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आंदोलन से सत्ता में आई ममता ने कैसे बंगाल में ढहाया लेफ्ट का किला और कैसे नंदीग्राम को बनाया सियासी संग्राम?

नंदीग्राम महज एक सीट नहीं रहा बल्कि बंगाल चुनाव का असली मरकज बन गया. उस सीट समेत पूरे इलाके में शुभेदु अधिकारी और उनके परिवार के नाम का सिक्का चलता था. लेकिन राजनीति में कब सिक्का रेजगारी बन जाए, कोई नहीं जानता.

ममता बनर्जी 1984 से चुनाव लड़ रही हैं. कभी सोमनाथ चटर्जी जैसे दिग्गज कम्युनिस्ट नेता को हराकर जाएंट किलर बनी थीं तो कभी मामूली उम्मीदवार से हार भी गईं. लेकिन लड़ना नहीं छोड़ा, इतना तो जरूर है कि ममता की जीत का स्वाद नंदीग्राम की हार से थोड़ा कसैला हो गया है.

 

इश्क से ज्यादा कहीं आग का दरिया तो सियासत है. इसमें भी आपको डूबकर जाना है लेकिन जो डूबने का दम दिखाते हैं, वो ही सत्ता की नाव को पार लगाते हैं. पश्चिम बंगाल के इस चुनाव में सबसे दहकती सीट बन गया था नंदीग्राम. जहां से पिछली बार ममता के सबसे करीबी लेफ्टिनेंट शुभेंदु अधिकारी ने चुनाव जीता था. लेकिन चुनाव से ठीक पहले बीजेपी में चले गए थे.

पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने जिस तरीके से 42 में 18 सीटें जीत ली थी, उससे बीजेपी के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ा. ममता सरकार में मंत्री होने के बावजूद शुभेंदु को लग रहा था कि दीदी अपने भतीजे अभिषेक बनर्जी को ज्यादा भाव दे रही हैं तो उन्होंने मौके की तलाश शुरू की. बीजेपी ने मौका दे दिया. जब गृह मंत्री अमित शाह की मौजूदगी में शुभेंदु बीजेपी में शामिल हुए तो इसे ऐन चुनाव से पहले ममता के लिए बहुत बड़ा झटका माना गया.

 

नंदीग्राम ऐसे बना हॉटसीट

नंदीग्राम महज एक सीट नहीं रहा बल्कि बंगाल चुनाव का असली मरकज बन गया. उस सीट समेत पूरे इलाके में शुभेदु अधिकारी और उनके परिवार के नाम का सिक्का चलता था. लेकिन राजनीति में कब सिक्का रेजगारी बन जाए, कोई नहीं जानता. जिस ममता के दम पर पूरे इलाके में अधिकारी परिवार का दबदबा था, उसी ममता को जब शुभेंदु ने चुनौती दी तो दीदी भड़क गईं.

मेरी बिल्ली मुझी से म्याऊं वाली तर्ज पर उन्होंने शुभेंदु को सबक सिखाने की ठान ली और उसका पहला कदम इस एलान से उठा. इस बयान और एलान ने ममता की राजनीति को नई परिभाषा दे दी. लोगों में ये पैगाम गया कि ममता कभी दबकर राजनीति नहीं करतीं. वो सीधी टक्कर लेने में यकीन करती हैं. उनकी राजनीति में बीच का कोई रास्ता नहीं होता. वो आर पार में विश्वास करती हैं. साथ ही पूरे बंगाल में ये संदेश गया कि ममता का आधार इतना बड़ा है कि कोई क्षत्रप उसको छोटा नहीं कर सकता.  बंगाल के लोग इसको समझ रहे थे लेकिन दीदी की शागीर्दी में राजनीति करने वाले शुभेंदु दादा समझे नहीं.

क्यों इतने विश्वास से लबालब थे शुभेंदु अधिकारी?

शुभेंदु अगर नंदीग्राम में अपनी जीत पक्की मानकर चल रहे थे तो इसके पीछे भी कई कारण थे. एक तो अपने खानदानी प्रभाव के कारण शुभेंदु को लगता था कि उनको कौन हरा पाएगा. दूसरा कारण बीजेपी में उनका अचानक बढ़ा कद था क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी से लेकर गृह मंत्री शाह तक के वो चहेते बन गए. तीसरा कारण इस सीट से पिछली बार मिली उनकी शानदार जीत थी. और चौथा कारण नंदीग्राम आंदोलन की वो विरासत थी जिसकी नेता अगर ममता बनर्जी थीं तो आंदोलन का योद्धा शुभेंदु अधिकारी.

ममता ने नंदीग्राम को अपने अस्तित्व का संग्राम बनाकर शुभेंदु को सियासी चक्रव्यूह में घेरने की कोशिश की. ममता की इस रणनीति का असर सिर्फ एक सीट तक सिमटा हुआ नहीं था बल्कि पूरे मिदनापुर में वो ये संदेश दे रही थीं कि असली नेता तो वही है, शुभेंदु तो उनके नाम पर अपना नाम चमका रहे थे. लेकिन ममता की हार पर स्कूटर के बहाने प्रधानमंत्री मोदी पहले ही चुटकी ले चुके थे.

ममता ने ऐसा भुनाया किसान आंदोलन

नंदीग्राम से ममता की रणभेरी उनके खास मुस्लिम वोटरों को रिझाने में भी एक अहम पत्ता बना तो ममता के जुझारू तेवर की नई सरजमीन भी. 15 साल पहले तक नंदीग्राम लेफ्ट का सबसे मजबूत गढ़ होता था. लेकिन 2007 में जब लेफ्ट सरकार ने सलीम ग्रुप केमिकल हब बनाने के लिए स्पेशल इकोनॉमिक जोन बनाने की मंजूरी दी तो किसान विरोध करने लगे.

किसानों के विरोध का सियासी काउंटर पर ममता ने भुना लिया. उस विरोध और आंदोलन ने ममता को 2009 के लोकसभा चुनाव में भरपूर फायदा पहुंचाया. और आखिरकार 2011 में प्रदेश की ताजपोशी करवा दी. उस नंदीग्राम सीट पर मुस्लिम वोटों का दबदबा देखकर वहां 1996 के बाद से मुस्लिम उम्मीदवार ही जीतते रहे. 20 साल बाद ममता की पार्टी से शुभेंदु पिछले चुनाव में यहां से जीते थे. और इस बार दो हजार वोट के भीतर ही सही, लेकिन उनकी जीत इतिहास में रिकॉर्ड होगी क्योंकि उन्होंने दीदी को हरा दिया.

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