नई दिल्ली: कभी अबोला और कभी बातचीत, भारत और पाकिस्तान के रिश्ते अक्सर इन्हीं दो मौसमों से बंधे नजर आते हैं. दोनों में से किसी भी एक मुल्क में सत्ता की करवट अक्सर मौसम परिवर्तन का संदेश लेकर आती है. सो, पाकिस्तान में दो माह पहले इमरान सरकार की आमद ने वो किया जो 2014 में चुनावों के बाद हुआ था जब पीएम मोदी के शपथ समारोह ने भारत-पाक रिश्तों को नई शुरुआत का मौका दिया था. हालांकि अमन की कोशिशों के इतिहास और हादसों के घाव, फिलहाल भारत में चुनाव तक किसी बड़ी कोशिश के लिए जमीन नहीं देते. ऐसे में इमरान को अभी भारत में चुनावी समर पूरा होने का इंतजार करना होगा.


मई 2014 में भारत के चुनावी समर के नायक बनकर उभरे नरेंद्र मोदी को पहले-पहल बधाई देने वालों पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ भी थे. पीएम मोदी ने भी अपने शपथ ग्रहण समारोह को एक छोटे सार्क सम्मेलन में तब्दील करते हुए दक्षिण एशियाई पड़ोसियों को आमंत्रित किया. मोदी के न्यौते पर पाक प्रधानमंत्री समेत अनेक देशों के प्रमुख शरीक भी हुए. मगर सत्ता में 50 महीनों की पारी और पड़ोसियों के साथ संबंधों की सड़क पर तय सफर ने कितना बदला इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बीते दो साल से सार्क की बैठक आयोजित नहीं हो पाई है.


पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने पीएम मोदी की तरह से लिखे बधाई पत्र के जवाब में चिट्ठी में न केवल दोनों विदेशमंत्री की मुलाकात का प्रस्ताव दिया बल्कि इस्लामाबाद में सार्क शिखर सम्मेलन पर रजामंदी जताने का आग्रह किया. ध्यान रहे कि पठानकोट और उड़ी के आतंकी हमलों पर भारत की नाराजगी के बाद नवंबर 2016 में इस्लामाबाद को सार्क की तय बैठक टालनी पड़ी. नवंबर 2014 में काठमांडू के बाद से सार्क की बैठक अब तक नहीं हो सकी है.


बीते चार सालों में सार्क अब लगभग हाशिए पर जा चुका है. नेपाल और श्रीलंका के मंद सुर समर्थन के बावजूद भारत, बांग्लादेश और अफगानिस्तान फिलहाल इसके हक में नहीं हैं. बिम्सटेक को अधिक कारगर और वैकल्पिक क्षेत्रीय संगठन के तौर पर देख रहा भारत यह स्पष्ट कर चुका है कि जब तक माहौल ठीक नहीं होता तब तक क्षेत्रीय संगठन की बैठक संभव नहीं है. जाहिर है इसमें दक्षिण एशियाई मोहल्ले की सियासत से केवल पाकिस्तान और मालदीव बाहर हुए हैं जबकि नेपाल, श्रीलंका, भारत, भूटान और बांग्लादेश के पास अब भी बिम्सटेक का मंच मौजूद है.


बीते चार सालों में एक बार भारतीय पीएम पाकिस्तान गए तो एक बार पाक पीएम भारत आए. तीन बार दोनों विदेशी जमीन पर मिले तो तीन बार विदेश मंत्रियों की भी मुलाकातें हुई. मगर दोनों मुल्कों के रिश्तों पर कभी आतंकवाद व कश्मीर के मुद्दे पर भारत का रुख भारी रहा तो लंबे वक्त तक पाकिस्तान की अंदरूनी सियासी उठापटक ने बातचीत की गाड़ी को आगे नहीं बढ़ने दिया. नवाज शरीफ और सेना के साथ बिगड़े रिश्तों और कुलभूषण जाधव मामले ने शांति संवाद की खिड़कियों को भी बंद कर दिया.


हालांकि पाकिस्तान में जुलाई 2018 में आए चुनावी नतीजों के बाद से ही इमरान खान ने अपने सुर बदलकर भारत के साथ संबंध सुधारने को लेकर काम करने के संकेत देना शुरु कर दिए थे. भारत के एक कदम बढ़ाने पर अपनी ओर से दो कदम बढ़ाने की बात कर इमरान ने इसका इजहार भी शपथ लेने से पहले ही कर दिया था. वहीं नवजोत सिंह सिद्धू जैसे क्रिकेट के पुराने साथी के सहारे शांति का संदेश भी देने की कोशिश की. भारत में इमरान के तकरीब-ए-हलफदारी यानी शपथ समारोह में सिद्धू की शिरकत पर विवादों का बवंडर भले ही उठ रहा हो लेकिन इसने गुरुद्वारा करतारपुर साहिब के लिए गलियारा खोलने जैसे बीते करीब दो दशक से अटके मुद्दे को मौजूं बना दिया है.


पाकिस्तानी सेनाप्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा के साथ तालमेल के चलते इमरान खान एक आकर्षक पैकेज हैं. कभी सत्ता के किसी पद पर नहीं रहे इमरान जहां अपने आप को कुशल नेता साबित करना चाहेंगे वहीं सेना की कोशिश भी उन्हें कामयाब बनाने की होगी. ऐसे में भारतीय खेमा इमरान के साथ बातचीत का विकल्प सिरे से खारिज करने के मूड़ में नहीं है. यह बात और है कि बातचीत कि इन कवायदों में अभी नतीजों की उम्मीद से ज्यादा सतर्कता का पड़ा भारी है.