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Nari Shakti: कागज पर बयां किया बंटवारे का दर्द, औरतों के गम को लफ्जों में उतारने वाली अमृता प्रीतम को जानिए

Independence Day 2022:अमृता प्रीतम (Amrita Pritam) एक ऐसी साहित्यकार रहीं, जिनकी रचनाओं में भारत (India) के बंटवारे का दर्द झलकता हैं तो अपने हकों के लिए मुखर होती एक स्त्री की आवाज भी सुनाई पड़ती है.

Nari Shakti  Amrita Pritam: गमों से हार न मानकर उन्हें जिंदगी के संघर्षों से लड़ने का हथियार बना लेने का नाम है अमृता प्रीतम (Amrita Pritam). तभी तो दुनिया से रूखस्ती के बाद भी वो अपनी रचनाओं में मुखर होती दिखतीं हैं. उन्होंने भारत के बंटवारे (Partition Of India ) के दर्द को और उससे भी ज्यादा उस दौर में तन-मन से कई टुकड़ों में बंट गईं औरतों के गम को जैसे लफ्जों में उतार डाला हो. एक तरह से उन्होंने अपनी रचना से उस अनकहे दर्द को आवाज दे दी थी. उनकी ‘अज्ज आखाँ वारिस शाह नूँ’ कविता उसी दर्द का दस्तावेज पेश करती है. अमृता का जिक्र जब भी किया जाता है, वो एक नया सा रोमांच और रोमांस पैदा करता है. नारी शक्ति (Nari Shakti) की आज की कड़ी पंजाबी भाषा की पहली कवयित्री मानी जाने वाली उसी अमृता प्रीतम के नाम हैं, जिसने समाज के दोहरे चेहरे को अपने लेखन से सामने ला दिया.

बचपन से ही संघर्षों ने थामा दामन

एक तरह से देखा जाए तो 31 अगस्त 1919 को पंजाब के गुंजरांवाला (अब पाकिस्तान में) में जन्मी अमृता प्रीतम की जिंदगी का सफर संघर्षों का जीवंत दस्तावेज हैं. स्कूल टीचर राज बीबी और बृजभाषा के विद्वान, कवि, सिख धर्म के प्रचारक करतार सिंह हितकारी की वो इकलौती संतान थीं. 11 साल की उम्र में ही अमृता के सिर से मां का साया उठ गया. इसके बाद उनके पति करतार और अमृता लाहौर चले गए. साल 1947 में पाक से भारत आने तक वह लाहौर ही रहीं.

मां के न होने से अकेलापन सालता और कच्ची उम्र में बड़ों सरीखी जिम्मेदारी निभाते हुए बेहद कम उम्र में अमृता का झुकाव लेखन की तरफ हो गया. 16 साल की उम्र में उनकी कविताओं का पहला संकलन अमृत लेहरान ("अमर लहरें") 1936 में प्रकाशित हुआ. उन्होंने तभी बचपन से अपने साथ जुड़े संपादक प्रीतम सिंह से शादी की और उनका नाम अमृत कौर से अमृता प्रीतम हो गया. अमृता ने साल 1936 और 1943 के बीच आधा दर्जन कविताएं लिखीं. शुरुआती दौर में वह रोमांटिक कविताएं लिखती रहीं, लेकिन बाद मे वह प्रगतिशील लेखक आंदोलन का हिस्सा बनीं. 

जब जुड़ गया लोगो के दर्द से रिश्ता

प्रगतिशील लेखक आंदोलन से जुड़ने का असर अमृता के लेखन में साफ दिखा. उनके संग्रह लोक पीड़ ("पीपुल्स एंगुइश", 1944) में साल 1943 के बंगाल अकाल के बाद युद्धग्रस्त अर्थव्यवस्था साफ तौर पर आलोचना दिखाई दी. वह बंटवारे और औरतों के सपनों के बारे में लिखती रहीं. स्वतंत्रता के बाद जब सामाजिक कार्यकर्ता गुरु राधा किशन ने दिल्ली में पहला जनता पुस्तकालय लाने की पहल की तो अमृता ने इसमें भी बढ़-चढ़ कर योगदान दिया. इस पुस्तकालय का उद्घाटन बलराज साहनी और अरुणा आसफ अली ने किया था. यह अध्ययन केंद्र सह पुस्तकालय अभी भी क्लॉक टावर दिल्ली में चल रहा है. अमृता ने भारत के बंटवारे से पहले कुछ वक्त के लिए लाहौर के एक रेडियो स्टेशन में भी काम किया. विभाजन फिल्म गरम हवा (1973) के निर्देशक एम. एस. सथ्यु ने 'एक थी अमृता' के जरिए अमृता को श्रद्धांजलि दी है.

लेखन में छलक उठा बंटवारे का दर्द 

साल 1947 में भारत के बंटवारे के बाद हुई सांप्रदायिक हिंसा में हिंदू, सिख और मुसलमान सहित दस लाख लोग मारे गए थे. यही वो दौर था जब अमृता प्रीतम 28 साल की उम्र में लाहौर छोड़कर पंजाबी शरणार्थी के रूप में नई दिल्ली चली आईं. इस वक्त वह गर्भवती थी और देहरादून से दिल्ली की यात्रा पर थीं. इसी दौरान उन्होंने इस दर्द को एक कागज के टुकड़े पर उतार डाला. यहीं आगे चलकर "अज्ज आखां वारिस शाह नु" (मैं वारिस शाह से से पूछती हूं) कविता बन गई. यह कविता बाद में उन्हें अमर करने और विभाजन की भयावहता की सबसे मार्मिक याद दिलाने वाली साहित्यक रचना के तौर पर मशहूर हुई. यह कविता सूफी कवि वारिस शाह को संबोधित है, जो हीर और रांजा की दुखद गाथा के लेखक हैं. इस सूफी कवि और अमृता प्रीतम का जन्म स्थान एक ही है. 

प्रेमी युगलों की भी प्रिय

अमृता को प्रेम की एक नई इबारत लिखने वाली लेखिका की तरह याद किया जाए तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी. वह केवल साहित्य प्रेमियों को ही पसंद नहीं थी बल्कि प्रेमी युगलों के बीच वो आज भी मशहूर हैं. इसकी वजह है उनका मशहूर शायर साहिर लुधियानवी के लिए अथाह और निस्वार्थ प्रेम जो उन्होंने खुलेआम और मन से स्वीकारा. वहीं अपने से उम्र में छोटे पेशे से चित्रकार इमरोज़ के लिए उनका प्यार और इज्जत प्यार को एक नए मायने देता है. अमृता और इमरोज उनके जाने के बाद भी इस जोड़ी का नाम साथ ही लिया जाता है. एक मासूम और रस्मों- रिवाजों, जाति-बंधनों से परे था उनका ये रिश्ता. 

पिंजर में बयां बंटवारे का दर्द

अमृता प्रीतम ने 1961 तक ऑल इंडिया रेडियो दिल्ली की पंजाबी सेवा में काम किया. 1960 में उनके तलाक हो गया. उसके बाद उनका काम और अधिक नारीवादी हो गया. उनकी कई कहानियां और कविताएं उनके विवाह के दुखद अनुभव पर आधारित हैं. उनकी कई रचनाओं का अंग्रेजी, फ्रेंच, डेनिश, जापानी, मंदारिन और पंजाबी और उर्दू की अन्य भाषाओं में अनुवाद किया गया है, जिसमें उनकी आत्मकथात्मक रचनाएं ब्लैक रोज़ और रसीदी टिकट भी शामिल हैं.

अमृता प्रीतम ने कई साल तक पंजाबी में एक मासिक साहित्यिक पत्रिका नागमणि का संपादन किया. इसे उन्होंने 33 साल तक इमरोज के साथ मिलकर चलाया; हालांकि विभाजन के बाद उन्होंने हिंदी में भी खूब लिखा.बाद की जिंदगी में उन्होंने ओशो की ओर रुख किया और एक ओंकार सतनाम सहित ओशो की कई पुस्तकों के लिए परिचय लिखा.

अमृता प्रीतम की पहली किताब 'धरती सागर ते सिप्पियां' पर कांदबरी फिल्म बनी थी. इसके बाद 'उनाह दी कहानियां' पर भी में डकैत फिल्म बनाई गई. उनके उपन्यास पिंजर (The Skeleton- 1950) पर चंद्रप्रकाश द्विवेदी के निर्देशन में बनी पिंजर फिल्म काफी चर्चित रही. इस फिल्म में विभाजन के दंगों की कहानी के साथ-साथ बंटवारे की शिकार हुई महिलाओं की परेशानी का मार्मिक चित्रण था.अमृता ने पिंजर उपन्यास में दोनों देशों के लोगों का दर्द बयां किया था.

पद्मविभूषण से सम्मानित

हिंदी और पंजाबी की मशहूर साहित्यकार अमृता प्रीतम ने लगभग 100 किताबें लिखी हैं. अमृता प्रीतम को साल 1982 में साहित्य का शीर्ष सम्मान ज्ञानपीठ दिया गया तो साल 2004 में देश का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान पद्मविभूषण दिया गया था. वो साहित्य अकादमी पुरस्कार भी सम्मानित हैं. साल 2002 में घर में गिरने की वजह से उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया था और साल 2005 में लंबी बीमारी के बाद अमृता प्रीतम की मौत हो गई. उनके अंतिम वक्त में भी मशहूर चित्रकार और साहित्यकार उनके साथ रहे थे.

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