पूर्वोत्तर के तीन राज्यों मेघालय, नागालैंड और त्रिपुरा के विधानसभा चुनावों की तारीखों का ऐलान कर दिया गया है. त्रिपुरा में 16 फरवरी को मतदान होगा तो वहीं दो राज्यों में 27 फरवरी को वोट डाले जाएंगे. इन तीनों राज्यों में ही बीजेपी या उनके गठबंधन की सरकार है. ऐसे में जानते हैं कि इस बार के चुनाव में बीजेपी के सामने कौन-कौन सी चुनौतियां आ सकती है.

त्रिपुरा में भारतीय जनता पार्टी ने साल 2018 में 25 साल की सत्ता को प्रचंड बहुमत के साथ ध्वस्त कर इतिहास रचा था. पिछले विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने 60 सीटों में से सहयोगी दल के साथ मिलकर 43 सीटें अपने नाम की थी. वहीं 25 साल से राज कर रहे सीपीएम को केवल 16 सीटों से संतुष्ट करना पड़ा था.


अब राज्य में एक बार फिर चुनाव की तारीख तय होने के साथ ही बीजेपी के सामने सत्ता में खुद को बनाए रखने की चुनौती है. इस बार कांग्रेस ने सीपीएम के साथ हाथ मिलाया है. 11 जनवरी को सीपीएम के महासचिव सीताराम येचुरी ने कहा कि वह बीजेपी के विजय रथ को रोकने के लिए सीपीएम, कांग्रेस के साथ गठजोड़ के लिए तैयार है. 13 जनवरी को अगरतला में भी कांग्रेस महासचिव अजय कुमार और सीपीएम के राज्य सचिव जितेंद्र चौधरी के बीच हुई बैठक के बाद गठबंधन का ऐलान कर दिया गया.
 
बीजेपी के लिए ये दोनों पार्टियां ही सबसे बड़ी चुनौती रही है. बीजेपी को डर है कि अगर दोनों के बीच गठबंधन के कारण ये पार्टी मजबूत होती है तो उन्हें सत्ता न खोनी पड़ जाए. वहीं ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी भी त्रिपुरा में अपने किस्मत को आजमाने की कोशिश कर रही है.

त्रिपुरा में राजनीति का नया अध्याय

इस राज्य में भले ही सीपीएम और कांग्रेस गठबंधन कर चुनाव लड़ने के लिए तैयार है लेकिन. ये दोनों ही अब तक एक दूसरे की धुर विरोधी रहे हैं. त्रिपुरा में साल 1967 से विधानसभा चुनाव हो रहा है. बीते 6 दशक के राजनीतिक इतिहास में सीपीएम और कांग्रेस उत्तर और दक्षिण ध्रुव की तरह रहे हैं.

2018 तक इस राज्य में सत्ता पाने के लिए दोनों दलों में ही भिड़ंत होती रही थी. लेफ्ट और कांग्रेस एक-दूसरे की धुर विरोधी के तौर पर 53 साल राज कर चुके हैं. अब बीजेपी ने हालात ऐसे बना दिए हैं कि दोनों को एक साथ चुनाव लड़ना पड़ रहा है.

सीपीएम करना चाहती है राज्य में वापसी

पिछले विधानसभा चुनाव यानी साल 2018 से पहले सीपीएम 25 साल तक इस राज्य की सत्ता पर काबिज थी. साल 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में सीपीएम को 60 में से केवल 16 सीटें ही मिली पाई थी. 6 दशक की चुनावी राजनीति में इस राज्य में पूरे 35 साल सत्ता पर वाम दलों का कब्जा रहा है. ऐसे में सीपीएम पूरी कोशिश करेगी कि वो एक बार फिर राज्य की जनता का भरोसा जीत सके.  

यहां पहली बार साल 1978 में सीपीएम की सरकार बनी थी. साल 1998 से माणिक सरकार का दौर शुरू हुआ. उनकी अगुवाई में मार्च 1998 से लेकर मार्च  2018 तक त्रिपुरा में वाम दलों का शासन रहा. ये आंकड़े साफ बताते है कि त्रिपुरा सीपीएम के लिए कितना महत्वपूर्ण है.

कांग्रेस के लिए अस्तित्व की लड़ाई

इस राज्य में कांग्रेस का सफाया हो गया. पार्टी को अच्छे से एहसास है कि आने वाले लोकसभा चुनाव में वो अकेले त्रिपुरा की सत्ता तक नहीं पहुंच सकती है. वहीं कांग्रेस पिछले चुनाव के नतीजों से भी खौफजदा है. इस बार वह सीपीएम के साथ गठबंधन कर अपने अस्तित्व के लिए हर जरूरी कोशिश करेगी.

क्षेत्रीय दल फेर सकता है पानी

इस बार की त्रिपुरा राजनीति बीजेपी-IPFT गठबंधन और सीपीएम-कांग्रेस गठबंधन पर टिकी है. बीजेपी, सीपीएम और कांग्रेस तीनों ही राष्ट्रीय पार्टियां हैं, लेकिन त्रिपुरा में इस बार इन तीनों राष्ट्रीय पार्टियों के मंसूबे पर एक क्षेत्रीय दल पानी फेर सकता है.  चार साल से कम वक्त में ही टिपरा मोथा त्रिपुरा में एक बड़ी सियासी ताकत के रूप में उभरी है.

दरअसल टिपरा मोथा इस बार के चुनाव में नया दांव खेलते हुए बीजेपी के सहयोगी इंडिजीनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (IPFT) को अपने पाले में लाने की कोशिश कर रही है. पिछली बार के चुनाव में IPFT के साथ गठबंधन से मिले फायदे की वजह से ही बीजेपी त्रिपुरा की सत्ता पर काबिज हुई थी.

टिपरा मोथा त्रिपुरा की 60 में से 40 से 45 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी. ऐसे तो टिपरा मोथा की पकड़ यहां के आदिवासी समुदाय पर ज्यादा है, लेकिन इसके प्रमुख प्रद्योत किशोर माणिक्य देबबर्मा ने कहा है कि उनकी पार्टी गैर-टिपरासा यानी गैर-जनजातीय लोगों को भी उम्मीदवार बनाएगी. इससे बीजेपी के साथ ही सीपीएम-कांग्रेस गठबंधन के मंसूबों पर भी पानी फिर सकता है.

बीजेपी की बढ़ी मुश्किलें

त्रिपुरा में सियासी समीकरण के बदलने से भारतीय जनता पार्टी की मुश्किलें भी बढ़ गई हैं. बीजेपी को एहसास है कि त्रिपुरा की सत्ता को बरकरार रखने में इस बार और भी ज्यादा मेहनत करने की जरूरत है. वहीं टिपरा मोथा के त्रिपुरा राजनीति में एंट्री करने से बीजेपी की राह मुश्किल हो सकती है.