'CJI होने के नाते मैं संविधान और कानून का सेवक हूं', वकील की किस दलील पर ऐसा बोले डीवाई चंद्रचूड़
मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने वकील की दलील पर कहा कि उन्हें जो जिम्मेदारी दी गई है, उन्हें उसका पालन करना होगा. उन्होंने कहा कि वह यह नहीं कह सकते कि उन्हें यह पसंद है और वह यह करेंगे.
चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी.वाई. चंद्रचूड़ ने शुक्रवार (8 दिसंबर) को कहा कि एक जज के तौर पर वह कानून और संविधान के सेवक हैं. जब प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ आज की कार्यवाही के लिए बैठी तो अधिवक्ता मैथ्यूज जे. नेदुम्पारा ने अदालत के समक्ष एक मामले का उल्लेख किया. वकील ने पीठ के समक्ष कहा कि कॉलेजियम प्रणाली में सुधारों की जरूरत है और वरिष्ठ अधिवक्ता पद समाप्त कर देना चाहिए.
पीठ में न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा भी शामिल थे. जस्टिस चंद्रचूड़ ने मौथ्यूज जे. नेदम्पुरा से कहा, 'वकील होने के नाते आपको अपने दिल की बात सुनने की आजादी है, लेकिन मुख्य न्यायाधिश के रूप में, बल्कि इससे भी अधिक महत्वपूर्ण, एक न्यायाधीश के रूप में मैं कानून और संविधान का सेवक हूं.' उन्होंने कहा, 'मुझे जो जिम्मेदारी दी गई है, मुझे उसका पालन करना होगा. मैं यह नहीं कह सकता कि मुझे यह पसंद है और मैं यह करुंगा.' सुप्रीम कोर्ट ने इस साल अक्टूबर में वरिष्ठ अधिवक्ता के पद को चुनौती देने वाली एक याचिका खारिज कर दी थी.
कई वकीलों ने दाखिल की हैं याचिकाएं
वकील मैथ्यूज जे. नेदुम्पारा वकीलों के एक समूह की ओर से दलीलें पेश कर रहे थे. जजों के चयन तंत्र और वकीलों को वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में नामित करने की प्रणाली के खिलाफ अलग-अलग याचिकाएं दाखिल की गई हैं. एक याचिका में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) के पुनरुद्धार का समर्थन करते हुए सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में न्यायिक नियुक्तियों के लिए कॉलेजियम प्रणाली को खत्म करने की मांग की गई है.
साल 2014 में बीजेपी नीत एनडीए सरकार एनजेएसी अधिनियम लाई थी, जो कोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए अलग वैकल्पिक प्रणाली स्थापित करता है. इस प्रक्रिया में सरकार की भूमिका का भी प्रस्ताव रखा गया, लेकिन साल 2015 के अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह यह अधिनियम कोर्ट की स्वतंत्रता के साथ छेड़छाड़ करने की कोशिश करता है. वकीलों की याचिका में एनजेएसी के फैसले की समीक्षा की मांग की है. याचिका में तर्क दिया गया कि 2015 के फैसले के शुरू में ही रद्द कर दिया जाना चाहिए था क्योंकि इसने कॉलेजियम सिस्टम को पुनर्जीवित किया है. याचिककर्ताओं का कहना है कि कॉलेजियम प्रणाली भाई-भतीजावाद और पक्षपात का पर्याय है.
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