भारत 2035 तक अपना खुद का अंतरिक्ष केंद्र स्थापित करने की सोच रहा है. इसके लिए भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने उद्योग जगत के सामने अपना एक प्लान भी पेश किया है. दरअसल इसरो ने भारी-भरकम पेलोड कक्षा में स्थापित करने में सक्षम और दोबारा इस्तेमाल किए जाने योग्य रॉकेट बनाने के लिए उद्योग जगत के सामने प्रस्ताव रखा है ताकी वह इसरो के साथ पार्टनरशिप कर सकें.


ऐसे रॉकेट को अगली पीढ़ी का प्रक्षेपण यान (एनजीएलवी) कहा गया है. इसरो के अध्यक्ष एस सोमनाथ ने कहा कि अंतरिक्ष एजेंसी रॉकेट के डिजाइन पर काम कर रही है और चाहेगी कि इसके विकास में उद्योग उसके साथ पार्टनरशिप करें. सोमनाथ ने यहां ‘पीटीआई भाषा’ से  बातचीत के दौरान कहा, ‘‘हमारी कोशिश है कि हम  विकास प्रक्रिया में उद्योग जगत को साथ लेकर आए. हमें सारा पैसा निवेश करने की जरूरत नहीं है. हम चाहते हैं कि हम सभी के लिए इस रॉकेट के निर्माण में उद्योग निवेश करें.’’


2023 तक अंतरिक्ष स्टेशन बनाने की योजना


उन्होंने कहा कि रॉकेट से भूस्थैतिक स्थानांतरण कक्षा (जीटीओ) में 10 टन पेलोड ले जाने या पृथ्वी की निचली कक्षा में 20 टन पेलोड ले जाने की योजना है. इसरो के एक अन्य अधिकारी ने कहा कि नया रॉकेट मददगार होगा क्योंकि भारत की 2035 तक अपना अंतरिक्ष केंद्र स्थापित करने की योजना है और गहरे अंतरिक्ष मिशन पर, मानवीय अंतरिक्ष उड़ानों, मालवहन मिशनों और एक ही समय में कक्षा में अनेक संचार उपग्रहों को स्थापित करने पर भी उसकी नजर है.


एनजीएलवी को भारी मात्रा में उत्पादन के लिए सामान्य, मजबूत मशीन के रूप में डिजाइन किया गया है. इससे अंतरिक्ष में परिवहन किफायती होगा. सोमनाथ ने कहा कि ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान (पीएसएलवी) 1980 के दशक में विकसित प्रौद्योगिकी पर आधारित हैं और भविष्य में रॉकेट प्रक्षेपित करने में इनका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता.


रॉकेट बनाने में हजारों डॉलर का खर्च


इसरो ने एनजीएलवी की डिजाइन एक साल में तैयार करने की योजना बनाई है और 2030 में संभावित रूप से प्रस्तावित इसके पहले प्रक्षेपण के साथ उद्योग जगत को इनके उत्पादन के लिए पेशकश की जा सकती है. एनजीएलवी हरित ईंधन से संचालित तीन स्तर वाला रॉकेट हो सकता है जिसमें मीथेन और तरल ऑक्सीजन या केरोसिन और तरल ऑक्सीजन का इस्तेमाल किया जा सकता है. सोमनाथ द्वारा इस महीने की शुरुआत में एक सम्मेलन में दिये गये प्रस्तुतिकरण के अनुसार एनजीएलवी पुन: उपयोग वाले स्वरूप में 1900 डॉलर प्रति किलोग्राम की लागत में और उत्सर्जनीय स्वरूप में 3000 डॉलर प्रति किलोग्राम की दर से पेलोड ले जा सकता है.


क्या होता है अंतरिक्ष स्टेशन?


अंतरिक्ष स्टेशन अंतरिक्ष में भेजा जाने वाला मानव निर्मित बड़ा यान है. जिसे अंतरिक्ष में स्थाई रूप से स्थापित किया गया है ताकि वहां जाने वाले अंतरिक्ष यात्रियों को सुविधा हो. वहां मौजूद इस बड़े स्पेसक्राफ्ट को अंतरिक्ष यात्रियों का घर कहा जा सकता है. ये पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाता रहता है. यहां अंतरिक्ष यात्री जाकर रुकते हैं और यहां वे सभी रिसर्च की जाती हैं, जिन्हें धरती पर नहीं किया जा सकता.  स्पेश स्टेशन को उनके आकार और वजन के अनुसार कई हिस्सों में अंतरिक्ष में भेजे जाते हैं और वहां पहुंचाने के बाद डॉकिंग टेक्नोलॉजी से उन सभी हिस्सों या मॉड्यूल्स को आपस में जोड़ दिया जाता है. 


अमेरिका-रूस और चीन के पास है अभी ये सुविधा


वर्तमान में पूरी दुनिया में अमेरिका-रूस और चीन ये सुविधा है. जहां एक तरफ अमेरिका और रूस पिछले 24 सालों से पार्टनरशिप के अंतर्गत अपना स्टेशन चला रहे हैं तो वहीं चीन ने अपने अंतरिक्ष स्टेशन तियांगोंग का केंद्रीय मॉड्यूल वर्ष 2021 में लॉन्च किया था. इस कदम से चीन अपना खुद का अंतरिक्ष स्टेशन बनाने के बेहद नजदीक आ गया है. तियांगोंग स्पेस स्टेशन के पूरा होते ही चीन दुनिया में इकलौता देश बन जायेगा जिसके पास मौजूदा समय में खुद का स्टेशन होगा.


रूस ने किया अपने स्टेशन का ऐलान 


एक तरफ जहां चीन का स्पेस स्टेशन लगभग तैयार है वहीं दूसरी तरफ ये माना जा रहा था कि इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन में अमेरिका और रूस की पार्टनरशिप कभी भी टूट सकती है. अब रूस अपना खुद का एक अलग अंतरिक्ष स्टेशन तैयार करेगा जिसकी शुरुआत 2 साल बाद 2024 से होगी. इस पार्टनरशिप के टूटने की बड़ी वजह रूस यूक्रेन युद्ध बताया जा रहा है. दरअसल रूस और यूक्रेन के बीच पिछले 8 महीने से युद्ध चल रहा है. इस युद्ध में अमेरिका का यूक्रेन को सपोर्ट करना दोनों देशों के बीच दूरियां ला रहा है. अमेरिका की स्पेस एजेंसी NASA चाहती थी कि इस पार्टनरशिप को 2030 तक बढ़ाना चाहिए लेकिन रूस अपने नये अंतरिक्ष स्टेशन की तैयारी कई साल पहले ही शुरू कर चुका था.


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