बैंकॉक: भारत सरकार ने क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) समझौते पर दस्तखत करने से ऐन मौके पर इनकार कर दिया. थाईलैंड में आयोजित पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन के मंच से पीएम मोदी के इस ऐलान में जहां देशी बाज़ार में सुस्ती को लेकर फिक्र नज़र आती है, वहीं घरेलू सियासत की चिंताओं के निशान भी दिखाई देते हैं. एनडीए सरकार अपने इस इनकार को राष्ट्रवादी निर्णय की नई हुंकार भले ही करार दे रही हो लेकिन इसके पीछे परेशानी की लकीरें भी साफ दिख रही हैं. ज़ाहिर है इस फैसले के पीछे बड़ी फिक्र आर्थिक मंदी के ताप को लेकर ही थी जिसके चलते आरसीईपी जैसे समूह में शामिल होने का फैसला भारत के लिए मिस-एडवेंचर भी साबित हो सकता था.


सरकार के नीति नियंता जानते हैं कि तमाम कोशिशों के बावजूद आर्थिक विकास दर का कांटा दहाई की सीढी नहीं चढ़ पा रहा है. वहीं, मौजूदा हालात और निकट भविष्य में फिलहाल इसकी कोई उम्मीद भी नहीं दिखाई दे रही है. कृषि और मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में रफ्तार अपेक्षा से कहीं धीमी है. वहीं, देश की जीडीपी में आधे से ज़्यादा की हिस्सेदारी की हैसियत रखने वाले सेवा क्षेत्र के लिए रोजगार गारंटी एक चुनौती बनी हुई है. ऐसे में अर्थव्यवस्था के दरवाजे 15 देशों के उत्पादों की पलटन के लिए खोलने में नफे से ज़्यादा नुकसान का सौदा साफ नज़र आ रहा था.


मोदी सरकार विपक्ष को नहीं देना चाहती कोई मौका 


आर्थिक रंगत वाले इस राजनीतिक फैसले के पीछे सरकार के रणनीतिकारों की गणना में महाराष्ट्र और हरियाणा के फीके चुनावी नतीजों के असर को भी पूरी तरह से खारिज नहीं किया जा सकता. ऐसे में जबकि सत्ता की दूसरी पारी में मोदी सरकार का साल भर भी पूरा न हुआ हो, आर्थिक मोर्चे पर कोई नया दुस्साहस जनसमर्थन की मचान हिला सकता है. साफ है बीजेपी ऐसा कोई मौका नहीं देना चाहती जो विपक्ष को खड़े होने का मौका दे. देश के एक दर्जन से ज़्यादा सूबों में सत्तारूढ़ बीजेपी के सियासी तराजू में विश्व आर्थिक समीकरणों से ज़्यादा वजन आने वाले चार सालों के लिए अपने सियासी समीकरणों का है. अपने जीते हुए किलों को बचाने के साथ ही खोए गढ़ हासिल करना पार्टी की प्राथमिकताएं हैं.


मोदी सरकार ने एक तीर से साधे कई निशाने


आसियान मंच से भारत के इनकार की खबर ने सरकार के खिलाफ आर्थिक मोर्चे पर व्यापक आंदोलन बनाने की कांग्रेसी कोशिशों का करंट भी कुछ कम ज़रूर कर दिया. आरसीईपी में भारत की हिस्सेदारी को लगभग तय मानते हुए ही कांग्रेस ने इसके खिलाफ सड़क से लेकर संसद तक 5 नवम्बर से व्यापक विरोध की योजना बनाई थी. हालांकि, पीएम की तरफ से आए ऐलान के बाद इसमें से आरसीईपी जैसा बड़ा मुद्दा छंट गया. ऐसे में कांग्रेस पार्टी ने आरसीईपी को लेकर मोदी सरकार के इनकार के पीछे अपने दबाव का असर बताते हुए कॉलर संभाली.


आरसीईपी को लेकर भारतीय उद्योग जगत के बड़े खिलाड़ी भी अपनी फिक्र जता चुके थे. कई बड़ी कंपनियां और उद्योगपति आगाह कर चुके थे कि यदि पर्याप्त सुरक्षा इंतजामों के बिना इसे लागू किया गया तो भारत के लिए इसके आर्थिक दुष्परिणाम घातक हो सकते हैं. ऐसे में सरकार यदि आरसीईपी की राह पर इन चिंताओं को दरकिनार कर आगे बढ़ती तो समर्थन के कुछ अहम सहारे छिटक सकते थे. इतना ही नहीं आरसीईपी से इनकार कर केंद्र की सत्तारूढ़ बीजेपी सरकार ने संघ परिवार में सहोदर स्वदेशी जागरण मंच जैसे पारिवारिक सदस्यों का भी मन रख लिया है. स्वदेशी जागरण मंच समेत संघ परिवार के कई सदस्य संगठन इसको लेकर न केवल फिक्र जता चुके थे बल्कि सड़कों पर उतर प्रदर्शन भी कर चुके थे.


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