नई दिल्ली: सरदार वल्लभ भाई पटेल की आज जयंती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज उनकी प्रतिमा का अनावरण किया है. ये दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा है. बहस ये चल रही है कि क्या मौजूदा सरकार मूर्ति के जरिए सरदार पटेल की विरासत से कांग्रेस को बेदखल कर रही है? वैसे सरदार पटेल की विरासत क्या है?


सवाल कई और भी उठाए जाते रहे हैं. 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ. जवाहरलाल नेहरू आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री बने. क्या उस समय प्रधानमंत्री पद के असली हकदार नेहरू की बजाय सरदार पटेल थे ? क्या सरदार वल्लभभाई पटेल प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहते थे ? क्या सरदार पटेल को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया गया ? 1947 में इस पद के लिए नेहरू का चुनाव कैसे हुआ ? जो अब तक हम पढ़ते-सुनते आए हैं कहीं वह इतिहास का इकतरफा आंकलन तो नहीं है .


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इस तरह के बहुत और सवाल हैं जिनका जवाब सरदार पटेल के जीवन के आखिरी चार सालों में ढूंढ़ा जा सकता है. इस दौर में सरदार ने ज्यादातर समय सरकार में बिताया. सरदार पटेल की असली विरासत को जानने समझने के लिए ये दौर बहुत अहम है.


साल 1945 में दूसरा विश्व युद्ध खत्म होने के बाद ब्रिटिश हुकूमत में इतनी ताकत नहीं बची थी कि वह भारत को गुलाम रख सके. ऐसी स्थिति में लगभग ये तय हो गया था कि आने वाले दो तीन सालों में भारत को आजादी मिल जाएगी. 1946 में ब्रिटिश सरकार ने कैबिनेट मिशन प्लान बनाया. इस प्लान को आसान शब्दों में समझें तो कुछ अंग्रेज अधिकारियों को ये जिम्मेदारी मिली कि वे भारत की आजादी के लिए भारतीय नेताओं से बात करें. फैसला ये हुआ कि भारत में एक अंतरिम सरकार बनेगी .


अंतरिम सरकार के तौर पर वॉयस रॉय की एक्जिक्यूटिव काउंसिल बननी थी. अंग्रेज वॉयस रॉय को इसका अध्यक्ष होना था जबकि कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष को इस काउंसिल का वाइस प्रेसिडेंट बनना था . आगे चलकर आजादी के बाद वाइस प्रेसिडेंट का प्रधानमंत्री बनना भी लगभग तय था.


जब ये बातें चल रही थीं तब मौलाना अबुल कलाम आजाद कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष थे. वो इस पद पर 1940 से ही बने हुए थे. मौलाना आजाद इस वक्त पर पद नहीं छोड़ना चाहते थे, लेकिन महात्मा गांधी के दबाव में वे पद छोड़ने के लिए राजी हुए और फिर शुरू हुई नए अध्यक्ष की खोज. यानी आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री की खोज. कांग्रेस अध्यक्ष की प्रक्रिया शुरु हुई.



अप्रैल 1946 का महीना था. कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक बुलाई गई. बैठक हो तो रही थी पार्टी के नए अध्यक्ष का नाम तय करने के लिए लेकिन असलियत में आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री का नाम तय होने जा रहा था. बैठक में महात्मा गांधी, नेहरू, सरदार पटेल, आचार्य कृपलानी, राजेंद्र प्रसाद, खान अब्दुल गफ्फार खान के साथ कई बड़े कांग्रेसी नेता शामिल थे. बैठक में तब पार्टी के महासचिव आचार्य जे बी कृपलानी ने कहा ‘बापू ये परपंरा रही है कि कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव प्रांतीय कांग्रेस कमेटियां करती हैं, किसी भी प्रांतीय कांग्रेस कमेटी ने जवाहरलाल नेहरू का नाम अध्यक्ष पद के लिए प्रस्तावित नहीं किया है. 15 में से 12 प्रांतीय कांग्रेस कमेटियों ने सरदार पटेल का और बची हुई तीन कमेटियों ने मेरा और पट्टाभी सीतारमैया का नाम प्रस्तावित किया है.


जे बी कृपलानी की बातों का मतलब साफ था कि कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सरदार पटेल के पास बहुमत है वहीं जवाहर लाल नेहरू का नाम ही प्रस्तावित नहीं था. ये बात उस समय तक जगजाहिर हो चुकी थी कि महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू को भारत के प्रधानमंत्री के तौर पर देखना चाहते थे. मौलाना आजाद को जब पद से हटने के लिए कहा तब भी उन्होंने यह बात छुपाई नहीं थी . इस अहम बैठक से कुछ दिन पहले ही बापू ने मौलाना को लिखा था कि “अगर मुझसे पूछा जाए तो मैं जवाहरलाल को ही प्राथमिकता दूंगा. मेरे पास इसकी कई वजह हैं. अभी उसकी चर्चा क्यों की जाये ?”


महात्मा गांधी के इस रुख के बावजूद 1946 के अप्रैल महीने में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में चर्चा के लिए भी जवाहर लाल नेहरू का नाम प्रस्तावित नहीं हुआ . आखिरकार आचार्य कृपलानी को कहना पड़ा, “ बापू की भावनाओं का सम्मान करते हुए मैं जवाहरलाल का नाम अध्यक्ष पद के लिए प्रस्तावित करता हूं.” ये कहते हुए आचार्य कृपलानी ने एक कागज पर जवाहरलाल नेहरू का नाम खुद से प्रस्तावित कर दिया. कई दूसरे वर्किंग कमेटी के सदस्यों ने भी इस कागज पर अपने हस्ताक्षर किए. ये कागज बैठक में मौजूद सरदार पटेल के पास भी पहुंचा. उन्होंने भी उस पर हस्ताक्षर कर दिए यानी अध्यक्ष पद के लिए नेहरू के नाम को प्रस्तावित किया गया. बात यहीं नहीं रुकी जवाहरलाल नेहरू का नाम ही प्रस्तावित हुआ था. पार्टी की सहमति नहीं मिली थी. सबसे बड़ी बात सरदार पटेल की सहमति नहीं मिली थी.


महासचिव जे बी कृपलानी ने एक और कागज लिया. उस कागज पर उन्होंने सरदार पटेल को उम्मीदवारी वापस लेने का जिक्र किया और उसे सरदार पटेल की तरफ हस्ताक्षर के लिए बढ़ा दिया. बैठक में जे बी कृपलानी साफ साफ सरदार पटेल को कह रहे थे कि जवाहरलाल को अध्यक्ष बनने दें और वो भी निर्विरोध. सरदार पटेल ने उस कागज को पढ़ा लेकिन उस पर हस्ताक्षर नहीं किए. उस कागज को पटेल ने महात्मा गांधी की तरफ बढ़ा दिया. अब फैसला महात्मा गांधी को करना था. महात्मा गांधी के सामने उनके दो सबसे विश्वसनीय सेनापति बैठे थे.


महात्मा गांधी ने भरी बैठक में जवाहरलाल नेहरू से प्रश्न किया ‘जवाहरलाल किसी भी प्रांतीय कांग्रेस कमेटी ने तुम्हारा नाम प्रस्तावित नहीं किया है, तुम्हारा क्या कहना है.’ ये सवाल पंडित जवाहरलाल नेहरू के लिए सबसे मुश्किल सवाल था. ये सवाल सुनते ही उनके चेहरे का रंग उड़ गया वे चुप हो गए. इस सवाल का जवाहरलाल नेहरू ने कोई उत्तर नहीं दिया. वे चुप रहे. भरी बैठक में महात्मा गांधी का ये सवाल जवाहरलाल को ये मौका दे रहा था कि वे सरदार पटेल के प्रति समर्थन का सम्मान करें. उनकी चुप्पी ने सरदार पटेल के पक्ष में आए भारी समर्थन को एक किनारे कर दिया. महात्मा गांधी फिर से एक बार मुश्किल में थे. एक तरफ उनके सामने सरदार पटेल के समर्थन में पूरी पार्टी खड़ी थी और दूसरी तरफ नेहरू की चुप्पी. उन्हें चु्प्पी और समर्थन में से एक को चुनना था.


जब सवाल कठिन हो तो जरूरी नहीं उसका जवाब मौखिक हो. स्पष्टता के लिए बहुत बार भाषा रूकावट पैदा कर देती है ऐसे कठिन समय में जवाहरलाल की चुप्पी ने भारत के भविष्य का रुख मोड़ दिया. नेहरू की चुप्पी को देखते हुए महात्मा गांधी ने सरदार पटेल की तरफ कागज बढ़ा कर हस्ताक्षर करने के लिए कहा. सरदार पटेल ने महात्मा गांधी के निर्णय का कोई विरोध नहीं किया. सरदार ने अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली.


सरदार उस वक्त 70 साल के थे. वे जानते थे कि आजाद भारत को नेतृत्व देने का ये उनके पास आखिरी मौका है. राजमोहन गांधी ने अपनी किताब ‘पटेल - ए लाइफ’ में लिखा है कि और कोई वजह हो न हो इससे पटेल जरूर आहत हुए होंगे. वहीं महात्मा गांधी ने जवाहरलाल को सवाल पूछ कर अपनी उम्मीदवारी वापस लेने का मौका दिया उससे पटेल की चोट पर मलहम लगी.


वैसे महात्मा गांधी ने सरदार के साथ ऐसा क्यों किया? इस पर भी खूब चर्चा होती है. पहली बात तो भरोसे की थी, कि आखिर कौन महात्मा की बात को मानेगा. दिल्ली यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर संजीव तिवारी का कहना है कि महात्मा गांधी को भरोसा था कि वे सरदार पटेल को कुछ भी कहेंगे वे कभी मना नहीं करेंगे लेकिन नेहरू के मामले में ऐसा नहीं था.


पंडित जवाहरलाल नेहरू के चुने जाने के बाद भी महात्मा गांधी को भरोसा था कि देश को सरदार पटेल की सेवा मिलती रहेगी लेकिन नेहरू इस वक्त पर दूसरे नंबर पर रह कर सरकार में काम करने के लिए तैयार नहीं थे. पटेल भी इस बात को जानते थे कि जवाहर लाल दूसरे नंबर का पद नहीं लेंगे और मुमकिन था कि अगर सरदार पटेल पार्टी की राय के मुताबिक अध्यक्ष और आगे चल कर प्रधानमंत्री बन जाते तो नेहरू उनका साथ नहीं देते. वल्लभ भाई के मुताबिक पद में रह कर जवाहर लाल उदार हो पाएंगे जबकि अध्यक्ष पद नहीं मिलने से वे विपक्ष में चले जाते. राजमोहन गांधी के मुताबिक सरदार पटेल उस नाजुक वक्त में इस तरह के हालात पैदा नहीं करना चाहते थे जो देश को बांटे.


कांग्रेस पार्टी के भीतर, सरदार पटेल की जबरदस्त पकड़ थी. यही वजह थी कि पार्टी में ज्यादातर लोग सरदार को प्रधानमंत्री के रुप में देखना चाहते थे. कांग्रेस पार्टी में उनकी पकड़ के बारे में ‘यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया’ में इतिहास के प्रोफेसर विनय लाल का कहना है कि “पटेल पार्टी के भीतर सरदार की भूमिका में थे. समय समय पर कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष बदलते रहे लेकिन कांग्रेस पार्टी में संगठनात्मक रूप से सबसे मजबूत पकड़ सरदार पटेल की ही रही.” दिल्ली के अंबेडकर यूनिवर्सिटी के प्रो. वाइस चांसलर डॉ. सलिल मिश्रा का भी यही मानना है. “संगठन पर पकड़ के मामले में उनका कोई सानी नहीं था. वे बॉम्बे प्रेजीडेंसी से आते थे. उन्हें पार्टी का पर्स कहा जाता था यानी पैसों के मामले में हमेशा सरदार पटेल के बिना कुछ नहीं होता था.”


वैसे दूसरे माने या न माने, सरदार पटेल खुद ये मानते थे कि जवाहर लाल नेहरू लोगों के बीच में बहुत लोकप्रिय हैं. 1946 के आसपास की बात है. मुंबई में कांग्रेस की बहुत बड़ी मीटिंग हुई थी मैदान में तकरीबन डेढ़ लाख लोग मौजूद थे. वहां सरदार पटेल के पास एक अमेरिकी पत्रकार भी मौजूद थे. उन्होंने देखा कि लाखों लोग आए हैं. सरदार पटेल ने उनकी तरफ देखकर कहा कि ये सब लोग मेरे लिए नहीं आए हैं ये सब लोग जवाहर के लिए आए हैं.

कांग्रेस पार्टी में भारी समर्थन मिलने के बाद भी महात्मा गांधी ने सरदार पटेल को क्यों नहीं चुना. इसका जवाब एक साल बाद महात्मा गांधी ने खुद उस समय के वरिष्ठ पत्रकार दुर्गा दास को दिया. इसका जिक्र पत्रकार दुर्गादास ने अपनी किताब ‘कर्जन टू नेहरू एंड आफ्टर’ में किया है. महात्मा गांधी ने उन्हें बताया कि जवाहरलाल नेहरू बतौर कांग्रेस अध्यक्ष अंग्रेजी हुकूमत से बेहतर तरीके से समझौता वार्ता कर सकते थे. पत्रकार दुर्गादास ने जब महात्मा गांधी से पूछा कि क्या आपको सरदार पटेल की लीडरशिप पर शक है तो गांधी जी ने मुस्कुराते हुए कहा कि हमारे कैंप में जवाहरलाल नेहरू अकेला अंग्रेज है. वो कभी सरकार में दूसरे नंबर का पद नहीं लेगा. महात्मा गांधी को ऐसा लगता था कि जवाहरलाल अंतर्राष्ट्रीय मामलों में भारत का प्रतिनिधित्व सरदार पटेल से बेहतर कर पाएंगे. आखिर में उन्होंने कहा कि सरकार अगर बैलगाड़ी है तो जवाहरलाल और सरदार उसके दो बैल हैं. दोनों का होना जरूरी है, बिना दोनों के सरकार नहीं चलाई जा सकती. सरदार पटेल भारत के आंतरिक मामलों की जिम्मेदारी उठाएंगे.

सरदार पटेल के मित्र और संविधान सभा के अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद ने कहा कि ग्लैमरस नेहरू के लिए महात्मा गांधी ने अपने विश्वासी साथी की बलि चढ़ा दी. इस बात का जिक्र भी पत्रकार दुर्गादास ने महात्मा गांधी से किया. इसका कोई सीधा जवाब महात्मा गांधी के पास नहीं था. महात्मा गांधी ने भारत की डोर जवाहरलाल के हाथों में दे दी. नेहरू 1946 में कांग्रेस पार्टी में मौलाना अबुल कलाम आजाद की जगह अध्यक्ष बन रहे थे. मौलाना आजाद इस पद पर 1940 से काबिज थे.

जब कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव हो रहा था उस समय क्या स्थिति थी इसका पूरा ब्यौरा मौलाना अबुल कलाम आजाद ने अपनी किताब ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में दिया है. उन्होंने लिखा ‘मैंने उस वक्त के हालात को देखते हुए फैसला किया लेकिन आगे चलकर घटनाओं ने जो मोड़ लिया उससे लगता है कि वो मेरी राजनीतिक जिंदगी का सबसे गलत फैसला था. मैंने अपने किसी भी फैसले पर इतना पछतावा नहीं किया जितना उस मुश्किल समय में अध्यक्ष पद को छोड़ने पर हुआ.'

मौलाना अबुल कलाम आजाद के सरदार पटेल से कई मतभेद रहे लेकिन सरदार पटेल के अध्यक्ष नहीं बनने पर उन्हें पछतावा हुआ, अपनी किताब में इस बारे में भी उन्होंने लिखा ‘मेरी दूसरी गलती ये थी कि जब मैंने अध्यक्ष पद छोड़ने का फैसला किया तब मैंने सरदार पटेल का समर्थन नहीं किया. बहुत सारे मुद्दों पर हम दोनों की अलग राय थी लेकिन मुझे यकीन है कि सरदार पटेल वो गलतियां नहीं करते जो जवाहरलाल नेहरू ने की’. ये भी बहस का मुद्दा है कि अगर सरदार पटेल आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री होते तो क्या होता ?