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(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)

Nari Shakti: गगनदीप कांग से लेकर विदिता वैद्य तक... इन महिलाओं ने हर मुश्किल को दिया मुंहतोड़ जवाब

Independence Day 2022: इन महिला वैज्ञानिकों (Women Scientists) ने चांद पर निशाना साधा है तो दिमाग के गूढ रहस्यों को समझा और कामयाबी के रास्ते में आने वाली हर बाधा को पार कर खुद को साबित कर दिखाया है.

Women Scientists Phenomenal Work: लगभग तीन साल पहले वैज्ञानिक गगनदीप कांग (Gangandeep Kang) को एक बैठक के दौरान अपने सीनियर साथियों को टोकना पड़ा था. उन्हें अपने इन साथियों को ये याद दिलाना पड़ा था कि उन्हें उनकी बारी आने पर ही बोलना चाहिए. तब उन्होंने कहा था कि आपके पुरुष सहकर्मी बातचीत को हाईजैक कर लेते हैं, क्योंकि वे आपके किसी भी सीनियर पोस्ट होने के बावजूद आपकी इज्जत नहीं करते. उन्होंने कहा कि इस तरह की बात महिलाओं के साथ अक्सर होती रहती है. वह कहती हैं कि महिलाएं इसकी इतनी आदी हो जाती हैं कि उनको इसका एहसास ही नहीं होता.

कांग पहली भारतीय महिला है जिसे रॉयल सोसाइटी (Royal Society) ने फेलो के तौर पर चुना है. इसके बावजूद वह पुरुषों के इन हमलों से बच नहीं पाती है. पुरुषों का इस तरह का व्यवहार उस पूर्वाग्रह की याद दिलाता है, जिससे विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं को निपटना पड़ता है. इसकी एक वजह भारत में विज्ञान के क्षेत्र में ऊंचे पदों पर पुरुषों की तुलना में बहुत कम महिला वैज्ञानिक हैं. विज्ञान लेखिका नंदिता जयराज और आशिमा डोगरा ने अपनी किताब, 31 फैंटास्टिक एडवेंचर्स इन साइंस: वुमन साइंटिस्ट्स इन इंडिया में लिखा, “एक समूह के तौर पर  महिलाओं के लिए विज्ञान में बने रहना आसान नहीं है. वैज्ञानिकों में केवल 14 फीसदी महिला वैज्ञानिक हैं.”

हालांकि, ऐसा नहीं कि महिलाओं ने इन पूर्वाग्रहों का डटकर मुकाबला नहीं किया है. कई महिला वैज्ञानिकों ने इस तरह की बाधाओं से पार ही नहीं पाया बल्कि रूढ़ियों को तोड़ा भी है. नारी शक्ति (Nari Shakti) की यह विशेष कड़ी आज हम इन महिला वैज्ञानिकों (Women Scientists) के नाम कर रहे हैं. यह खासकर ऐसी महिलाओं पर नजर डालती है, जो भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य कर रही हैं. शुरुआत सुनीता सरावगी (Sunita Sarawagi) से करते हैं. 

सुनीता सरावगी

किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि 1980 के दशक के अंत में ओडिशा (Odisha) के एक शहर बालासोर (Balasore)की लड़की सुनीता जिसे कंप्यूटर विज्ञान के बारे में कुछ भी नहीं पता था, वह देश में ही नहीं बल्कि विदेश में भी इस काम के बल पर छा जाएंगी. वह बताती हैं कि यह संयोग से हुआ जब उन्होंने आईआईटी (IIT) की संयुक्त प्रवेश परीक्षा पास की. उनका कहना है तब और आज भी रैंक के आधार पर इंजीनियरिंग में पसंदीदा ट्रेड लेने को तव्वजो दी जाती थी. उन दिनों सबसे पॉपुलर ट्रेड कंप्यूटर विज्ञान (Computer Science) था. वह बताती हैं उस वक्त आईआईटी खड़गपुर स्नातक 25 छात्रों के बैच में एकमात्र लड़की वह थी. वह बताती हैं कि तब से अब तक की तुलना में लड़कियों के इंजीनियरिंग के क्षेत्र में आने के रेशियो में काफी सुधार आया है.

50 साल की महिला वैज्ञानिक सुनीता सरावगी (Sunita Sarawagi) कंप्यूटर साइंस एंड इंजीनियरिंग, आईआईटी-बॉम्बे में चेयर प्रोफेसर हैं. वह मशीन टीचिंग (Machine Teaching) के क्षेत्र में काम कर रही हैं. उनके शोध का क्षेत्र डाटा माइनिंग और मशीन लर्निंग है. मशीन लर्निंग में असंरचित डेटा से संरचित जानकारी निकालने का काम होता है. इसमें ट्रांसलेशन में इस्तेमाल किए जाने वाले न्यूरल नेटवर्क मॉडल (Neural Network Models) के दोबारा से अधिकतम इस्तेमाल करने पर बल दिया जाता है. उदाहरण के लिए मान लीजिए कि आपके पास मुख्यधारा के विषयों पर प्रशिक्षित हिंदी-से-अंग्रेज़ी अनुवाद मॉडल है. आप एक विशिष्ट विषय पर अनुवाद के लिए इसका दोबारा से इस्तेमाल कैसे कर सकते हैं ? आपको इसी गुत्थी को सुलझाना है. न्यूरल नेटवर्क बिल्कुल इंसान के दिमाग की तरह काम करने के लिए डिजाइन किए जाते हैं. वैसे ही जैसे हैंड राइटिंग या चेहरे की पहचान के मामले में इंसानी दिमाग बहुत जल्दी फैसला लेता है. 

साल 1999 में, कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले (The University of California, Berkeley) से कंप्यूटर विज्ञान में पीएचडी और कार्नेगी मेलन यूनिवर्सिटी में कुछ वक्त काम करने के बाद सुनीता अपने पति के साथ वापस भारत लौट आईं और आईआईटी-बॉम्बे ( IIT-Bombay) ज्वॉइन कर लिया. वह भारत में डेटा माइनिंग और मशीन लर्निंग के क्षेत्र में काम करने वाली अहम शख्सियतों में से एक है. साल 2019 में उन्हें इंजीनियरिंग और कंप्यूटर विज्ञान में 100,000 डॉलर का इंफोसिस पुरस्कार (Infosys Prize) दिया गया था.वह करीब 20 वर्षों से सूचना निकालने की समस्या पर काम कर रही है. इसमें असंरचित डेटा से संरचित जानकारी निकालने का काम किया जाता है. डेटा साइंस के फील्ड में इसे बेहद अहम माना जाता है. अपने शोध के बारे में, सरावगी कहती हैं कि मशीन लर्निंग के क्षेत्र में आमतौर पर भारी निवेश की जरूरत होती है और मॉडल को ट्रेन करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली ऊर्जा की वजह से एक बड़ा कार्बन पदचिह्न (Carbon Footprint) छोड़ देता है.

विदिता वैद्य

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (Tata Institute Of Fundamental Research) में प्रोफेसर 49 साल की विदिता वैद्य (Vidita Vaidya) तंत्रिका विज्ञान (Neuroscience) पर शोध कर रही है. विदिता वैद्य मुंबई के गोरेगांव के अनुसंधान परिसर में रहने वाले डॉक्टर-वैज्ञानिकों की अकेली संतान हैं. वह याद करती हैं कि बचपन से ही मानव व्यवहार उनका ध्यान खींचता रहा है. उनके दिलो-दिमाग में हमेशा यह बात चलती रहती कि अनुभव, तनाव मस्तिष्क की सर्किटरी को कैसे प्रभावित करते हैं.

यही वजह रही की वह मानवविज्ञानी (Primatologists) जेन गुडॉल और डियान फॉसी की डॉक्यूमेंट्री देखकर बड़ी हुई. वह जंगलों में चिंपैंजी और गोरिल्ला के व्यवहार का अध्ययन करने वाली दो महिलाओं मोहित गई. जब वैद्य कॉलेज जाने के लिए तैयार हुई, वह जानती थी कि व्यवहार के बारे में जानने के लिए उसे मस्तिष्क का अध्ययन करना होगा.  यह कुछ ऐसा था जिस पर जिसके लिए विदिता मे अपना जीवन समर्पित कर दिया है. 

एक युवा लड़की के तौर विदिता को इस बात से भी उत्सुकता होती है कि कैसे एक कैटरपिलर जानता है कि वास्तव में उसे कितना धागा बुनना है. उनकी इसी उत्सुकता ने बड़े होने पर उन्हें दिमाग को लेकर वजनदार सवालों पर सोचने पर मजबूर किया. एक बात उन्होंने गौर कि मस्तिष्क अनुभवों और पर्यावरण से प्रभावित होने के लिए लगातार खुला रहता है.

यही बात उनके शोध को और अधिक जटिल बनाती है. अभी भी  वैद्य और उनकी टीम भावनात्मक व्यवहार को नियंत्रित करने वाली सर्किटरी को समझने की कोशिश कर रही है. उनकी टीम ये जानने में लगी है कि खासकर जीवन के प्रारंभिक चरण में ये तंत्रिका सर्किट (Neural Circuits) वातावरण के अनुभवों और परिवर्तनों का जवाब कैसे देते हैं. विदिता बताती हैं कि यह समझना कि अनुभव इन सर्किटों को कैसे आकार देते हैं, हमें यह समझने में मदद मिलती है कि जब आप जीवन चुनौती का सामना करते हैं तो ये सर्किट वयस्क मस्तिष्क में कैसे प्रतिक्रिया देते हैं. वह कहती है कि इससे हमें ये समझने में मदद मिल सकती है कि इंसान में मानसिक विकार कैसे विकसित होते हैं. 

वे येल विश्वविद्यालय (Yale University), स्वीडन के करोलिंस्का इंस्टिट्यूट (Sweden’s Karolinska Institutete) और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ाई के बाद मुंबई लौट आईं और टीआईएफआर में शामिल हो गईं, जहां उन्होंने केवल 29 वर्ष की उम्र में अपनी प्रयोगशाला स्थापित की. येल में पीएचडी की पढ़ाई खत्म करने के दौरान, उन्हें ऐसी औरतें मिलीं जो जीवन को संतुलित करने से नहीं डरती थीं और जिस तरह से वे चाहती थीं, वैसे ही काम करती हैं. इनसे उन्हें प्रेरणा मिली. साल 2012 में राष्ट्रीय जैव विज्ञान पुरस्कार से लेकर 2015 में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के लिए प्रतिष्ठित शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार (Shanti Swarup Bhatnagar) जैसे कई अवॉर्ड उनके नाम हैं. 

गगनदीप कांग

57 साल की गगनदीप कांग (Gangandeep Kang) ट्रांसलेशनल हेल्थ साइंस एंड टेक्नोलॉजी इंस्टीट्यूट कार्यकारी निदेशक हैं. उनके शोध का क्षेत्र गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल (Gastrointestinal) विज्ञान, टाइफाइड, पोषण आंत के संक्रमण पर काम करना है. यह कांग ही थी जिन्होंने भारत के पहले स्वदेशी रोटावायरस (Rotavirus Vaccines) टीका विकसित करने में मदद की. वह टाइफाइड सर्विलांस नेटवर्क और हैजे के लिए एक रोडमैप (Cholera) तैयार कर रही हैं.

हर बच्चे को अपनी पूर्ण क्षमता हासिल करने में सक्षम होने के लिए आपको उनके पहले 5, 10 और 15 वर्षों में क्या करने की जरूरत है? असफलता के बजाय सफलता के लिए उन्हें स्थापित करने के लिए आपको क्या करना चाहिए ? यह कोई दार्शनिक प्रश्न नहीं है या स्वयं सहायता पुस्तक का संक्षिप्त विवरण नहीं है. बल्कि यह रॉयल सोसाइटी ( Royal Society) की फेलो चुनी जाने वाली पहली भारतीय महिला गगनदीप कांग की विचारधारा है. 

सार्वजनिक स्वास्थ्य में एक चिकित्सक शोधकर्ता तौर पर कांग ने पहले ही बच्चों की वृद्धि और विकास की दिशा में अग्रणी काम किया है. रोटावायरस के खिलाफ पहला स्वदेशी टीके विकसित करने में मदद की, जो पांच साल से कम उम्र के बच्चों में दस्त का प्रमुख कारण है. भारत में हर साल पांच साल से कम उम्र के एक लाख से ज्यादा बच्चे डायरिया की वजह से मर जाते हैं. दशकों से वह खासकर बच्चों में डायरिया और वायरल गैस्ट्रोएंटेराइटिस और आंतों के संक्रमण का अध्ययन कर रही है.  

भारतीय रेलवे में एक इंजीनियर और एक स्कूली शिक्षिका की बेटी कांग सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के लिए नवीन दृष्टिकोण अपनाने का श्रेय अपने अल्मा मेटर, क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज, वेल्लोर (Christian Medical College, Vellore) को देती हैं. वह कहती है कि यहां मिला प्रशिक्षण अविश्वसनीय है, इसलिए आप जो कुछ भी करते हैं उसमें आप सार्वजनिक स्वास्थ्य को दरकिनार नहीं कर सकते हैं. 

देवप्रिया चट्टोपाध्याय

उत्तर बंगाल के एक छोटे से शहर बालुरघाट (Balurghat) की रहने वाली चट्टोपाध्याय ने अपनी स्नातक की डिग्री कोलकाता से की, इसके बाद वह अपनी मास्टर डिग्री के लिए आईआईटी-बॉम्बे और पीएचडी के लिए मिशिगन विश्वविद्यालय (University of Michigan) चली गईं. 39 साल की देवप्रिया चट्टोपाध्याय (Devapriya Chattopadhyay) पृथ्वी विज्ञान विभाग आईआईएसईआर (Dept of Earth Sciences, IISER) पुणे में एसोसिएट प्रोफेसर हैं.

उनके शोध का विषय पुरापारिस्थितिकी विज्ञान (Paleoecology) है. इसमें लाखों साल पहले समुद्र के सरक्यूलेशन के असर को जानने के लिए कच्छ (Kutch) के मोलस्क (Molluscs) यानी कोमल कवच वाले जीव-जंतुओं के जीवाश्म के रिकॉर्ड पर काम किया जा रहा है.जिस  जैव विविधता के संकट का हम अभी सामना कर रहे हैं, उसे दूर करने के संभावित रास्तों की तलाश करने के लिए देवप्रिया चट्टोपाध्याय ने अतीत की बेहद गहराई में लगभग 20 मिलियन साल पहले के दौर पर अपने शोध को केंद्रित किया है.

प्रोफेसर, चट्टोपाध्याय मिओसीन युग (Miocene Epoch) से जीवाश्म रिकॉर्ड का अध्ययन के लिए अतीत की पारिस्थितिकी पर काम कर रही हैं. इस युग के दौरान इस दौरान अरब सागर भूमध्य सागर से अलग हो गया था.अपने शोध के लिए, चट्टोपाध्याय ने गुजरात के कच्छ से मोलस्क के जीवाश्म एकत्र किए, जो लाखों साल पहले समुद्र तल था, और जहां जीवाश्म रिकॉर्ड अच्छी तरह से संरक्षित हैं.

चट्टोपाध्याय कहती हैं कि उन्होंने भूविज्ञान में पढ़ाई शुरू करने के बाद जीवाश्म विज्ञान में रुचि ली. उनका कहना है कि  जीवाश्म रिकॉर्ड के जरिए यह पता चल सकता है कि कौन से समूह वर्तमान पर्यावरणीय संकट के प्रति संवेदनशील हो सकते हैं और कौन सी प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं. जब तक हम तंत्र को नहीं समझते हैं, तब तक हमारी भविष्यवाणियां गलत साबित होती हैं. 

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