जम्मू: जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने प्रदेश में 148 सालों से जारी दरबार मूव की प्रथा की समीक्षा करने की बात कही है. अदालत का मानना है कि मौजूदा समय में यह प्रथा अप्रासंगिक है. वैश्विक महामारी कोरोना वायरस के संक्रमण के बीच दरबार मूव ना कराने की मांग को लेकर वकील फैजल कादरी की जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट ने सदियों से चली आ रही दरबार मूव की प्रथा को गैर जरूरी, सरकारी खजाने पर व्यर्थ खर्च और कर्मचारियों के मौलिक अधिकारों का हनन बताया है.


इसके साथ ही कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर के गृह मंत्रालय और प्रदेश के मुख्य सचिव को इस पर फैसला लेने के निर्देश दिए हैं. जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट की डिवीजन बेंच में चीफ जस्टिस गीता मित्तल और जस्टिस रजनीश ओसवाल ने केंद्रीय गृह सचिव और जम्मू-कश्मीर के मुख्य सचिव को दरबार मूव के मुद्दे को उचित मंच के सामने रखने के निर्देश दिए है. वहीं सरकार की तरफ से दलील दी गयी थी कि इस साल कोरोना वायरस के चलते दरबार मूव नहीं किया जा रहा है और जो कर्मचारी जहां हैं उसे वहीं से काम करने की इजाजत दी जाएगी.


राज्य सरकार फैसले पर गौर करने के लिए बेंच ने साल में दो बार होने वाले दरबार मूव पर होने वाले खर्चे का ब्यौरा मांगा था. इस मामले की सुनवाई के दौरान बेंच ने पाया कि साल में दो बार होने वाले इस इस मूव से 200 करोड़ रुपये का खर्चा होता है. इसके अलावा एक बड़ी रकम बिना लेखा जोखा के खर्च की जाती है. कोर्ट ने माना की वर्तमान में सब कुछ डिजिटल है तो ऐसे में दरबार मूव करवाने का कोई प्रसंग नहीं बनता.


हाईकोर्ट ने दरबार मूव की प्रथा पर कहा कि साल 1872 में जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन शासक की असुविधा के चलते यह प्रथा शुरू हुई थी. उस समय घोड़ा गाड़ियों पर रिकॉर्ड जम्मू से श्रीनगर और फिर श्रीनगर से जम्मू लाया जाता है लेकिन मौजूदा दिनों में करीब 150 सरकारी दफ्तरों के साथ 10 हजार कर्मचारी इधर-उधर होते हैं.

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