India China Relation: हाल के कुछ वर्षों में भारत-चीन (India-China) के संबंध सबसे बुरे दौर में पहुंच चुका है. अरुणाचल प्रदेश के तवांग (Tawang) में चीन की सैनिकों ने जो उकसावे वाली कार्रवाई की है, उस पर भारत में तो संसद से सड़क तक चर्चा हो ही रही है. अंतर्राष्ट्रीय नजरिए से भी ये मुद्दा बहुत बड़ा बन गया है. अमेरिका के साथ ही संयुक्त राष्ट्र ने भी इस घटना पर अपनी प्रतिक्रिया दी है.


दरअसल इस वक्त दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्तियों में भारत और चीन दोनों की गिनती होती है. चाहे अर्थव्यवस्था हो या फिर जनसंख्या के लिहाज से बाज़ार का गणित, इन दोनों देशों की ताकत जगजाहिर है. ऐसे में इन दोनों देशों के बीच किसी भी तनाव का असर दुनिया के बाकी देशों के अर्थव्यवस्था पर भी पड़ता है. यही वजह है कि संयुक्त राष्ट्र (United Nations) से लेकर अमेरिका (USA) तक ने अपने बयान जारी किए हैं.


सीमा पर तनाव कम करने की अपील


भारत और चीन दोनों ही तवांग की 9 दिसंबर की घटना के बाद कह रहे हैं कि वे कूटनीतिक और सैन्य चैनलों के जरिए सीमा संबंधी मुद्दों पर सपंर्क बनाए हुए हैं. संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस (Antonio Guterres) ने भारत और चीन दोनों देशों से  सीमा पर तनाव को कम करने की अपील की है. संयुक्त राष्ट्र की ओर ये प्रतिक्रिया ऐसे वक्त में आई है, जब भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर (S Jaishankar) न्यूयार्क के दौरे पर हैं.  


चीन को लेकर अमेरिका का चेतावनी भरा लहजा


वहीं अमेरिका ने भी सीमा से जुड़े विवाद को आपसी बातचीत के जरिए सुलझाने की बात कही है. हालांकि अमेरिका ने चीन के रवैये की निंदा करते हुए कहा है कि वो वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) के आसपास के इलाके पर दावे के किसी भी एकतरफा कोशिश का कड़ा विरोध करता है. अमेरिका ने तो इतना तक कह दिया है कि चीन एलएसी के इलाकों में बुनियादी सैन्य ढांचा बनाने और सैनिकों को बढ़ाने में जुटा है और वो तनाव को कम करने के लिए भारत के प्रयासों के साथ है. पेंटागन के प्रेस सचिव पैट रायडर (Pat Ryder)ने तो एक तरह से चीन को चेतावनी भरे लहजे में कह दिया है कि अमेरिका अपने सहयोगी देशों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की प्रतिबद्धता पर कायम है.  


तवांग की घटना ऐसे वक्त में हुई है,  जब मई 2020 में पैंगोंग झील क्षेत्र में झड़प  के बाद पूर्वी लद्दाख सीमा गतिरोध का हल निकालने के लिए दोनों देश कमांडर स्तर की 16 दौर की बातचीत कर चुके हैं. दरअसल भारत और चीन के संबंधों में उतार-चढ़ाव होते रहे हैं. एक बात तो स्पष्ट है कि दोनों देशों के बीच किसी समय में संबंध कितने भी मजबूत हुए हो, लेकिन तल्खी का इतिहास उस पर हमेशा ही हावी रहा है.


बढ़ते व्यापार के बावजूद नहीं सुधर रहे रिश्ते


सीमा विवाद सुलझाने में तो भारत और चीन पिछले 7 दशकों से कामयाब नहीं हो पाए हैं. इसके बावजूद दोनों देशों के बीच कारोबारी रिश्ते लगातार मजबूत हुए हैं. भारत-चीन व्यापार  लगातार बढ़ रहा है.  पिछले 10 सालों में द्विपक्षीय व्यापार में 10 गुना का इजाफा हुआ है.
2021-22 में भारत और चीन के बीच  115 अरब डॉलर का व्यापार हुआ. इस साल भारत-चीन के बीच व्यापार में 43.3 का इजाफा दर्ज किया गया है. ये पिछले साल की तुलना में 65.21 अरब डॉलर ज्यादा है.  


20 साल में बढ़ा 50 गुना से ज्यादा कारोबार


2001 में दोनों देशों के बीच महज 1.83 अरब डॉलर का व्यापार था.  20 साल के भीतर ही ये 100 अरब डॉलर पार कर गया. आंकड़े बता रहे हैं कि भारत-चीन के बीच कारोबारी रिश्ता फिलहाल सबसे उच्च स्तर पर पहुंचा हुआ है.  व्यापारिक संबंधों के लिहाज से ये दोनों देशों के लिए स्वर्णिम काल जैसा हो गया है. सीमा पर तनाव के का असर दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय करोबार  पर बिल्कुल नहीं दिख रहा है. 


लगातार बढ़ रहा है व्यापार घाटा 


व्यापार तो बढ़ रहा है, लेकिन भारत के लिए चिंता की बात व्यापार घाटे में तेजी से बढ़ोत्तरी है.  चीन के साथ हमारा व्यापार घाटा लगातार बढ़ रहा है. वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल (Piyush Goyal) ने खुद इसपर चिंता जाहिर की है. सरकार का मानना है कि भारत कई चीजों के लिए चीन पर निर्भर होता जा रहा है. 2003-2004 में चीन से भारत का आयात करीब 4.34 अरब डॉलर का था. साल 2013-14 आते-आते ये बढ़कर 51.03 अरब डॉलर तक पहुंच गया. इन 10 वर्षों की अवधि में आयात दस गुना से भी ज्यादा बढ़ गया. 2004-05 में भारत और चीन के बीच 1.48 अरब डॉलर का व्यापार घाटा था.  2013-14 में यह बढ़कर 36.21 अरब डॉलर हो गया.  2020-21 में चीन ने भारत को 65.21 अरब डॉलर मूल्य का सामान निर्यात किया था. वित्त वर्ष 2021-22 में इसमें तेज इजाफा हुआ. इस वर्ष चीन ने 94.57 अरब डॉलर मूल्य का सामान भारत को निर्यात किया. वित्त वर्ष 2020-21 के दौरान भारत और चीन के बीच व्यापार घाटा 44.33 अरब डॉलर का हो गया. दिलचस्प पहलू ये है कि अगले वित्त वर्ष के दौरान यह बढ़कर करीब 73 अरब डॉलर पर पहुंच गया. 2013-14 से तुलना करें तो सिर्फ 6 साल में व्यापार घाटा दोगुना हो गया है. वित्त वर्ष 2022-23 में अप्रैल से लेकर अक्टूबर तक ये घाटा 51.5 बिलियन डॉलर पर पहुंच गया है 


बढ़ता व्यापार घाटा भारत के लिए चिंता 


व्यापार घाटा चीन के पक्ष में है और भारत के लिए नकारात्मक पहलू है. इससे जाहिर होता है कि द्विपक्षीय कारोबार में भारत आयात ज्यादा कर रहा है और निर्यात कम कर रहा है. ये एक बड़ी वजह है जिसे चीन बखूबी समझता है. उसे मालूम है कि भारत फिलहाल कई चीजों के लिए उसपर निर्भर है. ऐसे में सीमा पर तनाव के बावजूद कारोबार पर असर नहीं पड़ेगा. भारत के नजरिए से इस पहलू पर तेजी से काम करने की जरुरत है.  


भारत में चीनी कंपनियों का जाल


एक दिलचस्प पहलू जानना बेहद जरूरी है. भारत में इस वक्त 174 चीनी कंपनियां हैं, जो विदेशी कंपनियों के तौर पर रजिस्टर्ड हैं.  इसमें चीनी निवेशकों और शेयरधारकों वाली कंपनियों की संख्या शामिल नहीं है. केंद्र सरकार के मुताबिक इस तरह के आंकड़े अलग से नहीं रखे जाते. कॉर्पोरेट डाटा प्रबंधन (CDM) के आंकड़ों के मुताबिक भारत में 3560 कंपनियां ऐसी हैं, जिनमें चीनी डायरेक्टर हैं. ये आंकड़े भी बता रहे हैं कि भारत-चीन व्यापार के लिहाज से एक-दूसरे से कितने जुड़े हुए हैं.


बहिष्कार मुहिम का भी नहीं हुआ असर


जून 2020 गलवान में चीन के कायरतापूर्ण कार्रवाई के बाद भारत में लोगों के बीच चीनी सामानों के बहिष्कार की मुहिम चली थी. भारत सरकार ने टिकटॉक, वीचैट, हैलो समेत दो सौ से ज्यादा चाइनीज ऐप्स को प्रतिबंधित कर दिया था. चीन अपने सामानों पर मेड इन चाइना की जगह पर मेड इन PRC(पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना) लिखने को मजबूर हो गया था. हालांकि इन तमाम कोशिशों के बावजूद भारत-चीन व्यापार लगातार फलते-फूलते रहे हैं.


भारत-चीन संबंध सबसे बुरे दौर में


व्यापार संबंध तो उच्चतम स्तर पर पहुंच गया, लेकिन सीमा पर तनाव की वजह से दोनों देशों के बीच कूटनीतिक संबंधों में सुस्ती आते गई.  पिछले साल नवंबर में सिंगापुर में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भी कहा था कि भारत और चीन के संबंध सबसे खराब दौर में पहुंच गया है. इसके लिए उन्होंने चीन के रवैये को जिम्मेदार बताया था. उन्होंने कहा था कि चीन ने सीमा पर उकसावे की कार्रवाईयों के जरिए समझौतौं का उल्लंघन किया है और इसके लिए चीन के पास कोी ठोस जवाब नहीं है.


दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंधों की शुरुआत


भारत-चीन के बीच राजनयिक संबंधों के इस साल 72 साल पूरे हो गए हैं. भारत ने आजादी के बाद से ही पड़ोसी देशों के साथ दोस्ताना कूटनीतिक संबंधों पर ज़ोर दिया. भारत 15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश शासन से आजाद हुआ. वहीं  1949 में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के तौर पर चीन देश अस्तित्व में आया. 20 साल तक चले गृह युद्ध के बाद चीन इस रूप में अस्तित्व में आया. भारत ने एक अप्रैल 1950 से चीन के साथ राजनयिक संबंधों की शुरुआत की. भारत चीन के साथ ऐसा करने वाला पहला गैर समाजवादी ब्लॉक का देश था. करीब एक दशक तक दोनों देशों के रिश्ते ठीक-ठाक आगे बढ़ते रहे. 


'हिंदी चीनी भाई-भाई' का इतिहास


 
चीन के पहले प्रीमियर झ़ोउ एनलाई ने जून 1954 में भारत का दौरा किया और भारत के  पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अक्टूबर 1954 में चीन का दौरा भी किया. 1954 में नेहरू और झ़ोउ एनलाई के बीच पंचशील सिद्धांत को लेकर समझौता हुआ. ये शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के पंचशील समझौते के नाम से मशहूर है. इसके तहत भारत ने तिब्बत पर चीन के अधिकार को मान्यता दी थी. इसके बाद 'हिंदी चीनी भाई- भाई'  सुनाई दे रहा था. तत्कालीन प्राधनमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी इस नारे का समर्थन किया था.  


पंचशील सिद्धांत में पांच बातें थी, जिसे दोनों देश मानने को तैयार हुए. 


1. क्षेत्रीय अखंडता और प्रभुसत्ता का सम्मान करना
2. दूसरे देश के आंतरिक मामलों में दखल नहीं देना
3. दूसरे देश पर आक्रमण नहीं करना
4. परस्पर सहयोग और लाभ को बढ़ावा देना
5. शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की नीति का पालन 


दलाई लामा को शरण के बाद बिगड़े हालात 


पंचशील पर सहमति बनने के बाद दोनों देशों के बीच सबकुछ ठीक चल रहा था. हालात 1959 में फिर से बिगड़ गए. तिब्बती विद्रोह के बाद मार्च 1959 में वहां के सबसे बड़े आध्यात्मिक गुरू दलाई लामा भारत आ गए और भारत ने उन्हें शरण दी. इससे चीन के साथ भारत के रिश्तों में तल्खी बढ़ गई. पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के नेता माओत्से तुंग ने तिब्बत के ल्हासा विद्रोह के लिए भारत को ही जिम्मेदार बता दिया. संबंध इतने खराब हो गए कि 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया. इस युद्ध में भारत को काफी नुकसान उठाना पड़ा. 1962 के युद्ध से ये साबित हो गया कि अगले कई सालों तक 'हिंदी चीनी भाई- भाई' की नारे की सार्थकता खत्म हो गई है.


1976 में फिर से बहाल हुए राजनयिक संबंध


1976 में दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंध फिर से बहाल हुए.  वक्त के साथ-साथ आपसी संबंधों में सुधार दिखा.  20 फरवरी 1987 को भारत ने अरुणाचल प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया. इस फैसले के बाद चीन भारत से नाराज  हुआ.  1988 में भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने चीन का दौरा किया. इस दौरान दोनों देश सीमा विवाद का सामाधान निकालने के उपायों पर काम करने के लिए राजी हुए. 1992 में तत्कालीन राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन चीन का दौरा करने वाले पहले भारतीय राष्ट्रपति बने. 


1996 में पहली बार चीनी राष्ट्रपति का भारत दौरा


नवंबर 1996 में चीन के राष्ट्रपति जियांग जेमिन की भारत यात्रा से रिश्तों को बेहतर बनाने की नई उम्मीद जागी.  ये पिपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना बनने के बाद किसी राष्ट्राध्यक्ष की पहली भारत यात्रा थी.  चीन को आजादी मिलने के बाद वहां के किसी राष्ट्रपति को भारत पहुंचने में 47 साल का वक्त लग गया. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि चीन भारत से रिश्ते सुधारने को लेकर कितना संजीदा था. जियांग जेमिन की यात्रा पर चार समझौते हुए. इसमें सीमा पर शांति बहाली के उपायों पर काम करने से जुड़ा करार भी था.  2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी चीन की यात्रा कर रिश्तों को बेहतर बनाने की कोशिश की. इस दौरान The Declaration on the Principles and Comprehensive Cooperation in China-India Relations)पर दोनों पक्षों ने  हस्ताक्षर किए. 


2006 में 10 सूत्रीय रणनीति पर बनी सहमति


2005 में चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ भारत की यात्रा पर आए. इस दौरान दोनों देशों ने शांति बहाली के लिए सामरिक और सहयोगात्मक साझेदारी बनाने पर सहमति जताई. नवंबर 2006 में चीन के राष्ट्रपति हू जिंताओं भारत आए. दोनों देशों ने साझा घोषणात्र जारी किया. इसमें दोनों देशों के बीच सहयोग को बढ़ाने के लिए 10 सूत्रीय रणनीति का जिक्र किया गया. भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने  जनवरी  2008  में चीन की यात्रा की. इस दौरान "21 वीं शताब्दी के लिए एक साझा विजन" के नाम से   संयुक्त दस्तावेज जारी किया गया.   2010  में चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ की भारत यात्रा पर पहली बार दोनों देशों ने 100  अरब डॉलर के द्विपक्षीय व्यापार का लक्ष्य तय किया. मार्च  2012  में ब्रिक्स शिखर बैठक के लिए हू जिंताओं की भारत यात्रा पर दोनों देशों ने  2012 को मैत्री और सहयोग वर्ष के रूप में मनाने फैसला किया. इसका मकसद दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक संबंधों को मजबूत करना था. 


संबंध बेहतर बनाने के लिए पीएम मोदी की पहल


नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद लगने लगा कि भारत-चीन दोनों ही रिश्तों को नई ऊंचाई पर ले जाने को तैयार हैं.  मई 2014 में नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने. केंद्र की सत्ता को संभालने के बाद  प्रधानमंत्री मोदी और शी जिनपिंग के बीच अबतक 20 मुलाकातें हुई हैं. इनमें से 18 मुलाकातें तो 6 साल के भीतर ही हो गई थी. इनमें एक-दूसरे देशों की यात्रा के साथ अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर हुई मुलाकात भी शामिल हैं. पिछले 9 साल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पांच बार चीन का दौरा किया है और शी जिनपिंग तीन बार भारत आ चुके हैं. प्रधानमंत्री बनने के बाद पीएम मोदी और जिनपिंग के बीच पहली मुलाकात ब्राजील में 15 जुलाई  2014 को हुई. इसमें सीमा विवाद हल करने पर दोनों नेताओं की सहमति बनी. मोदी के प्रधानमंत्री बनने के 4 महीने के भीतर ही चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग सितंबर में भारत की अपनी पहली द्विपक्षीय यात्रा पर आए. अभी भी अहमदाबाद में साबरमती नदी के किनारे झूले पर बैठे मोदी और जिनपिंग की तस्वीरें लोगों के जेहन में हैं.  




प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने पहली बार मई 2015 में चीन की यात्रा की. इस दौरान दोनों देशों ने आपसी संबंधों को नई दिशा देने पर सहमति जताई. 



भारत-चीन अनौपचारिक शिखर सम्मेलन


 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन के साथ रिश्तों को मजबूत करने के लिए नया रास्ता निकाला. ये रास्ता भारत-चीन अनौपचारिक शिखर सम्मेलन के रूप में सामने आया. डोकलाम विवाद के उपजे तनाव के बीच चीन के वुहान में  अप्रैल 2018 को दोनों देशों  के बीच पहला अनौपचारिक शिखर सम्मेलन हुआ. इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग दोनों मतभेदों को दूर कर हर तरह के सहयोग को बढ़ाने पर सहमत हुए. वुहान शिखर सम्मेलन ने डोकलाम संकट से बने तनाव को कम करने में अहम भूमिका निभाई. दोनों देशों के बीच  दूसरा अनौपचारिक शिखर सम्मेलन तमिलनाडु के मामल्लपुरम अक्टूबर 2019 में हुई. इस दौरान नरेंद्र मोदी और जिनपिंग ने दोस्ताना माहौल में आपसी संबंधों के दायरे को बढ़ाने पर सहमति जताई. इस दौरान दोनों नेताओं ने सीमावर्ती इलाकों में शांति बनाए रखने को लेकर प्रतिबद्धता जाहिर की. हालांकि इसके बाद जून 2020 में गलवान में चीन सैनिकों के कार्रवाई के बाद भारत-चीन के रिश्तों ने फिर से यूटर्न ले लिया. निकट भविष्य में दोनों देशों के बीच तीसरे अनौपचारिक शिखर सम्मेलन की संभावना भी यहीं पर धूमिल हो गई. अब तवांग की घटना ने द्विपक्षीय वार्ता की रही-सही उम्मीदों को फिलहाल खत्म कर दिया है.


संबंध सुधारने के लिए चीन को बदलना होगा रवैया


लद्दाख और अरुणाचल में एलएसी पर तनाव बढ़ने की वजह से भारत-चीन के संबंधों में दरार फिर से बढ़ने लगा है. प्रधानमंत्री मोदी की पहल का ही नतीजा था कि दोनों देशों ने 2020 को इंडिया-चाइना कल्चरल पीपल टू पीपल एक्सचेंज का साल घोषित करने का निर्णय लिया था. इसके तहत अलगअलग स्तर पर 70 कार्यक्रम आयोजित होने थे. लद्दाख में सीमा पर तनाव बढ़ने की वजह से पीपल टू पीपल एक्सचेंज की ये पहल नाकाम हो गई. इसके लिए पूरी तरह से चीन जिम्मेदार है.  पड़ोसी देश के साथ रिश्ते बेहतर होना ही किसी भी देश की समृद्धि और शांति के लिए बेहद जरूरी है. भारत तो इस दिशा में लगातार सार्थक कोशिश करते रहा है, लेकिन चीन की ओर से हमेशा ही ढुलमुल रवैया देखने को मिला है. राजनयिक संबंध तभी बेहतर बन सकते हैं, जब चीन सीमा पर उकसावे की हरकत बंद कर दे. इसके साथ ही भारत को चीन के बाजार पर निर्भरता कम करनी होगी और चीन के साथ बढ़ते व्यापार घाटे पर भी ध्यान देना होगा.  दोनों ही देशों को द्विपक्षीय संबंधों को बेहतर बनाने के लिहाज से सीमा विवाद का शांतिपूर्ण तरीके से समाधान खोजना ही होगा.


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