नई दिल्लीः पाकिस्तान के बालाकोट में आतंकी ठिकानों पर हवाई हमले से लेकर अंतरिक्ष में सैटेलाइट को मार गिराने की क्षमता तक, बीते एक महीने के दौरान हुई इन घटनाओं ने भारत के सुरक्षा संविधान में दो बड़े संशोधनों पर मुहर लगा दी है. पाकिस्तान के भीतक एयर स्ट्राइक ने जहां आतंकवाद पर पलटवार के लिए सीमा की अवधारणा को मिटा दिया है वहीं ए-सैट क्षमता के प्रदर्शन ने दिखा दिया है कि भारत अपने हितों की हिफाजत के लिए अंतरिक्ष की हदों तक जाने को तैयार है.
जानकारों के मुताबिक बालाकोट एयर स्ट्राइक और एंटी सैटेलाइट प्रहार क्षमता का प्रदर्शन भारत के सुरक्षा प्रतिष्ठान में बरसों से चली आ रही झिझक टूटने की निशानी है. भारत के पूर्व डिप्टी एनएसए सतीश चंद्रा इन घटनाओं को परमाणु परीक्षण, बांग्लादेश निर्माण में सैन्य मदद जैसे बड़े फ़ैसलों के बराबर तौलते हैं. एबीपी न्यूज़ से बातचीत में चंद्रा कहते हैं कि दोनों घटनाओं को कतई छोटा नहीं आंका जा सकता. इसके जरिए भारत ने बताया कि वो बोल्ड कदम उठाने को तैयार है. बालाकोट की एअर स्ट्राइक, शांतिकाल की पहली ऐसी घटना है जिसमें भारत ने प्रहार के लिए वायुसेना का इस्तेमाल किया है. साथ ही यह भी बता दिया कि अब वो आतंकवाद के खिलाफ एलओसी या आईबी को लांघने के लिए भी तैयार है. जबकि 1999 के कारगिल युद्ध में भी जहां लड़ाकू विमानों को नियंत्रण रेखा पार करने की इजाज़त नहीं दी गई थी वहीं 1962 में चीन के साथ युद्ध में वायुसेना का प्रयोग ही नहीं किया गया. इसी तरह सैटेलाइट को मार गिराने की क्षमता का ऐलान, भारत को न केवल अगली पंक्ति के मुल्कों में शुमार करता है बल्कि उसकी ताकत का नया हस्ताक्षर भी है.
चंद्रा कहते है कि 1965 में जब प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने युद्ध के दौरान अंतरराष्ट्रीय सीमा लांघ सेना को पाकिस्तान में दाखिल होने की इजाज़त दी या प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बांग्लादेश के निर्माण में सैन्य सहायता देने का फैसला लिया, तो यह भारत के सुरक्षा प्रतिष्ठान के धारा-बदल परिवर्तन थे. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने 1998 में परमाणु परीक्षण का निर्णय किया तो उसने भारत में सुरक्षा सोच की धारा का रुख मोड़ दिया. साथ ही भारत के प्रति दुनिया का नज़रिए को भी बदला.
दरअसल, भारत के सुरक्षा प्रतिष्ठान में लंबे समय से मध्यमार्गी सोच का बोलबाला रहा जो मुखरता से परहेज और तटस्थता को हमेशा पसंद करती रही. गुटनिरपेक्षता आंदोलन जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों में दशकों तक भारत की सक्रियता और स्वीकार्यता ने इस मध्यमार्गी सोच को जड़ों को खूब सींचा. लिहाजा, जब कभी भारत ने कुछ मुखर कदम उठाए तो उसने दुनिया को भी चौंकाया.
मगर क्या वाकई भारत का एंटी सैटेलाइट लॉन्च 1998 के परमाणु परीक्षण जैसा कदम है? अगर है तो क्या इसके बाद भारत को कुछ प्रतिबंधों का भी सामना करना पड़ सकता है? जानकारों के मुताबिक भारत की वैज्ञानिक क्षमताओं का यह प्रदर्शन न केवल काबीलियत की ऊंची छलांग है बल्कि एक मुखर वक्तव्य भी है. ख्यात मिसाइल वैज्ञानिक और पूर्व डीआरडीओ प्रमुख डॉ अविनाश चंदर ने एबीपी न्यूज से बातचीत में कहा कि इस परीक्षण ने अंतरिक्ष को भारत की सुरक्षा सोच का हिस्सा बना दिया है. यह दिखा दिया है कि भारत अपने हितों की रक्षा के लिए अंतरिक्ष तक जा सकता है. यह तकनीकी क्षमता प्रदर्शन है जिसके आयाम व्यापक हैं.
हालांकि डॉ. चंदर इस परीक्षण के बाद भारत के खिलाफ किसी तरह के प्रतिबंधों की कोई संभावना नहीं देखते. उनके मुताबिक इस क्षमता प्रदर्शन से भारत ने न तो कोई अंतरराष्ट्रीय नियम तोड़ा है और न ही किसी अन्य देश के हितों को नुकसान पहुंचाया है. इस परीक्षण के बाद विदेश मंत्रालय की ओऱ से जारी एक प्रश्नोत्तरी में भी प्रमुखता से इस बात पर जोर दिया गया कि भारत न तो अंतरिक्ष में हथियारों की किसी दौड़ में शामिल हो रहा है और न ही इसके निशाने पर कोई मुल्क है. बल्कि, भारत अंतरिक्ष में हथियारों के इस्तेमाल के खिलाफ 1982 से चली आ रही प्रीवेंशन ऑफ आर्म्स रेस इन आउटर स्पेस( पारोस) का सक्रिय पक्षधर है. साथ ही भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव 69/32 का भी समर्थक है जिसमें अंतरिक्ष में हथियार रखने की पहल न करने की बात कही गई है.
इस बीच भारत के एंटी-सैटेलाइट लॉन्च के बाद विश्व बिरादरी के बड़े मुल्कों की तरफ से भारत के खिलाफ किसी नकारात्मक प्रतिक्रिया का न आना भी एक कूटनीतिक उपलब्धि है.
परमाणु परीक्षण से लेकर एंटी-सैटेलाइट क्षमताओं तक भारत ने अपनी ताकत को संयम की सीमाओं में बांध रखा है. मई 1998 में पोखरण परीक्षण के साथ खुद को परमाणु शक्ति संपन्न देश घोषित करने के दो दशक बाद भी भारत लगातार नाभिकीय हथियारों को खत्म करने की सार्वभौमिक व्यवस्था का हिमायती है. इसके लिए संयुक्त राष्ट्र समेत परमाणु अप्रसार के विभिन्न मंचों पर इसकी पुरजोर वकालत भी करता आ रहा है.
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