नई दिल्ली: देश के चीफ जस्टिस को पद से हटाने के लिए उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव का यह भले ही पहला मामला हो, लेकिन इसके पहले सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायाधीशों के खिलाफ इस तरह की कार्यवाही चलाई जा चुकी है. चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ दुर्व्यवहार और पद के दुरुपयोग के आरोप में कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों की ओर से आज राज्यसभा के सभापति एम वेंकैया नायडू को महाभियोग प्रस्ताव का नोटिस सौंपा है.


आजाद भारत में 1993 में पहली बार आया महाभियोग प्रस्ताव


आजाद भारत में पहली बार किसी न्यायाधीश को पद से हटाने की कार्यवाही मई 1993 में प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव के कार्यकाल में हुई थी. उस समय सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश वी रामास्वामी के खिलाफ लोकसभा में महाभियोग प्रस्ताव पेश किया गया था. उनके खिलाफ 1990 में पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के पद पर रहते हुए भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के आधार पर पद से हटाने के लिए महाभियोग प्रस्ताव पेश किया गया था. हालांकि यह प्रस्ताव लोकसभा में ही पारित नहीं हो सका था.


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इसके बाद साल 2011 में कलकत्ता हाई कोर्ट के न्यायाधीश सौमित्र सेन के खिलाफ ऐसा ही प्रस्ताव राज्यसभा सदस्यों ने पेश किया था. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति बी सुधाकर रेड्डी की अध्यक्षता वाली जांच समिति ने उन्हें अमानत में खयानत का दोषी पाया था. जांच समिति की रिपोर्ट के आधार पर ही उन्हें कदाचार के आरोप में पद से हटाने के लिए पेश प्रस्ताव को राज्यसभा ने 18 अगस्त, 2011 को पारित कर दिया. इस प्रस्ताव पर लोकसभा में बहस शुरू होने से पहले ही न्यायमूर्ति सेन ने एक सितंबर, 2011 को अपने पद इस्तीफा दे दिया. हालांकि उन्होंने राष्ट्रपति को भेजे त्यागपत्र में कहा था, ‘‘मैं किसी भी तरह के भ्रष्टाचार का दोषी नहीं हूं.’’


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इसके बाद कर्नाटक हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पीडी दिनाकरण पर भी पद का दुरूपयोग करके जमीन हथियाने और बेशुमार संपत्ति अर्जित करने जैसे कदाचार के आरोप लगे थे. इस मामले में भी राज्यसभा के ही सदस्यों ने उन्हें पद से हटाने के लिए कार्यवाही के लिए याचिका दी थी. इस मामले में काफी दांव पेंच अपनाए गए.


न्यायमूर्ति दिनाकरण ने जनवरी, 2010 में गठित जांच समिति के एक आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी. बाद में अगस्त 2010 में सिक्किम हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किए गए न्यायमूर्ति दिनाकरण ने इसमें सफलता नहीं मिलने पर 29 जुलाई, 2011 को अपने पद से इस्तीफा दे दिया. इस तरह उन्हें महाभियोग की प्रक्रिया के जरिए पद से हटाने का मामला वहीं खत्म हो गया.


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इसके बाद, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट के न्यायाधीश सी वी नागार्जुन रेड्डी और गुजरात हाई कोर्ट के न्यायाधीश जे बी पार्दीवाला के खिलाफ भी महाभियोग की कार्यवाही के लिए राज्यसभा में प्रतिवेदन दिए गए. न्यायमूर्ति पार्दीवाला के खिलाफ तो उनके 18 दिसंबर, 2015 के एक फैसले में आरक्षण के संदर्भ में की गयी टिप्पणियों को लेकर यह प्रस्ताव दिया गया था. लेकिन मामले के तूल पकड़ते ही न्यायमूर्ति पार्दीवाला ने 19 दिसंबर को इन टिप्पणियों को फैसले से निकाल दिया था.


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मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के न्यायाधीश एस के गंगले के खिलाफ साल 2015 में एक महिला न्यायाधीश के यौन उत्पीडन के आरोप में राज्यसभा के सदस्यों ने महाभियोग प्रस्ताव का नोटिस सभापति को दिया था. इस प्रतिवेदन के आधार पर न्यायाधीश जांच कानून के प्रावधान के अनुरूप समिति गठित होने के बावजूद न्यायमूर्ति गंगले ने इस्तीफा देने की बजाय जांच का सामना करना उचित समझा. दो साल तक चली जांच में यौन उत्पीड़न का एक भी आरोप साबित नहीं हो सकने की वजह से महाभियोग प्रस्ताव सदन में पेश नहीं हो सका.