


गहलोत की तुलना में थरूर की राजनीतिक पारी पर गौर किया जाए तो वो दो बार केंद्रीय मंत्री रहे हैं और वो भी बेहद कम वक्त के लिए था. 23 किताबें लिखने वाले थरूर भले ही आला दर्जे के लेखक रहे हो, लेकिन राजनीति की पढ़ाई में गहलोत से पीछे ही हैं. वह 23 मई 2009 से लेकर 18 अप्रैल, 2010 तक विदेश राज्य मंत्री (MoS) रहे थे. इसके बाद 28 अक्टूबर, 2012 से लेकर मई 2014 तक मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री थे. संयुक्त राष्ट्र में 1978-2007 तक थरूर ने 29 साल तक कई पदों पर अपनी सेवाएं दी. इनमें से एक बार वह अंडर सेक्रेटरी जनरल के पद पर भी रहे. साल 2006 में थरूर ने कोफी अन्नान (Kofi Annan) के बाद संयुक्त राष्ट्र महासचिव के पद के बनने के लिए चुनाव लड़ा था. दक्षिण कोरिया के विदेश मंत्री बान की-मून के सुरक्षा परिषद के पांच वीटो पॉवर वाले स्थायी सदस्यों के पसंदीदा उम्मीदवार होने की वजह से उन्होंने इस पद से अपना नामांकन  वापस ले लिया.


मझे हुए सियासी रणनीतिकार हैं गहलोत


ये माना जाता है कि अशोक- गहलोत को नेहरू-गांधी खानदान का समर्थन है. वह बेहद लंबे वक्त से इस खानदान के पसंदीदा रहे हैं. इसकी बानगी साल 2018 में राजस्थान विधानसभा चुनावों (Assembly Election) में देखने को मिली थी. तब कांग्रेस ने इस सूबे में का चुनाव गहलोत के प्रतिद्वंद्वी सूबे के प्रदेश अध्यक्ष (PCC) सचिन पायलट के साथ लड़ा था. तब सचिन पायलट ने टोंक और अशोक गहलोत ने सरदारपुरा सीट जीतीं थीं. इसी साल कांग्रेस पार्टी ने मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) के पीसीसी कमलनाथ के साथ यहां भी चुनाव लड़ा. तब कांग्रेस ने कमलनाथ को मप्र में सरकार का नेतृत्व करने के लिए चुना था, लेकिन जब सचिन पायलट ने राजस्थान में सरकार बनाने का दावा पेश किया तो पार्टी ने उनके दावे को अनदेखा कर दिया और उनके प्रतिद्वंदी गहलोत को सूबे के सीएम कमान सौंप दी. ये गहलोत की ही रणनीति थी कि साल 2018 में युवा सीएम के चेहरे सचिन पायलट की जगह उन्हें सीएम पद दिया गया. 


कार्यकर्ताओं के साथ गहलोत का है सीधा कनेक्‍शन


मौजूदा वक्त में भी पार्टी का शीर्ष नेतृत्व गहलोत पर पार्टी के अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने का दबाव बना रहा है. इसलिए ये उम्मीद की जा सकती है कि गहलोत और थरूर के बीच अनुभवी गहलोत का ही पलड़ा भारी रहेगा, क्योंकि अध्यक्ष पद के लिए मतदान के लिए पात्र 9,000 प्रतिनिधियों में से अधिकांश का समर्थन गहलोत के पक्ष में जाने की संभावना है. पार्टी में नेहरू-गांधी परिवार को बहुमत का समर्थन है. इसकी वजह जानने के लिए 76 साल पहले के कांग्रेस अध्यक्ष पद 1946 चुनावों पर गौर करना होगा. उस वक्त गांधी जी पार्टी के सदस्य नहीं थे. इसके बाद भी उनकी भूमिका बेहद अहम थी. तब मुकाबला सरदार पटेल और पंडित नेहरू के बीच था. सरदार पटेल ने बापू के आदेश और इच्छा का सम्मान करते हुए अपना नामांकन वापस ले लिया था. तब इस चुनाव में बहुमत को दरकिनार करते हुए पटेल की जगह पंडित नेहरू अध्यक्ष पद पर चुने गए थे. तभी से कांग्रेस का मतलब नेहरू-गांधी परिवार से लगाया जाता है. यही वजह है कि 76 साल से चली आ रही परंपरा में  नेहरू-गांधी परिवार से इतर अध्यक्ष पद पर किसी और का नाम कम ही स्वीकार हो पाता है.


राहुल गांधी को पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर नियुक्त करने के लिए आठ प्रदेश कांग्रेस समितियों-पीसीसी (Pradesh Congress Committees-PCCs) का पास किया गया प्रस्ताव इसका जीवंत सबूत है. ये पीसीसी पश्चिम बंगाल, ओडिशा, महाराष्ट्र, राजस्थान, तमिलनाडु, बिहार, छत्तीसगढ़ और गुजरात हैं. वास्तव में, पीसीसी को एक ऐसा प्रस्ताव पास करने के निर्देश दिए गए थे कि वह कांग्रेस अध्यक्ष को पीसीसी अध्यक्ष नियुक्त करने और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी-एआईसीसी (All India Congress Committee-AICC) के प्रतिनिधियों को नामित करने के लिए अधिकृत कर दें. 


बेदाग छवि


जहां अशोक गहलोत एक नेता के तौर पर बेदाग छवि के बादशाह हैं तो वहीं शशि थरूर कई बयानों और कामों से खुद को विवादों के दायरों में ला चुके हैं. ऐसा ही एक विवाद साल 2010 का है. तब थरूर पर आईपीएल (IPL) क्रिकेट फ्रेंचाइजी में शेयर खरीदने के लिए अपने पद का दुरुपयोग करने के आरोप लगे थे. इस वजह से उन्हें अप्रैल 2010 में केंद्रीय मंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ा था. इसके बाद जनवरी 2014 में दिल्ली के एक होटेल में उनकी पत्नी सुनंदा पुष्कर (Sunanda Pushkar) की रहस्यमयी हालातों में हुई मौत से भी वो सवालों के घेरे में आए थे. उन पर पत्नी सुनंदा को खुदकुशी के लिए उकसाने और उनके पर शादी के बाद अपनी पत्नी के साथ क्रूरता का रवैया (Marital cruelty) अपनाने का आरोप लगा. हालांकि अगस्त 2021 में उन्हें इन सभी आरोपों से बरी कर दिया गया था.


थरूर सोशल मीडिया पर भी खासे मशहूर रहे हैं. उनके ट्विटर पर 8.3 मिलियन फॉलोअर्स हैं, लेकिन विवादों से चोली-दामन का साथ रखने वाले थरूर के ट्वीट्स बार-बार विवाद पैदा करने के लिए भी जाने जाते हैं. साल 2013 में उनके नाम सबसे अधिक फॉलोवर्स रखने वाले भारतीय राजनेता का तमगा है. बाद में उनके इस रिकॉर्ड को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी  (Narendra Modi) ने तोड़ डाला. उनके ऐसे ही विवादित ट्वीट्स में 26 नवंबर 2021 का ट्वीट रहा. उन्होंने अपने ट्वीटर हैंडल से 6 साथी महिला लोकसभा सांसदों के साथ एक ट्वीट किया था, जिसके बाद उनकी आलोचना हुई थी. शशि थरूर के लफ्जों पर लोगों ने खासी आपत्ति जताई थी. 


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