मुंबई: हाल ही में मेडिकल जर्नल लैंसेट में एक रिपोर्ट छपी. यह रिपोर्ट मलेरिया की दवा हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वीन के कोरोना के इस्तेमाल पर थी. लांसेट की रिपोर्ट के मुताबिक हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वीन दवा कोविड 19 में लेने से कोई फायदा नहीं होता बल्कि इसके नुकसान ज्यादा हैं. रिपोर्ट के बाद डब्ल्यूएचओ ने हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वीन के क्लिनिकल ट्रायल पर रोक लगा दी. लांसेट में छपी इस रिपोर्ट पर भारतीय वैज्ञानिकों ने कई सवाल खड़े किए है.


भारत की प्रतिष्ठित संस्था सीएसआईआर यानी काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च के महानिदेशक डॉ शेखर मांडे ने डब्ल्यूएचओ और लैंसेट को चिट्ठी लिखकर इस रिपोर्ट और ट्रायल रोके जाने पर कई सवाल खड़े किए हैं.


सीएसआईआर के महानिदेशक के मुताबिक इस रिसर्च में कई गलतियां है. उनके मुताबिक यह एनालिसिस सही नहीं और इस आधार पर इस दवा का सोलिडेरिटी क्लीनिकल ट्रायल नहीं रोकना चाहिए था. उनके मुताबिक वह इसे वैज्ञानिक दृष्टि से साबित कर सकते है.


डॉ शेखर मांडे, डीजी, सीएसआईआर के मुताबिक लैंसेट में जब यह रिसर्च छपी उसके बाद इस रिसर्च के आधार पर डब्ल्यूएचओ ने दुनिया में हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वाइन के जो ट्रायल चल रहे थे उन्हें टेंपरेरी होल्ड किया है. इसी तरह काफी सारे देशों ने भी रिएक्ट किया जैसे फ्रांस और ऑस्ट्रेलिया ने फिलहाल हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वीन का ट्रायल नहीं करने का फैसला किया है.


डॉ मांडे ने कहा, ''इस रिसर्च में लिखा गया था की मरीज को हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वीन देने से कोई फायदा नहीं बल्कि नुकसान होता है. इसलिए उन लोगों ने  ट्रायल को रोक दिया. हमारा मानना है कि इस पर्ची में काफी सारे सवाल है, यह कोई सही स्टडी नहीं है इसीलिए हमने डब्ल्यूएचओ और लैंसेट को लिखा है कि आप अपने फैसले पर पुनर्विचार करें हम आपको विज्ञान के आधार पर कह रहे हैं कि इस पर्ची के निष्कर्ष सही नहीं है.''


सीएसआईआर के महानिदेशक ने इस रिपोर्ट में सबसे पहले इसके विश्लेषण यानी एनालिसिस के समय पर सवाल उठाया है. लैंसेट की रिसर्च के मुताबिक ये रिसर्च 20 दिसंबर से 14 अप्रैल के बीच हुई जबकि इसके पहले 31 दिसम्बर तक निमोनिया के लक्षण जैसे रोग की बात कही जा रही थी. वहीं दुनिया में पहला कोरोना का मरीज चीन के वुहान में जनवरी में सामने आया था. वहीं जनवरी में ही वर्ल्ड हैल्थ ऑर्गनाइजेशन ने दुनिया को इस बीमारी के बारे में बताया था.


डॉ शेखर मांडे ने कहा, ''इसके काफी सारे अपने पहलू हैं, बहुत सामान्य से पहलू जो है वह ऐसे हैं- उन्होंने 20 दिसंबर 2019 से 14 अप्रैल 2020 तक पूरी दुनिया के अस्पतालों के रिकॉर्ड स्कैन किए. 20 दिसंबर से अगर हम अस्पताल के रिकॉर्ड की शुरुआत करते हैं और अस्पताल में अगर rt-pcr सैंपल पॉजिटिव मिलता है उसके बाद उन्होंने उसको आगे परीक्षण निरीक्षण किए हैं. पहला इंसिडेंट 31 तारीख को चीन में जो रिकॉर्ड हुआ उसमें काफी सारे निमोनिया के लक्षण वाले मरीज आए. 5 जनवरी को डब्ल्यूएचओ ने कहा कि इसके लक्षण सार्स जैसे लग रहे हैं. 7 जनवरी को पहला सीक्वेंस सबके सामने उपलब्ध हुआ और पता चला कि एस्सार वायरस की वजह से है. 31 दिसंबर तक सार्स वायरस का पता ही नहीं था निमोनिया जैसे लक्षण थे तो उन्होंने 20 दिसंबर से क्यों सैंपल लिया.''


वहीं वह लैंसेट रिसर्च में इस दवा के असर के निष्कर्ष पर सवाल उठा रहे है. उनके मुताबिक ये दवा किन मरीजों यानी माइल्ड या मॉडरेट या सीरियस पेशंट या किसी ऐसे मरीज को दी गई है जो क्रिटिकल है और कब इस पर ज्यादा नहीं कुछ कहती. उल्टे इस रिसर्च में लिखा गया था की हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वीन देने से कोई फायदा नहीं बल्कि मरीज को नुकसान होता है.


डॉ मांडे के मुताबिक इससे ज्यादा गंभीर सवाल यह है कि जब आप अस्पताल के रिकॉर्ड का परीक्षण और निरीक्षण करते हैं तो उसमें भी आपने किन मरीजों का स्टडी किया है. जो अस्पताल में आए हैं जो सीरियस है या जिनको वेंटिलेटर पर ले जाने की जरूरत नहीं है, किस तरह के मरीज को सिलेक्ट किया है. वैसे भी यह ब्लाइंडेड ट्रायल नहीं है इसे ऑब्जरवेशन स्टडी कहते हैं. देखिए है जब तक आपका कंट्रोल ग्रुप सही नहीं है तब तक आपका एवर मॉडल जो होता है स्टैटिसटिक्स में तो जवाब एयर देखते हो किसी चीज में तो उसको स्टैटिसटिक्स के टर्म मैं सीआई कहते हैं यह टाइम स्टैटिसटिक्स मॉडल अगर सही हो तब अप्लाई कर सकते हैं. लेकिन इनका स्टैटिसटिकल मॉडल ही गलत है. इसलिए इसके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता कि जिनको हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वाइन दिया है उनमें ज्यादा मौतें हुई हैं.


डॉ शेखर मांडे का मानना है की लैंसेट की रिपोर्ट जिस टाइम फ्रेम में एनालिसिस की गई और कब कौन से मरीज को दी गई है इसे रिसर्च पर असर पड़ता  है. लैंसेट की आब्जर्वेशन और निष्कर्ष की वजह से वर्ल्ड हैल्थ ऑर्गनाइजेशन ने हाईड्रोक्सी क्लोरोक्वीन का ट्रायल रोका है. यही वजह है की साइंटिफिक आधार पर वो उसको चुनौती दे रहे है. वहीं दोबारा से हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वाइन का ट्रायल डब्ल्यूएचओ को नहीं शुरू करना चाहिए.


डॉ शेखर मांडे ने कहा, ‘इसलिए हमारा मानना है कि इस रिसर्च में काफी सारे सवाल है ये कोई सही स्टडी नहीं है इसीलिए हमने डब्ल्यूएचओ और लैंसेट को लिखा है कि आप अपने फैसले पर पुनर्विचार करें हम आपको विज्ञान के आधार पर कह रहे हैं कि इस पर्ची के निष्कर्ष जो हैं वह सही नहीं है.’


अमेरिका और कई देशों ने भारत से ये दवा मांग कर ली थीं वहीं अमेरिका के राष्ट्रपति इस दवा का सेवन कर रहे थे. भारत ने भी कई देशों में ये दवा भेजी है.


भारत में इस समय हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वाइन आईसीएमआर के गाइडलाइन के मुताबिक हैल्थ केयर वर्कर, फ्रंटलाइन वर्कर (जो कोरोना रोकथाम में काम कर रहे है), पुलिस और अर्धसैनिक बल (जो इस काम में हैं). इसके अलावा कन्फर्म केस के सम्पर्क में आए लोग और क्लोज कॉन्टैक्ट. वहीं इसकी डोज भी  निर्धारित है. हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वाइन नाम की दवा से मलेरिया जैसी बीमारी का इलाज होता है. वहीं इससे गठिया और त्वचा रोग में भी इस्तेमाल किया जाता रहा है. ये दवा 70 साल से इस्तेमाल में है और इसका फायदा नुकसान पता है.


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