नई दिल्ली: लोग कहते थे चुनाव खत्म तो शाहीनबाग खत्म. रिजल्ट आने पर शाहीनबाग खाली हो जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. चुनाव भी हो गया, नतीजे भी आ गए. लेकिन शाहीनबाग तो चल ही रहा है. जितने मुंह, उतनी बातें. लेकिन एक सवाल सबके मन में हैं. अगर अरविंद केजरीवाल शाहीनबाग जाते तो क्या होता? क्या वे चुनाव हार जाते? दिल्ली में बीजेपी की सरकार बन सकती थी? वैसे उन्हें वहां नहीं जाना था और वे गए भी नहीं. केजरीवाल की छोड़िए, उनकी पार्टी का कोई नेता वहां नहीं गया.


पहले तो ये जान लें कि आखिर अरविंद केजरीवाल शाहीनबाग क्यों नहीं जाते. पिछले छह महीनों से ही वे बदलने लगे थे. हाल में उनका पीएम नरेंद्र मोदी के खिलाफ कोई बयान याद है? नहीं होगा. केजरीवाल ने ऐसा कुछ किया ही नहीं है. वे जानते हैं कि सीधे-सीधे मोदी पर हमला करने से उनके वोटर टूट सकते हैं. पांच सालों तक बिना बात के सींग लड़ाने वाले केजरीवाल अब मोदी को लेकर सॉफ्ट हो गए हैं. दिल्ली चुनाव की तैयारी के लिए केजरीवाल किश्तों में खुद को बदलने लगे थे. संसद में उनकी पार्टी ने 370 हटाए जाने का समर्थन किया. विपक्ष के कई नेता केजरीवाल की इस चाल पर हैरान थे.

फिर आया नागरिकता कानून. अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी ने इसका विरोध किया. लेकिन खुल कर नहीं. जैसा कांग्रेस कर रही है. शाहीनबाग में मुस्लिम महिलाएं धरने पर बैठ गईं. लेफ्ट से लेकर कांग्रेस के कई नेता वहां नैतिक समर्थन देने पहुंच गए. लेकिन केजरीवाल और उनकी टीम इस तमाशे से दूर.. बहुत दूर रही. आप के मुस्लिम नेता अमानतुल्लाह का एक विवादित वीडियो आया. केजरीवाल और उनकी टीम अपने नेता के बचाव में नहीं आई. अमानतुल्लाह को मुंह बंद रखने को कहा गया. जेएनयू में हंगामा हुआ, जामिया में बवाल हुआ. सोशल मीडिया पर लोगों ने अरविंद केजरीवाल से दोनों जगह जाने की अपील की. लेकिन केजरीवाल खामोश रहे.

अरविंद केजरीवाल अगर शाहीनबाग जाते तो भी उनके लिए दुनिया पलट नहीं जाती. वे चुनाव नहीं हारते. केजरीवाल और उनकी पार्टी को अमित शाह वाला करंट नहीं लगता. लेकिन बीजेपी से मुकाबला कांटे का हो सकता था. ऐसा हम नहीं कहते हैं. ये कहानी आप आंकड़ों से समझ सकते हैं.

इस बार के चुनाव में बीजेपी फिर से केजरीवाल की पार्टी से हार गई. लेकिन वोट तो बीजेपी ने बढ़ा ही लिया है. पांच साल पहले विधानसभा चुनाव में पार्टी को 32.7 प्रतिशत वोट मिले थे. इस बार सीटें तो तीन से बढ़ कर 8 ही हो पाईं. लेकिन वोट शेयर 38.5 प्रतिशत हो गया. मतलब छह फीसदी वोट बढ़ गए. लेकिन आम आदमी पार्टी को वोटों का नुकसान हो गया. 2015 के चुनाव में 54.3 प्रतिशत वोट मिले थे. इस बार ये आंकड़ा 53.6 प्रतिशत हो गया. यानी एक फीसदी वोट शेयर का नुकसान हो गया. इसी एक प्रतिशत वोट गिरने से केजरीवाल की पार्टी को पांच सीटों का नुकसान हो गया है. पहले 67 सीटें थीं, अब 62 हो गई हैं.

शाहीनबाग जाकर नैतिक समर्थन देने वाली कांग्रेस का तो दिल्ली में दिवाला निकल गया है. खाता इस बार भी नहीं खुला. पिछले चुनाव में भी बड़ा वाला जीरो मिला था. लेकिन वोट शेयर तो पांच साल में ही 9.7 प्रतिशत से घट कर 4.2 प्रतिशत रह गया है. मतलब वोट शेयर आधा हो गया. शाहीनबाग का असली करंट तो कांग्रेस को लगा है.

अरविंद केजरीवाल अगर शाहीनबाग चले जाते तो क्या हो सकता था. बीजेपी दिल्ली में हिंदू-मुसलमान कराने में कामयाब हो सकती थी. लेकिन एक हद तक. ध्रुवीकरण का असर उन इलाक़ों में होता जहां मुस्लिम आबादी ठीक-ठीक है. ऐसी विधानसभा सीटों की संख्या 15 तक पहुंचती है. बीजेपी ये सभी सीटें जीत भी लेती तो भी सरकार केजरीवाल की ही बनती. खुद अमित शाह कह चुके हैं "वोटर आम तौर पर छह महीने पहले ही अपना मन बना लेता है." केजरीवाल सरकार के काम काज से दिल्ली वाले खुश थे. फ्री वाली बिजली पानी उन्हें रास आ रही थी. ऐसे में वोट उन्हें ही मिलता. आखिरी मौके पर शाहीनबाग से कुछ फीसदी वोटर छिटक भी जाते तो भी ऐसा नहीं होता कि केजरीवाल की जीत की हैट-ट्रिक नहीं लगती.

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