Nari Shakti First Woman Auto Driver Of India: तुम पंख कतरोगें हम हौसले पालेंगे और उड़ चलेंगे अपनी मंजिल की ओर... शीला दावरे (Shila Dawre) के लिए ये कहा जाए तो कोई बड़ी अतिश्योक्ति नहीं होगी. उस दौर में जब अधिकांश महिलाएं घर से बाहर अकले नहीं निकलती थीं उस वक्त शीला ने 18 साल की उम्र में अपना घर ही नहीं छोड़ा बल्कि अपने सपने को पूरा कर के ही दम लिया. नतीजन नाम और काम दोनों में एक अलग पहचान कायम की. वह भारत की पहली महिला ऑटो चालक हैं और उनका नाम लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड में दर्ज है. शीला के हौसले और हिम्मत ने कई महिलाओं को इस पेशे में उतरने के लिए प्रेरित किया. आज उसी का नतीजा है कि हमें सड़कों पर महिला ऑटो ड्राइवर देखकर आश्चर्य नहीं होता है. 


कच्ची उम्र का एक सपना जो हकीकत बना


शीला डावरे जब  भारत की पहली महिला ऑटो चालक बनीं तो उन्होंने सभी रूढ़ियों के बंधनों को तोड़ डाला था. वह खाकी वर्दी पहने आदमियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अपनी रोजाना की सलवार कमीज में पुणे (Pune) की गलियों में ऑटो में लोगों को उनकी मंजिल तक पहुंचाती रही. जब साल 1988 में अधिकतर औरतें घर से बाहर अकेले निकलने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थीं. उस वक्त शीला ने एक ऐसे पेशे को अपनाने का फैसला लिया जिसमें केवल पुरुषों का दबदबा था.


केवल 18 साल की उम्र शीला ने ऑटो ड्राइवर बनने का सपना देखा था और इसे पूरा करने के लिए उन्होंने परभणी जिले के अपने पैतृक घर को छोड़ने से भी गुरेज नहीं किया.आंखों में जुनून और पास में केवल 12 रुपये लेकर वह अपने सपने को हकीकत में तब्दील करने पुणे चली आईं थी. उसके बाद से उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा साल 1988 से लेकर साल 2001 तक वो 13 साल तर लगातार ऑटो चलाती रहीं. यहीं नहीं 13 साल के इस सफर में उन्होंने ऑटो, मैटाडोर से लेकर स्कूल बस तक चलाई. भले ही हेल्थ संबंधी परेशानियों को लेकर उन्हें ड्राइविंग छोड़नी पड़ी, लेकिन उन्होंने अपने जुनून के साथ रिश्ता बनाए रखा और एक  ट्रैवल कंपनी खड़ी कर डाली. उनके पति शिरीष कांबले इसमें उनकी मदद करते हैं और उनकी दो बेटियां हैं. 


शादी नहीं प्रोफेशनल कामयाबी की ललक


साल 1980 के दशक में जब उन्हें कहा जा रहा था कि उनकी आकांक्षाएं बेकार है और  ड्राइविंग अच्छे घरों की लड़कियां पेशा नहीं है. तब भी शीला दावरे ने हार नहीं मानी. महाराष्ट्र के छोटे शहर परभणी जन्मी शीला ने आठवीं तक की पढ़ाई इसी शहर से की. हर लड़की के मां-बाप की तरह ही बड़ी होने पर उनके पैरेंट्स भी उनकी शादी कराना चाहते थे. जैसा कि उस दौर का दस्तूर था कि बेसिक शिक्षा देने के बाद अच्छा लड़का और खानदान देखकर लड़की ब्याह दी जाती थीं, लेकिन शीला को ये मंजूर नहीं था उसकी आंखों में तो कोई और सपना पल रहा था.


शीला विद्रोही लड़की होने के नाते ड्राइविंग के अपने सपने को पूरा करने के रास्ते में शादी को आड़े नहीं आने देती थी. बचपन से ड्राइविंग की शौकीन शीला इसे अपना प्रोफेशन बनना चाहती थी. फिर क्या था उन्होंने घर छोड़ दिया और वह पुणे आ गईं. शीला बताती हैं, "मैं इसे अपना पेशा बनाना चाहती थी. मेरे माता-पिता ने शुरू में मेरे फैसले पर आपत्ति जताई, लेकिन अब उन्होंने मुझे स्वीकार कर लिया है कि मैं कौन हूं,”


जब कोई महिला को ऑटो किराए पर नहीं देना चाहता था


केवल पारिवारिक दबाव ही शीला को परेशान नहीं कर रहा था. उन पर सामाजिक दबाव भी कम नहीं था. आखिर उसने पितृसत्ता को चुनौती देने का फैसला जो किया था. पुणे पहुंचकर शीला ने एक ऑटो रिक्शा किराए पर लेना चाहा था, लेकिन उनका महिला होना इसमें आड़े आ गया. तब उन्होंने यहां के वुमन सेल्फ हेल्प ग्रुप से मदद ली. इसके बाद शीला को रेगुलर ड्राइवर्स की छुट्टी होने पर ऑटो ड्राइव करने का अवसर मिला.  इन सवारी से मामूली आय अर्जित करने और एक-एक पैसा बचाने के बाद आखिर वह एक ऑटो-रिक्शा खरीदने में कामयाब रही और अपने लिए एक झुग्गी में एक कमरा किराए पर भी लिया.


शीला याद करती हैं कि कैसे पैरेंट्स उनकी तरफ इशारा करते और अपने बच्चों को अपने पड़ोस में महिला ऑटो-रिक्शा चालक के बारे में बताते थे. पुरुष-प्रधान व्यवसायों में सेंध लगाने के साहस के बारे में कई लोगों से प्रशंसा मिलने के बावजूद कई ऐसे भी थे जिन्होंने इस पेशे में होने पर उन्हें नीचा दिखाया. लेकिन इस दौर में उनकी ताकत के स्तंभ  उनके साथी चालक बने थे. वह एक घटना को याद करती है जब एक ट्रैफिक कांस्टेबल ने उसे तीखी बहस के दौरान उन पर हाथ उठाया था और जवाब में उन्होंने भी उसे मारा. उन्हें उससे बहुत खतरा महसूस हुआ तब उनका साथ ऑटो-रिक्शा संघ के सदस्यों ने दिया.


कभी पथ प्रदर्शक बनने की कल्पना नहीं की


देश में पहली महिला ऑटो-रिक्शा चालक के रूप में लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज, शीला डावरे ने अपने जीवन में कभी भी उन महिलाओं के लिए एक पथप्रदर्शक बनने की कल्पना नहीं की थी, जिन्होंने ऑटो-रिक्शा चलाने का सपना देखा था. शीला ने खुद को संयमित कियाक्योंकि यह एक पुरुष-प्रधान क्षेत्र था. एक वीडियो इंटरव्यू में वह कहती हैं, "मैंने कभी भी रिकॉर्ड बनाने के लिए पेशे को नहीं अपनाया, वास्तव में मैं लिम्का बुक रिकॉर्ड्स के मुझे यह उपाधि देने के बारे में अनजान थी, जब तक कि मुझसे संपर्क नहीं किया गया."


शीला को अपने अनोखे करियर की वजह से हमेशा अवार्ड-रिवार्ड मिलते रहे हैं. इतना ही नहीं उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से #BharatKiLaxmi अभियान में शिरकत का मौका भी मिला है. शीला मानती हैं कि अधिक से अधिक महिलाओं को सामाजिक बंधनों को तोड़ने और पुरुष प्रधान क्षेत्रों में अपना स्थान बनाने की जरूरत है. 


महिलाओं की सुरक्षा के लिए संजीदा


वह महिलाओं को ड्राइविंग का पेशा अपनाने के लिए प्रोत्साहित करती हैं. इसके पीछे महिलाओं के खिलाफ अपराधों की बढ़ती घटनाएं हैं. शीला का मकसद महिलाओं की बेहतर सुरक्षा को अंजाम देना हैं. उनका मानना ​​​​है कि जब  महिलाएं उन्हें ड्राइव करती हैं तो महिलाएं अकेले यात्रा करने में अधिक सुरक्षित महसूस करती हैं.  शीला कहती हैं कि जेंडर और सामाजिक पूर्वाग्रह से किसी भी तरह से ये तय नहीं करना चाहिए कि कोई अपने जीवन के साथ क्या करना चाहता है. उनका एक और  सपना महिला ऑटो-रिक्शा चालकों को प्रशिक्षित करने के लिए एक अकादमी शुरू करना है. वह कहती हैं, "मुझे लगता है कि महिलाओं के लिए एक महिला अकादमी महिला ड्राइवरों के बीच अधिक साहस और विश्वास पैदा करेगी." 


हम शीला जैसे मार्गदर्शक को सलाम करते हैं जिन्होंने विरोध के बावजूद अपने सपनों को नहीं छोड़ा और पूरे भारत में महिला ऑटो चालकों की एक पीढ़ी को प्रेरित करना जारी रखा. हमें उम्मीद है कि कई महिलाएं इस पेशे में शामिल होती रहेंगी और भारत की गलियों में अपने ऑटो की कुशल ड्राइवर साबित होती रहेंगी. ये भी पढ़ेंः


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