Chola Empire: नए संसद भवन के उद्घाटन से पहले 'चोल राजवंश' काफी सुर्खियों में हैं. नई संसद में स्पीकर की कुर्सी के पास स्थापित किए जाने वाले 'सेंगोल' का इतिहास इसी चोल राजवंश से जुड़ा है. सेंगोल को 'राजदंड' कहा जाता है. अंग्रेजों से सत्ता हस्तांतरण के समय चोल राजवंश के इतिहास को देखते हुए सेंगोल को बनवाया गया था और फिर ब्रिटिश शासन के आखिरी गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने इसे भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को सौंपकर सत्ता सौंप दी थी.
सेंगोल का चलन हालांकि, मौर्य और गुप्त वंश काल में शुरु हुआ लेकिन चोल राजवंश के शासन काल में इसका इस्तेमाल सबसे ज्यादा हुआ. आखिर क्या था चोल राजवंश, कब से कब तक और कहां से कहां तक इसका साम्राज्य फैला था, इससे जुड़े और भी कई प्रश्नों के उत्तर आइये जानते हैं.
चोल साम्राज्य की कहानी
चोल साम्राज्य का पहला जिक्र तीसरी शताब्दी में सम्राट अशोक के पुरालेखों में मिलता है. उस समय के चोल राजवंश को 'प्रारंभिक चोल' के तौर पर जाना जाता है. इस वंश की उत्पत्ति को लेकर स्पष्ट तथ्य मौजूद नहीं हैं. तीसरी शताब्दी के आसपास 'पल्लव' और 'पांड्या' राजाओं का शासन विस्तार पा रहा था. उस समय प्रारंभिक चोल काफी छोटे स्तर पर थे. जब पल्लव और पांड्या अपनी ताकत के चरम पर पहुंचे तब प्रारंभिक चोलों का लगभग पतन हो गया था. उस समय वे पल्लवों के अधीन होकर उनके सामंत की तरह काम करने लगे थे.
इसके बाद पूर्व मध्यकाल में पल्लव और पांड्या के बीच शक्ति का काफी विस्तार हो गया था, इसके चलते दोनों राजवंशों के बीच राजनीतिक सत्ता को लेकर संघर्ष शुरू हुआ. उस समय पल्लवों और पाड्यों के बीच संघर्ष का फायदा उठाकर चोल साम्राज्य के संस्थापक 'विजयालय चोल' ने कावेरी नदी के डेल्टा के पास तंजावूर में अपना कब्जा स्थापित कर लिया था. उन्होंने वहां के तत्कालीन राजा (पल्लवों से संबंधित) को हरा दिया था. विजयालय ने तंजावूर को अपनी राजधानी बनाया था. यहीं से चोल राजवंश अस्तित्व में आया. बाद में चोल राजा पांड्या राजाओं के क्षेत्रों पर कब्जा करते गए.
850 ईसा पूर्व हुई थी चोल राजवंश के पहले शासन की स्थापना
विजयालय चोल ने 850 ईसा पूर्व में पहले शासन की स्थापना की थी. इनके बाद विजयालय चोल के बेटे आदित्य प्रथम ने 870 ईसा पूर्व सत्ता संभाली और साम्राज्य का विस्तार किया. इसके बाद परांतक प्रथम, परांतक द्वितीय, राजराजा प्रथम, राजेंद्र प्रथम, राजाधिराज, राजेंद्र द्वितीय, वीर राजेंद्र, अधिराजेन्द्र, कुलोत्तुंग प्रथम, विक्रम चोल, कुलोत्तुंग द्वितीय और राजेंद्र तृतीय जैसे चोल राजवंश के राजाओं का नाम आते हैं. परांतक प्रथम ने पांड्यों की राजधानी मदुरै पर जीत हासिल की थी.
विजयालय चोल के बाद इस वंश के जो भी शासक आए, उन्होंने पत्थर और तांबे पर भारी संख्या में शिलालेखों का निर्माण किया. जिससे उनके इतिहास का पता चलता है. चोल राजाओं और सम्राटों में अलग-अलग उपाधियां चलती थीं. प्रमुख उपाधियों में परकेशरीवर्मन और राजकेशरीवर्मन शामिल थीं.
राजराजा और राजेंद्र चोल के समय हुआ सम्राज्य का खासा विस्तार
इस राजवंश में 985 ईसा पूर्व सत्ता हासिल करने वाले राजराजा प्रथम के कार्यकाल में चोल राजवंश का सबसे ज्यादा विस्तार हुआ था. राजराजा प्रथम को अरुलमोझीवर्मन के नाम से भी जाना जाता था. राजराजा प्रथम एक प्रकार की उपाधि थी, जिसे राजाओं के राजा के तौर पर माना जाता था. इन्हीं के शासन काल के दौरान चोल राजवंश की कार्य प्रणाली और राजनीतिक प्रणाली में अहम बदलाव देखने को मिले थे. इन्हीं के शासन के दौरान 'राजा' 'सम्राट' बनने लगे थे.
राजराजा प्रथम के बेटे राजेंद्र चोल थे. उनके शासन के दौरान भी इस राजवंश का काफी विस्तार हुआ था. उन्हें गंगईकोंडा चोल के नान से जाना जाता था. माना जाता था कि उन्होंने गंगा नदी के किनारे 1025 ईसा पूर्व में बंगाल में पाल वंश के राजाओं पर विजय प्राप्त की थी, इसलिए उनका यह नाम पड़ा था. उन्होंने गंगईकोंडाचोलपुरम नामक शहर की स्थापना की थी, जिसे वर्तमान में तिरुचिरापल्ली कहा जाता है. राजेंद्र चोल ने इसे अपनी राजधानी बनाया था. राजेंद्र चोल भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर जीतने वाले चुनिंदा सम्राटों में से एक थे. उन्होंने इंडो-चाइना, थाइलैंड और इंडोनेशिया में युद्ध लड़ा था. 36 लाख वर्ग किलोमीटर में चोल साम्राज्य का शासन था. मैदानी इलाकों के अलावा इस वंश के राजाओं ने समुद्री मार्ग को भी जीता था.
चोल राजवंश का ताकत
चोल राजवंश की सेना की इकाइयों को मुख्य तौर पर मुनरुकाई महासेनाई के नाम से जाना जाता था. सेना की तीन शाखाएं थीं. सेना में पैदल सैनिक, घुड़सवार और हाथी सवार शामिल थे और इसके अलावा राजवंश के पास ताकतवर नौसेना भी थी.
पूरे चोल राजवंश की सैन्य क्षमता करीब 1.5 लाख तक की आंकी जाती है. नौसेना के दम पर चोल राजवंश ने कोरोमंडल और मालावार तटों पर चढ़ाई कर अपना नियंत्रण स्थापित किया था. इसी की शक्ति के आधार पर ही चोल राजवंश ने भारतीय उपमहाद्वीप से लेकर मलक्का जलडमरूमध्य तक समुंद्री व्यापार पर अपनी नियंत्रण कर लिया था. बर्मा और सुमात्रा में तमिल में शिलालेख मिले हैं. इससे भी चोल राजवंश की नौसैनिक क्षमता का अंदाजा लगाया जाता है. वहीं, दक्षिण पूर्व एशिया में भी चोल राजवंश के राज के प्रमाण मिलते हैं. कंबोडिया और थाईलैंड में राजाओं को देवता के रूप में देखा जाता है, जिसे चोल राजवंश की छाप माना जाता है.
भारत के दक्षिणी इलाकों में सबसे ज्यादा समय तक किया राज
चोल राजवंश ने भारत के दक्षिणी इलाकों में सबसे ज्यादा समय तक राज किया. चोल राजाओं का साम्राज्य दक्षिण भारत में आज के तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल और कर्नाटक के कई क्षेत्रों तक फैला था. इसके अलवा जो देश आज श्रीलंका, बांग्लादेश, थाइलैंड, मलेशिया, इंडोनेशिया, सिंगापुर, कंबोडिया और वियतनाम के रूप में जाने जाते हैं, वहां भी चोल साम्राज्य था.
चोलों के शासन के दौरान प्रांतों को मंडलम के तौर पर जाना जाता था. हर एक मंडलम के लिए अलग प्रभारी नियुक्त किया जाता था. चोल कला और साहित्य का सम्मान करते थे और इसके संरक्षक भी थे. चोल वास्तुकला को द्रविड़ शैली का प्रतीक माना जाता है. दक्षिण भारत के कई मंदिरों में इस वास्तुकला और द्रविड़ शैली को देखा जा सकता है.
बृहदेश्वर मंदिर, राजराजेश्वर मंदिर, गंगईकोंड चोलपुरम मंदिर जैसे चोल मंदिरों ने द्रविड़ वास्तुकला को ऊंचाइयों पर पहुंचाया था. तांडव नृत्य मुद्रा में अक्सर देखी जाने वाली नटराज मूर्ति चोल मूर्तिकला का एक उदाहरण है.
राज्याभिषेक कैसे होता था?
चोल साम्राज्य राजवंश प्रणाली पर आधारित था यानी इसमें उत्तराधिकार का नियम था. अपने जीवनकाल के दौरान ही राजा अपने उत्तराधिकारी की घोषणा कर देता था. उत्तराधिकारी को युवराज कहा जाता था. युवराज को राजा के साथ काम में हाथ बंटाने के लिए लगाया जाता था जिससे वह राजकाज का काम सीखता था. युवराज को जब सत्ता हस्तांतरित की जाती थी तो निवर्तमान राजा उसे 'सेंगोल' सौंपता था.
चोल राजवंश का पतन
1216 ईसा पूर्व के आसपास होयसल राजाओं ने चोल इलाकों में दखल देना शुरू किया था. होयसल भी दक्षिण के एक राजवंश से थे. उस समय पांड्य राजाओं ने फिर से अपनी सेना को संगठित किया और अपनी जमीन वापस लेने के लिए चोल राजाओं के खिलाफ अभियान छेड़ दिया था. 1279 ईसा पूर्व राजेंद्र तृतीय के समय चोल साम्राज्य के सैनिक पाड्यों से हार गए और चोल साम्राज्य का पूरी तरह से पतन हो गया था.
आज भी क्यों है महत्व?
चोल राजवंश के राजाओं को असीमित शक्तियां हासिल थीं लेकिन अपने शासन-प्रशासन के कामकाज के अहम फैसलों में राजा संबंधित विभागों के प्रमुखों से परामर्श लिया करता था. चोल साम्राज्य के दौरान जिस तरह से कला, साहित्य और मंदिरों का निर्माण हुआ, उससे मालूम होता है कि उसके राजाओं में धर्म के प्रति गहरी आस्था थी.
कई वर्षों तक चला उनके शासन काल और राजवंश का विस्तार दिखाता है कि रणनीतिक, राजनीतिक और सैन्य कौशल के दम पर उन्होंने काम किया. उस दौर में 1.5 लाख सैनिकों वाली सेना मायने रखती है. समंदर को पार कर अन्य देशों पर उनके शासन से प्रतीत होता है कि वे समझबूझ के साथ ही तकनीकी तौर पर भी काफी सक्षम रहे होंगे. इन्हीं सब बातों के चलते इस राजवंश को भारत में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता और उसके महत्व का समझा जाता है.
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