जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल 2022: नोबेल पुरस्कार विजेता अब्दुलराजाक गुरना ने किया ज़ांज़ीबार द्वीप को याद, साझा किए जिंदगी के कई किस्से
बातचीत का शीर्षक 'ए लाइफ इन स्टोरीज' था और इस विषय पर बात करते हुए गुरना ने अपनी जिंदगी के पन्ने एक-एक कर पलटे.
साहित्य के क्षेत्र में 2021 के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित उपन्यासकार अब्दुलराजाक गुरनाह के साथ आज जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के पहले दिन ब्रिटिश प्रकाशक एलेक्जेंड्रा प्रिंगल ने बातचीत की.
बातचीत का शीर्षक 'ए लाइफ इन स्टोरीज' था और इस विषय पर बात करते हुए गुरना ने अपनी जिंदगी के पन्ने एक-एक कर पलटे. इस दौरान ज़ांज़ीबार में बचपन, ज़ांज़ीबार क्रांति के बाद 18 साल की उम्र में उनका बाहर निकलना, और बाद में एक नए सरकार के आने के बाद वापस आना वो भी तब जब सरकार ने वादा किया कि वापस लौटने वाले सभी लोगों को माफ कर दिया जाएगा, इन सभी बातों का जिक्र हुआ.
अब्दुलराजाक गुरनाह ने कहा, "ज़ांज़ीबार ही है जिसने मुझे एक व्यक्ति और लेखक के रूप में ढ़ाला. शायद एक लेखक को अभिशाप है कि वह स्मृति पर भरोसा करता है. ऐसी बहुत सी चीजें हैं जिन्हें वह भूल जाना चाहता है लेकिन आप भूल नहीं पाते हैं.''
उन्होंने अपने बचपन के घर के बारे में बात करते हुए कहा कि उसी घर ने युवा अब्दुलराजाक को अपने पिता के मौसमी व्यापार को अरब और भारत के व्यापारियों के साथ देखने का मौका दिया. वह बेहतर अवसरों की खोज में लोगों द्वारा तटों, देशों, यहां तक कि महाद्वीपों से स्थानांतरित करने की अवधारणा से काफी पहले ही परिचित हो गए थे.
बता दें कि नाविक, व्यापारी, प्रवासी/शरणार्थी शुरू से ही गुरनाह के लेखनी में उपस्थिति रहे हैं. उदाहरण के लिए, गुरनाह के 2001 के उपन्यास बाय द सी (मैन बुकर पुरस्कार के लिए लंबे समय से सूचीबद्ध) में, एक प्यारा सा मार्ग है जहां नायक (एक पूर्वी अफ्रीकी शरणार्थी जो इंग्लैंड में प्रवेश करना चाहता है) पूर्वी अफ्रीका के उपनिवेशवाद के साथ कई मुठभेड़ों के इतिहास पर विचार करता है.
अब्दुलराजाक गुरना का जन्म 1948 में हुआ था और हिंद महासागर में ज़ांज़ीबार द्वीप पर पले लेकिन 1960 के दशक के अंत में एक शरणार्थी के रूप में इंग्लैंड चले गए थे. कुछ समय पहले तक, वह केंट विश्वविद्यालय, कैंटरबरी में अंग्रेजी और Postcolonial साहित्य के प्रोफेसर थे और दस उपन्यास और कई लघु कथाएं प्रकाशित कर चुके हैं.