अरुणाचल प्रदेश से चीन को आखिर इतना इश्क क्यों हैं कि वो हर बार भारत के इस सूबे पर अपनी मिल्कियत कायम करना चाहता है. हालिया मामला तवांग सेक्टर में चीनी सेना की घुसपैठ का है. बहरहाल भारत और चीन दोनों ही एक-दूसरे पर तवांग सेक्टर में दखलअंदाजी के आरोप लगा रहे हैं. ऐसा क्या है जो इन दोनों देशों को हर बार इस प्रदेश को लेकर एक दोराहे पर ला खड़ा करता है.


इसे जानने के लिए हमें आज से 108 साल पहले के इतिहास में झांकना होगा. दरअसल साल 1914 में तिब्बत और भारत के बीच कोई सीमा रेखा नहीं थी. ये दौर भारत में ब्रिटिश शासन का था. बस ये मसला वहीं से उठ खड़ा हुआ था जब ब्रिटिश हुकूमत ने 1906 में भारत और तिब्बत की सीमा रेखा वाला नक्शा बनाया था और इसी के आधार पर साल 1914 से मैकमोहन लाइन अस्तित्व में आई थी. 


तब से अब तक भारत और चीन के देशों के बीच ये मसला बार-बार जंग तक के हालात पैदा करता रहा है. तवांग सेक्टर में दोनों देशों की ये झड़प गंभीर रूप भी ले सकती है, क्योंकि दोनों ही देश दक्षिण एशिया पर अपना दबदबा कायम करने की चाह रखते हैं. ऐसे में तवांग के तनातनी वाले हालात कहां तक जा सकते हैं इस पर हम यहां एक नजर डालने की कोशिश करेंगे. 


तवांग पर भारत सरकार का रुख 


12 दिसंबर को ही देश के मीडिया में तवांग सेक्टर में चीन की घुसपैठ की खबरें आम थी. इसके बाद भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने मंगलवार 13 दिसंबर को संसद में ये जानकारी दी कि अरुणाचल प्रदेश के तवांग सेक्टर में बीते हफ्ते 9 दिसंबर शुक्रवार चीनी सेना (पीएलए)के साथ हुई झड़प में कुछ भारतीय सैनिक घायल हुए हैं, लेकिन कोई भी सैनिक मारा नहीं गया है. उन्होंने ये भी बताया कि भारतीय सैनिकों ने पीएलए की इस कोशिश को नाकाम कर दिया गया.  द टेलीग्राफ अखबार के मुताबिक़, रक्षा मंत्रालय के सूत्रों के हवाले से लिखा है कि भारतीय सैनिकों की तुलना में इस झड़प में चीनी सैनिक अधिक घायल हुए हैं. 


इसके बाद से ही ये मामला पूरी दुनिया में बहस का मुद्दा बना हुआ. दुनिया को भी लगता है कि दक्षिण एशिया के इन दोनों ताकतवर देशों की ये पुरानी अदावत कभी भी जंग के हालात पैदा कर सकती है. मामला ही ऐसा था क्योंकि चीनी सेना ने तवांग सेक्टर के सबसे ऊंचाई वाले समतल इलाके यांग्त्से में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर अतिक्रमण की कोशिश की थी. 


इसे लेकर भारत के रक्षा मंत्री ने कहा था कि भारतीय सेना ने चीन की इस जबरदस्ती की  दखलअंदाजी का माकूल जवाब दिया. इसे लेकर भारत सरकार काफी संजीदा हो गई है. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का बयान इसका सबूत है. केंद्रीय गृह मंत्री ने कहा, “मैं साफ कहता हूं कि जब तक मोदी सरकार है, तब- तक कोई भी भारत की एक इंच ज़मीन पर कब्जा नहीं कर सकता है.” उधर विपक्षी पार्टी कांग्रेस के सीनियर लीडर शशि थरूर ने भी चीन को लेकर सरकार को आगाह किया. थरूर ने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं कि चीन की नजर तवांग पर है इसके लिए हमें सतर्क रहना होगा.


चीन का ये है जवाब 


भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के तवांग के यांग्त्से में पीएलए के एलएसी को पार करने की कोशिश के नाकाम करने वाले बयान के कुछ ही घंटों बाद ही चीन की तरफ से भी इस मामले पर एक बयान आया. चीन की सेना ‘पीपुल्स लिबरेशन आर्मी’ (पीएलए)  के वेस्टर्न थिएटर कमांड के प्रवक्ता सीनियर कर्नल लॉन्ग शाओहुआ ने दावा किया कि जब 9 दिसंबर को तड़के  वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के अपनी तरफ के  डोंगझांग" इलाके में  चीनी सैनिक नियमित गश्त पर थे तो उन्हें भारतीय सैनिकों ने रोका था जो अवैध तरीके से एलएसी पार कर उनकी तरफ आए थे. उनका कहना है कि इसके बाद ही चीनी और भारतीय सैनिकों के बीच झड़प हुई.


पीटीआई के मुताबिक सीनियर कर्नल लॉन्ग शाओहुआ ने अपने बयान में कहा,“हमारे सैनिकों का जवाब पेशेवर, मजबूत और आदर्श है, जिसने हालातों को स्थिर करने में मदद की है.  हम भारतीय पक्ष से सीमा पर तैनात उनके सैन्य बलों को सख्ती से काबू और संयमित करने को कहते हैं. और अमन और चैन  बनाए रखने के लिए चीनी पक्ष के साथ काम करने के लिए कहते हैं.” 


पीटीआई के मुताबिक चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता वांग वेन बिन ने कहा है कि भारत-चीन के बीच सरहदों पर मौजूदा हालात सामान्य तौर पर स्थिर हैं और दोनों पक्षों में राणनीतिक और सैन्य अधिकारियों के जरिए इस मुद्दों को लेकर सहज बातचीत जारी है. हालांकि, वांग ने यांग्त्से इलाके में भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच 9 दिसंबर की झड़प को लेकर कुछ भी नहीं कहा. गौरतलब है कि जून 2020 में लद्दाख की गलवान घाटी में दोनों पक्षों के बीच घातक मुठभेड़ के ढाई साल बाद तवांग में झड़प हुई. 


बीते हफ्ते भारत के अरुणाचल प्रदेश के तवांग सेक्टर में हुई ये झड़प उस इलाके में हुई है जिसे चीन दक्षिणी तिब्बत का नाम देता आ रहा है. वो इस इलाके को अपना हिस्सा मानता है. अरुणाचल प्रदेश में भारत और चीन के बीच सीमा को लेकर एक राय नहीं है. इसके लिए दोनों देश अपने अलग-अलग दावे करते रहे हैं, इस सूबे के 90 हज़ार वर्ग किलोमीटर पर चीन अपना दावा ठोकता है. चीन अरुणाचल प्रदेश में मैकमोहन लाइन को भी तवज्जो नहीं देता.


उधर भारत पश्चिम में अक्साई चिन के 38 हजार वर्ग किलोमीटर के इलाके के चीन का होने के दावे से राब्ता नहीं रखता. भारत का मानना है कि साल 1962 की जंग में चीन ने ये इलाका जबरन कब्जाया है. भारत इस इलाके को अपना मानता है. गौरतलब है कि चीन इस इलाके में जी-695 हाइवे की योजना बना रहा है. ये हाइवे भारत की सीमा से गुजरते हुए चीन के शिन्ज़ियांग को तिब्बत से जोड़ेगा. चीन अक्साई चिन को भारत का हिस्सा होने से इंकार करता आया है. दोनों देशों की इस अदावत को समझने के लिए अक्साई चिन, अरुणाचल प्रदेश और मैकमोहन लाइन का कनेक्शन समझना जरूरी है. 


 मैकमोहन जिससे चीन को है इंकार


जब भारत में अंग्रेजों का शासन था उस वक्त भारत और तिब्बत के बीच को सीमा रेखा नहीं थी. दरअसल 1906 में ब्रिटिश सरकार ने भारत और तिब्बत की सीमा को लेकर एक नक्शा बनाया. इसके आधार पर एक सीमा रेखा बनाई गई और इस दौर में 1914 एक ऐसा साल भी आया जब भारत और तिब्बत के बीच सीमा रेखा को लेकर शिमला समझौते को अमलीजामा पहनाया गया. 3 जुलाई 1914 को सीमा विवाद खत्म करने के लिए शिमला के यूएस क्लब में चीन, ब्रिटिश सरकार और तिब्बत के अधिकारियों के बीच बैठक हुई.


बैठक में अरुणाचल की सीमाओं का सही प्रकार से बंटवारे पर चर्चा हुई. चीन ने समझौते पर दस्तखत करने से मना कर दिया.  हालांकि इस समझौते पर  ब्रितानी हुक़ूमत के तत्कालीन विदेश सचिव  सर हेनरी मैकमोहन और तत्कालीन तिब्बत सरकार के नुमाइंदों ने दस्तखत किए. सीमारेखा का नाम भी समझौते में अहम भूमिका निभाने वाले हेनरी मैकमोहन के नाम पर रखा गया.


चीन ने इस समझौते को मानने से साफ इंकार कर दिया, क्योंकि तिब्बत को चीन अपना राज्य मानता था. बवाल यहीं से शुरू हुआ और इसकी सूत्रधार ब्रिटिश हुकूमत ही रही थी. साल 1929 में समझौते पर ब्रिटिश सरकार ने नोट लगाकर इस समझौते को वैध करार दिया. साल 1935 में  अंग्रेज प्रशासनिक अधिकारी ओलफ केरो ने तत्कालीन अंग्रेज सरकार को इसे आधिकारिक तौर पर लागू करने का अनुरोध किया.


इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने आधिकारिक तौर पर 1937 में  मैकमोहन लाइन को दिखाता हुआ नक्शा जारी किया. इसके साथ ही 1938 में चीन को शिमला समझौते को लागू करने को कहा. हालांकि 1950 में चीन ने भारत से साफ कहा कि वो 1914 के शिमला समझौते को मान्यता नहीं देता. उसने इसके पीछे तर्क दिया था कि तिब्बत चीन के आधीन है न कि कोई आजाद देश है.


भारत को 1947 में आजादी मिल गई थी और उसने  मैकमोहन रेखा के अपनी सीमा होने का ऐलान कर तवांग क्षेत्र (1950-51) पर अपना आधिकारिक दावा किया था. 1947 में, तिब्बती सरकार ने मैकमोहन रेखा के दक्षिण में तिब्बती जिलों पर दावा करते हुए भारतीय विदेश मंत्रालय को प्रस्तुत एक नोट लिखा था.


इसके बावजूद  बीजिंग में 1949 में सत्ता में आई  कम्युनिस्ट पार्टी ने तिब्बत को "मुक्त" करने के अपने इरादे का ऐलान किया था. 1950 के दशक में जब भारत-चीन के रिश्ते अच्छे हुआ करते थे तब प्रधानमंत्री  जवाहरलाल नेहरू के अधीन भारत सरकार ने हिन्दी-चीनी भाई-भाई नारा दिया, लेकिन इसके साथ ही एक शर्त भी रखी थी कि अगल चीन सीमा विवाद को बढ़ावा देगा तो उससे किसी भी तरह की बातचीत को मंजूरी नहीं दी जाएगी. यही वजह रही कि भारत ने 1954 में विवादित इलाके का नाम बदलकर नॉर्थ ईस्ट फ़्रण्टियर एजेंसी कर दिया था. इसका मतलब ये हुआ कि भारत के तवांग सहित पूर्वोत्तर सीमांत क्षेत्र और बाहरी तिब्बत के बीच सीमा को मान्यता दे दी गई.


मैकमोहन रेखा पूर्वी-हिमालय क्षेत्र के चीन और भारत अधिकृत क्षेत्रों के बीच सीमा को दिखाती है. यह बहुत अधिक ऊंचाई का पहाड़ी इलाका है. ये  हिमालय से होते हुए पश्चिम में भूटान से 890 किलोमीटर और पूर्व में ब्रह्मपुत्र तक 260 किलोमीटर तक फैली है. यही सीमा रेखा 1962 के भारत-चीन युद्ध का केन्द्र और कारण थी.


चीन के मुताबिक तिब्बत स्वायत्त राज्य नहीं था और उसके पास किसी भी तरह के समझौते करने का कोई हक नहीं था.  चीन के आधिकारिक नक्शों में मैकमोहन रेखा के दक्षिण में 56 हजार वर्ग मील के क्षेत्र को तिब्बती स्वायत्त क्षेत्र का हिस्सा माना जाता है. इसे ही चीन दक्षिणी तिब्बत कहता है. 1962-63 के भारत-चीन युद्ध के वक्त चीनी फौजों ने कुछ वक्त के लिए इस इलाके के आधे से अधिक हिस्से पर कब्जा जमा लिया था.


इसके बाद चीन ने एकतरफ़ा युद्ध विराम का ऐलान कर अपनी सेना मैकमोहन रेखा के पीछे ले ली थी. ये अभी भी एक पहेली है कि आखिर चीन  अरुणाचल प्रदेश पर दावे के बावजूद 1962 की जंग में यहां से पीछे क्यों हटा था. यही वजह है कि मैकमोहन रेखा पर आज भी विवाद बना हुआ है. इसके बाद से ही भारत और चीन के बीच इस लाइन को लेकर तनाव है. चीन अरुणाचल प्रदेश को भी अपना हिस्सा बताता है. हालांकि भारत-चीन के बीच भौगोलिक सीमा रेखा तौर पर ये मान्य है.  


तवांग भारत-चीन के कलह की वजह


भारत और चीन दोनों देशों के बीच रिश्तों में तनातनी 1951 में चीन के तिब्बत पर कब्जा करने के बाद ही शुरू हो गई थी. चीन तिब्बत की आजादी की बात करता था और भारत उसे आधिकारिक तौर एक आजाद देश मानता था. तब-तक अरुणाचल प्रदेश नहीं बना था. साल 1972 तक ये  नॉर्थ ईस्ट फ़्रंटियर एजेंसी के तौर पर जाना जाता था. भारत ने 20 जनवरी 1972 को इसे केंद्र शासित प्रदेश बनाया और नाम दिया अरुणाचल प्रदेश.


15 साल बाद साल 1987 इस प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया गया. मसला ये है कि इस सूबे का तवांग छठे दलाई लामा का जन्म स्थान है. साल 1683 वे यहां जन्में थे.  इस वजह से ये तिब्बती बौद्धों के लिए एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है. 1959 में तिब्बत से भारत आने के बाद 14वें दलाई लामा ने तवांग में ही शरण ली और आगे बढ़ने से पहले कुछ दिन मठ में बिताए.


इसका भी चीन विरोध करता रहा है. साल 2009 में उनके तिब्बत जाने पर भी चीन ने सख्त विरोध किया था. यहां एक 400 साल पुराने बौद्ध मठ भी है. माना जाता है कि इस मठ की वजह से ही सीमा रेखा बनाने का मसला सामने आया. कहा जाता है कि चीन इस मठ पर अधिकार जमा बौद्ध धर्म को अपने काबू में करने की चाह रखता है. यही वजह है कि  चीन तवांग सहित लगभग पूरे अरुणाचल पर अपना दावा करता है. यही पूरे सीमा विवाद में भारत और चीन के बीच बेहद गंभीर मुद्दा है.