राज की बात: किसान संगठनों का आंदोलन वक्त के साथ कमजोर पड़ता जा रहा है?
बार्डर पर किसानों के बीच 10-12 फरवरी को दो दिन रहकर शोधकर्ताओं की पूरी टीम ने आंदोलन की वजह, प्रकार, आकार और उसके निहितार्थ निकालने की कोशिश की.
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करीब तीन माह हो गए किसान आंदोलन के दिल्ली के सिंघु, गाजीपुर और टीकरी बार्डर पर 90 दिन से किसान टिके हुए हैं. काफी तस्वीरें और रिपोर्ट आपने देखी होंगी. कभी ये कि किसानों का जमघट बढ़ गया है. बहुत ज्यादा लोग जुट गए हैं. अब जैसे-जैसे किसान संगठनों का आंदोलन खिंचता जा रहा है वैसे-वैसे वह कमजोर पड़ता भी दिख रहा है. तीनों बार्डर से जमावड़ा घटने लगा है इसकी तस्वीरें भी आपने देखी होंगी.
इतने दिन से लोग डटे हैं तो क्यों? और जो चले गए वो क्यों गए? जो रुके हैं, उनकी मानसिक स्थिति क्या है? वो क्या सोच रहे हैं? आखिर इसका भविष्य क्या है और किसान संगठन ये आंदोलन कितना खींच पाएंगे? इन सवालों पर क्या कभी गौर किया गया? तो आज राज की बात में हम इन सभी सवालों का जवाब लेकर आए हैं. खास बात है कि ये जवाब इकलौते मैंने नहीं ढूढ़े. चंद घंटों के लिए बार्डर पर जाकर ये निष्कर्ष नहीं निकाले गए हैं. वैज्ञानिक तरीके से तीनों बार्डर पर किसानों के बीच 10-12 फरवरी को दो दिन रहकर शोधकर्ताओं की पूरी टीम ने आंदोलन की वजह, प्रकार, आकार और उसके निहितार्थ निकालने की कोशिश की. इन शोधकर्ताओं ने किसानों के बीच जाकर सामाजिक, मानसिक और आर्थिक दृष्टिकोण को पढ़ने की कोशिश की. इसके आधार पर जो आकलन है, उस पर करेंगे हम आगे सिलसिलेवार चर्चा.
24 जनवरी से पहले और अबके हालात में क्या परिवर्तन आया है
इससे पहले राज की बात आपको बता दें कि फिलहाल दोनों बार्डर पर क्या हैं हालात. 24 जनवरी से पहले और अबके हालात में क्या परिवर्तन आया है. गाजीपुर बार्डर पर 24-25 जनवरी के बीच 10-12 हजार लोग थे तो अब ये संख्या दो से ढाई हज़ार रह गई है. सिंघु बार्डर पर संख्या 26 से पहले 50 हजार की थी तो आज करीब 15 हजार लोग हैं. इसी तरह दिल्ली के टोकरी बार्डर पर 26 जनवरी को करीब तीन हज़ार ट्रैक्टर थे और भीड़ क़रीब 90 हजार उसके बाद ये संख्या घटते-घटते करीब 20 हजार रह गई है. ट्रैक्टर अब 1500 के करीब हैं.
जाहिर तौर पर इस संख्या से ये तो स्पष्ट है कि आंदोलनकारियों की संख्या घट रही है. अब आते हैं उन सवालों पर जो शुरू में ही उठाए गए थे. सर्वेक्षण से एक बात स्पष्ट सामने आई कि आंदोलन में बैठे किसानों को तीनों कृषि क़ानूनों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है, लेकिन उनके दिमाग में ये बैठ गया है कि उनकी ज़मीन अंबानी और अडानी जैसे उद्योगपति हड़प लेंगे. सरकार के साथ विश्वास बहाली एक बड़ी चिंता का विषय है. फिर भी अब आंदोलनकारियों में वो उत्साह और जज्बा नहीं है ये भी सच्चाई है.
किसानों के भी राष्ट्रीय नेतृत्व को लेकर भी इन्हें भरोसा नहीं
सर्वेक्षण में सबसे अहम बात सामने आई कि ज्यादातर आंदोलनकारियों को उद्देश्य का पता नहीं. साथ ही विरोध के कारण अलग-अलग हैं. कुछ लाए गए हैं तो कुछ जुटाए गए हैं और कुछ प्रतिबद्धता के साथ भी अड़े हुए हैं. इनके बीच वामपंथी कार्यकर्ताओं का आवागमन खूब है और राजनीतिक तौर से जुड़े लोगों की संख्या भी खूब आती-जाती रही है. लेकिन जो डटे हुए हैं वो पंजाब और हरियाणा के छोटे-छोटे समूहों से आए लोग हैं जो अपने स्थानीय नेता के कहने पर ही पूरी तरह संचालित होते हैं.
राज की बात ये है कि सिंघु बार्डर पर पंजाब के 32 लोकल लीडर के साथ किसान आए हैं. इनके लोकल लीडर को जत्थेदार कहा जाता है और सभी अपने लीडर के कहने के हिसाब से ही चलते हैं. इसी तरह हरियाणा की 13 खाप पंचायत लोकल यूनिट यानी स्थानीय इकाई की तरह काम कर रही हैं. खास बात ये है कि ये सभी लोग अपने जत्थेदार या नेता पर भरोसा करते हैं. केंद्रीय नेतृत्व या सरकार की तरफ से जो दलीलें दी गईं उन्हें इन नेताओं ने गलत बता दिया. उस पर इनमें कोई तर्क या तथ्य पर बात नहीं कर रहा. हालांकि किसानों के भी राष्ट्रीय नेतृत्व को लेकर भी इन्हें भरोसा नहीं. सब अलग-अलग बात कर रहे हैं और किसी एक नेता की बात सुनने को तैयार नहीं हैं.
राज की सबसे बड़ी बात है कि जो अभी तक जुटे हुए हैं उनमें से 40 फीसद किसानों ने माना कि वे अब थक चुके हैं. इसके बावजूद वे लगातार धरनास्थल पर डटे रहने का नारा बुलंद कर रहे हैं. इसके पीछे प्रमुख बात है कि निर्बाध भोजन-पानी और मनोरंजन आदि की सुविधायें वहाँ पर उपलब्ध होना. ये काम कहीं कुछ स्थानीय लोग भी कर रहे हैं, लेकिन मुख्यतः गैरसरकारी संगठन, राजनीतिक दल और तमाम प्रवासी भारतीय भी मदद कर रहे हैं. पर इसमें भी अब स्थानीय स्तर पर इनका समर्थन कम हो रहा है. टोकरी बार्डर के व्यवसाई जहां धंधा न चलने के सपरेशन हो रहे हैं. वहीं बुवाई और अगली फसल की चिंता और लगातार एक जैसा खाना खाकर बीमार भी लोग पड़ रहे हैं. इस वजह से तमाम लोग धरनास्थल से चले भी गए हैं.
तमाम किसानों में हताशा बढ़ रही है
सर्वेक्षण में 84 फीसद लोगों को सर्द-गर्म मौसम की चुनौतियां और बैसाखी से खेतों में बुवाई आदि की चिंता भी सकता रही है. ऐसे में लोगों को जुटाने के लिए किसान संगठनों की तरफ से गरमी में कूलर और शराब या सिगरेट जैसे नशे के आदी लोगों को वो भी मुहैया कराने का लगातार आश्वासन दिया जा रहा है. नशे के आदी लोगों को यहां रुकने में ज़रूर सुख नज़र आ रहा है. जबकि, तमाम किसानों में हताशा बढ़ रही है और उनको अपने खेतों की चिंता सता रही है.
मौजूदा हालात और सर्वेक्षण की रिपोर्ट से ये तो साफ है कि लंबे समय तक आंदोलन से खेतों में काम करने वाले किसानों का जुटे रहना असंभव है. मगर जिस तरह से तमाम एनजीओ, राजनीतिक दल और किसान संगठन अड़े हुए हैं, उससे तंबू इतनी जल्दी उखड़ना संभव नहीं होगा, भले ही आंदोलन दिन पर दिन कमजोर पड़ रहा हो.
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