साल 1946, भारत में ब्रिटेन के कैबिनेट मिशन प्लान के तहत अंतरिम सरकार बनाने की तैयारियां चल रही थी. इसी साल अप्रैल महीने में कांग्रेस पार्टी ने जवाहरलाल नेहरू को अपने नए अध्यक्ष के रूप में चुना. 2 सितंबर 1946 के दिन नेहरू की अगुवाई में अंतरिम सरकार का गठन हुआ जिसे वायस रॉय की एक्जिक्यूटिव काउंसिल कहा गया. सरदार पटेल इस सरकार में गृह और सूचना एंव प्रसारण मंत्री बने. इस समय देश का माहौल पूरी तरह से सांप्रदायिक हो चुका था. देश दंगो की आग में झुलस रहा था. इसकी एक बड़ी वजह जिन्ना और मुस्लिम लीग थी.


मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने सितंबर 1946 में डायरेक्ट एक्शन प्लान की घोषणा की यानि सीधी कार्रवाई. इसका मकसद बलपूर्वक भारत की बजाय एक अलग मुल्क पाकिस्तान को हासिल करना था. डायरेक्ट एक्शन प्लान की वजह से ही पूरे देश में दंगों की आग भड़की. दरअसल, जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग पार्टी इसके लिए मौके का इंतजार कर रही थी. जिन्ना को मौका तब मिला जब नेहरू ने साल 1946 में अध्यक्ष बनने के बाद कहा, "कैबिनेट मिशन ने जिस तरह से शक्तियों की कल्पना की है, केंद्र सरकार को उससे कहीं ज्यादा मजबूत होना चाहिए".


जिन्ना तुरंत वादाखिलाफी का आरोप लगाने लगे. इस मसले पर सरदार पटेल भी नेहरू से सहमत थे लेकिन वो इस मामले में किसी तरह की बयानबाजी के लिए तैयार नहीं थे. सरदार ने अपने करीबी डीपी मिश्रा को एक चिठ्ठी लिखी. जिसमें उन्होंने कहा, "हालांकि नेहरू चौथी बार कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए हैं. वे अक्सर मासूम बच्चों की तरह काम कर देते हैं. उनकी तमाम मासूम गलतियों के बावजूद उनके अंदर आजादी के लिए गजब का जज्बा और उत्साह है. यही उत्साह और जज्बा उन्हें बेसब्र बना देता है जिसके चलते वे अपने आप को भूल जाते हैं. विरोध होने पर वे पागल हो जाते हैं क्योंकि वे उतावले हैं."


जिन्ना के ऐलान के बाद शुरू हुआ कत्लेआम
बहरहाल वल्लभ भाई पटेल जब तक स्थिति संभालते जिन्ना ने आरपार की लड़ाई का ऐलान कर दिया. 16 अगस्त 1946 का दिन था. जिन्ना ने अलग पाकिस्तान की मांग के साथ 'डायरेक्ट एक्शन प्लान' की घोषणा कर दी. इस घोषणा के बाद देश में हिंदू- मुस्लिम दंगे भड़क गए. अकेले कलकत्ता शहर में हजारों लोग मारे गए, लाखों लोग बेघर हो गए. नौआखली में भी भारी कत्लेआम हुआ. धीरे-धीरे देश को इन दंगो ने अपनी गिरफ्त में ले लिया. हिंदू- मुस्लिम एकता के सबसे बड़े नाम महात्मा गांधी को इससे धक्का लगा. महात्मा गांधी के लिए सबसे जरूरी काम इन दंगों को रोकना था. महात्मा गांधी दंगों से सबसे ज्यादा प्रभावित इलाके नौआखली के तरफ रवाना हुए.


सरदार ने कहा तलवार उठाने वालों का जवाब तलवार से दिया जाएगा
इन दंगों से सरदार पटेल काफी आहत हुए. नवंबर 1946 के मेरठ अधिवेशन में सरदार पटेल ने पाकिस्तान की मांग करने वाले लोगों पर जोरदार हमला बोला. उन्होंने कहा, "आप जो करें उसे शांति और प्रेम के साथ करें, आपको सफलता मिलेगी लेकिन अगर कोई तलवार उठाएगा तो उसका जवाब भी तलवार से दिया जाएगा".



इस भाषण की काफी चर्चा हुई. उनके बातों से नाराज महात्मा गांधी ने 30 दिसंबर 1946 को नौआखली से उन्हें चिठ्ठी लिखी. बापू ने लिखा, "मुझे आपके बारे में कई शिकायतें मिली हैं. आपके भाषण भड़काऊ हैं. आप हिंसा और अहिंसा में कोई फर्क नहीं कर पा रहे हैं और आप लोगों को तलवार का जवाब तलवार से देने की बात सिखा रहे हैं. अगर ये बातें सही हैं तो इससे बहुत नुकसान होगा".


7 जनवरी 1947 को सरदार पटेल ने बापू की चिठ्ठी का जवाब दिया. उन्होंने लिखा, "हिंसा के जवाब में हिंसा वाले बयान को मेरे बड़े भाषण में से निकाल कर, तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया है... मृदुला साराभाई ने जरूर ये शिकायत की होगी. मुझे नीचा दिखाना उनका काम बन गया है. मैं उनकी इन हरकतों से परेशान हो गया हूं. मृदुला इस बात को बर्दाश्त नहीं कर पाती कि कोई भी व्यक्ति जवाहरलाल की बातों से असहमत हो" सरदार पटेल को ये मालूम था कि कुछ लोग लगातर उनके बारे में बापू को शिकायतें लगा रहे हैं. वैसे महात्मा गांधी ने सरदार पटेल को ये चिट्टी तब लिखी थी जब जवाहर लाल नेहरू नोआखली में ही थे.


जब सरदार ने कहा "मैं दिल्ली को लाहौर नहीं बनने दूंगा"
पूरे देश में मुस्लिम लीग ने माहौल को सांप्रदायिक बना दिया था. ऐसे में भारत 15 अगस्त 1947 को आजाद तो हुआ लेकिन पाकिस्तान के साथ. मुस्लिम लीग जिस पाकिस्तान की मांग कर रही थी वो उन्हें मिल गया था. महात्मा गांधी भारत विभाजन के खिलाफ थे. जब देश का विभाजन हुआ तो लाखों की संख्या में लोगों ने एक देश से दूसरे देश में अदला बदली की. 1947 के अगस्त महीने में दंगे अपने चरम पर पहुंच गए. पश्चिमी पंजाब जो पाकिस्तान का हिस्सा बन चुका था वहां बड़ी संख्या में गैर-मुस्लिम मारे जा रहे थे जिसकी वजह से सरदार पटेल दुखी थे.


सरदार पटेल ने जवाहरलाल नेहरू को इस बारे में चिठ्ठी लिखी. उन्होंने लिखा, "जिस तरह से पाकिस्तान में गैरमुस्लिमों को मारा जा रहा है उससे भारत में माहौल बिगड़ रहा है. सड़कों पर आम मुस्लमानों का चलना मुहाल हो गया है. अगर पाकिस्तान कोई कार्रवाई नहीं करता तो हालात बेकाबू हो जाएंगे" सरदार पटेल को जिस बात का डर था वही हुआ.


5 सिंतबर 1947 को दिल्ली में दंगे भड़क गए. सरदार पटेल नहीं चाहते थे कि जिस तरह पाकिस्तान में हिंदू मारे जा रहे हैं उसी तरह भारत में मुस्लिम मारे जाएं. उन्होंने नेहरू से कहा "मैं दिल्ली को लाहौर नहीं बनने दूंगा". इस बात का उन्होंने पालन भी किया. उन्होंने दंगाइयों पर गोली चलाने के निर्देश दिए. इस गोलीबारी में चार दंगाई मारे गए और वे सभी हिंदू थे.


जब निजामुद्दीन ऑलिया की दरगाह पर सरदार पटेल ने सर नवाया
इसी समय खबरें आ रही थी कि दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में रहने वाले मुस्लिम परिवारों पर हमले हो रहे हैं. सरदार पटेल के पर्सनल सेक्रेटरी वी शंकर ने इस इलाके में रह रहे मुसलमानों की सुरक्षा को लेकर चिंता के बारे में अपनी किताब में लिखा है “दरगाह के पास रह रहे लोगों में डर का माहौल था. सरदार ने अपनी शाल को गले पर लपटेते हुए कहा- इससे पहले की ऑलिया नाराज हो जाएं चलो दरगाह चलते हैं. हम वहां बिना लाव-लश्कर के पहुंचे. सरदार ने 45 मिनट वहां बिताए. पवित्र स्थान के आसपास घूमे. ऑलिया की दरगाह पर सर नवाया और लोगों से बातचीत की. सरदार साहब ने एरिया के पुलिस ऑफिसर को साफ शब्दों में कहा कि अगर यहां कुछ भी गड़बड़ हुई तो उसकी सारी जिम्मेदारी तुम्हारी होगी और तुम्हारी नौकरी नहीं बचेगी".


दंगों की खबर सुनकर अमृतसर पहुंचे सरदार पटेल
सरदार वल्लभ भाई पटेल की निगाह में सब बराबर थे. किसी को बख्शने के लिए वो तैयार नहीं थे और साथ ही किसी को खास तरजीह भी नहीं देना चाहते थे. विभाजन के बाद लाखों की संख्या में लोग पाकिस्तान की तरफ रवाना हो रहे थे. 1947 के सितंबर महीने में उन्हें सूचना मिली की भारत से पाकिस्तान जा रहे मुसलमानों के काफिलों को रास्ते में रोकने और मारने की तैयारी हो रही है. दंगे रोकने के लिए सरदार पटेल सीधा अमृतसर पहुंच गए. वहां पहुंचने पर गुस्साई भीड़ ने उन्हें घेर लिया जिसके बाद पटेल ने भीड़ को संबोधित किया. अमृतसर में सरदार पटेल ने प्रभावशाली भाषण दिया.


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पटेल ने कहा, "इसी अमृतसर शहर में हिंदू, सिख और मुसलमानों के खून से जलियावाला बाग रंगा था. मुझे ये सोचकर अपार दुख हो रहा है कि इसी अमृतसर में हालात ऐसे हो गए हैं कि कोई भी मुस्लिम यहां घर से बाहर नहीं निकल सकता और लाहौर में हिंदू और सिख नहीं रह सकते. निरअपराध, निहत्थे और निरीह बच्चों, औरतों और पुरुषों को मारना बहादुर कौम की निशानी नहीं है". इसी के साथ सरदार पटेल ने लोगों से अपील की कि वे इस शहर से गुजर रहे मुसलमान शरणार्थियों की रक्षा करें. उनके इस अपील का शहर में अच्छा खासा असर हुआ जिसके बाद शहर में मुसलमानों पर हमले बंद हो गए.


क्यों दिल्ली के डिप्टी कमिश्नर पर भरोसा नहीं कर रहे थे मुसलमान
सितंबर 1947 में जब सांप्रदायिक हिंसा अपने चरम पर थी तब दिल्ली के सिख डिप्टी कमिश्नर एम एस रंधावा पर सांप्रदायिक होना का आरोप लगा. गृहमंत्री होने के चलते जवाहरलाल नेहरू ने रंधावा के तबादले की बात पटेल से की लेकिन पटेल ने साफ मना कर दिया. मौलाना अबुल कलाम आजाद ने सरदार पटेल को कहा कि रंधावा पर मुस्लिम भरोसा नहीं कर रहे हैं. उनका तबादला जल्द कर देना चाहिए. इसके जवाब में पटेल ने कहा, "आपने मुझे अपनी इच्छा बताई है, लेकिन फैसला मुझे करना है. मैं आपको बता दूं.. इस तरह के तबादलों के परिणाम बहुत गंभीर होते हैं"


विभाजन के बाद खाली घरों पर अधिकार को लेकर हुए मतभेद
देश का जब बंटवारा हुआ तो लाखों की संख्या में मुस्लिम लोग पाकिस्तान जा रहे थे और गैर-मुस्लिम भारत आ रहे थे. भारत में मुस्लिमों के खाली घरों पर किसका अधिकार हो इसे लेकर कैबिनेट में मतभेद हुए. कैबिनेट चाहती थी कि मुसलमानों को ये खाली घर दिए जाने चाहिए वहीं सरदार पटेल का मानना था कि पाकिस्तान से आए गैर-मुस्लिमों का इन पर पहला अधिकार है.


साथ ही ये हवा उड़ाई गई कि सरदार भारत के पंजाब के साथ-साथ दिल्ली, पश्चिम उत्तर प्रदेश और देसी रियासत... अल्वर और भरतपुर की भी मुसलमान आबादी को पाकिस्तान भेजना चाहते हैं . महात्मा गांधी ने जब ये सवाल पूछा तो पटेल ने इससे इंकार किया लेकिन साथ ही जोड़ा कि जो मुसलमान भारत के प्रति वफादार नहीं हैं उन्हें पाकिस्तान जाना चाहिए .


क्या नेहरू, सरदार पटेल को कैबिनेट में देखना नहीं चाहते थे
इसी दौरान सरदार पटेल को लगने लगा था कि जवाहरलाल और मौलाना आजाद उनको कैबिनेट में देखना नहीं चाहते. साल 1947 के आखिरी दिनों में आखिरकार गांधी ने पटेल से सीधी बात की. महात्मा गांधी ने पटेल से कहा कि या तो आप सरकार चला लें या जवाहर को चलाने दें. सरदार पटेल ने जवाब देते हुए कहा कि अब मुझ में उतनी शक्ति नहीं है, जवाहरलाल मुझसे उम्र में काफी छोटे हैं. उन्हें सरकार चलाने दें. बाहर से जितनी मदद में कर पाऊंगा.. करूंगा. इस बातचीत के बाद महात्मा गांधी को फैसला करना था कि सरदार कैबिनेट में रहेंगे या नहीं लेकिन बापू ने कोई फैसला नहीं किया.


जब पटेल ने मुसलमानों से कहा दो घोड़ों की सवारी ना करें
अलग पाकिस्तान बनने के बाद मुस्लिम लीग देश में सांप्रदायिक माहौल बनाने में लगी हुई थी. पाकिस्तान के समर्थन में प्रचार किया जा रहा था. ऐसे में सरदार पटेल ने लखनऊ के अपने भाषण में उन लोगों पर जोरदार हमला बोला जो पाकिस्तान का समर्थन कर रहे थे. उन्होंने कहा, "मुस्लिम लीग के समर्थक महात्मा गांधी को अपना दुश्मन नंबर एक बताते थे और अब वो गांधी जी को अपना दोस्त कह रहे हैं. मैं क्योंकि खरी-खरी बात कहता हूं तो दुश्मन नंबर एक हो गया हूं. वो सोचते थे कि अगर पाकिस्तान बन जाएगा तो उन्हें पूरी सुरक्षा मिलेगी लेकिन क्या कभी उन्होंने भारत में रह रहे मुस्लमानों के बारे में बात की है. मुसलमानों के लिए मेरा बस एक सवाल है कि वे क्यों कश्मीर मुद्दे पर अपना मुंह नहीं खोलते. कश्मीर में पाकिस्तान की कार्रवाई की निंदा क्यों नहीं करते.


सरदार पटेल ने लखनऊ के भाषण में वो बात कही जिसकी सबसे ज्यादा चर्चा हुई. उन्होंने कहा, "मैं बहुत साफ-साफ कहना चाहता हूं कि दो घोड़ों की सवारी मत कीजिए, एक घोड़ा चुन लीजिए. जो पाकिस्तान जाना चाहते हैं वे जा सकते हैं और शांति से रह सकते हैं". सरदार पटेल अपने भाषण में साफ शब्दों में कह रहे थे कि पाकिस्तान का समर्थन करने वाले लोगों को पाकिस्तान चले जाना चाहिए.


अंबेडकर यूनिवर्सिटी के प्रो वाइस चांसलर सलिल मिश्रा इस भाषण को व्यवहारिक मानते हैं. वे कहते हैं "सरदार पटेल इस देश की मुस्लिम जनता से कह रहे थे कि एक नया माहौल है, हमें आजादी मिल गई है, अलग पाकिस्तान बन गया है, हम चाह रहे हैं कि एक सेक्यूलर देश का निर्माण करें. इसमें सबको योगदान देना होगा. वे एक तरह से देश के मुस्लिमों से ये अपील कर रहे थे कि आप लोगों की वफादारी भारत के प्रति है और इस वफादारी को खुलकर कहना चाहिए. जबकि नेहरू का मानना था कि किसी भी जनता से एक टेस्ट ऑफ लॉयल्टी लेना अच्छी बात नहीं है. हमें ये मान कर चलना चाहिए कि सारे लोग देश के प्रति वफादार हैं, नेहरू मानते थे कि किसी एक खास वर्ग से ये टेस्ट नहीं मांगना चाहिए". आखिर में सलील मिश्रा कहते हैं कि नेहरू और सरदार पटेल में बेसिक पॉजिशन को लेकर मतभेद नहीं थे लेकिन दोनों के मिजाज अलग थे.


राजमोहन गांधी अपनी किताब 'पटेल ए लाइफ' में लिखते हैं कि सरदार पटेल दिल से हिंदू थे लेकिन जब प्रशासन चलाने की बात हो तो वहां उनके लिए सब धर्म एक बराबर थे. वे किसी भी स्थिति में किसी खास धर्म को तरजीह देने के लिए तैयार नहीं थे.