Jammu Kashmir Assembly Election: इस साल 9 राज्यों में विधानसभा चुनाव होना तय है. इसके अलावा एक और विधानसभा चुनाव पर पूरे देश के साथ ही अंतरराष्ट्रीय मीडिया की भी निगाहें टिकी है. अगर सुरक्षा हालात ठीक रहे तो इस साल गर्मियों में  केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर (Jammu and Kashmir)में  विधानसभा चुनाव  हो सकते हैं


जम्मू-कश्मीर में परिसीमन का काम भी पूरा हो चुका है. उसके बाद चुनाव आयोग ने मतदाता सूची में संशोधन का काम भी पूरा कर लिया है. अब अगर केंद्र सरकार सुरक्षा हालात को लेकर संतुष्ट दिखेगी तो जल्द ही जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव (Legislative Assembly Election) हो सकते हैं. केंद्र सरकार सुरक्षित माहौल में चुनाव सुनिश्चित करने के लिए राज्य प्रशासन और स्थानीय नेताओं से लगातार फीडबैक ले रही है.


बदले माहौल में होगा विधानसभा चुनाव


इस बार जम्मू और कश्मीर में असेंबली चुनाव बदले-बदले माहौल में होगा. पूर्ण राज्य से केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद यहां कोई विधानसभा चुनाव नहीं हुआ है. परिसीमन के बाद जम्मू क्षेत्र और कश्मीर घाटी दोनों में ही सियासी समीकरण बदल गए हैं. आखिरी बार जम्मू-कश्मीर में 2014 में विधानसभा चुनाव हुआ था, जब लद्दाख भी उसका हिस्सा था. बीते 3 साल में जम्मू और कश्मीर का भौगौलिक नक्शा तो बदला ही है,  निर्वाचन क्षेत्रों की तस्वीर भी बदल गई है. सत्ता के सारे समीकरण इस बार नए होंगे.  अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 के हटने के बाद से ये पहला विधानसभा चुनाव होगा. 


हर पार्टी चुनाव तैयारियों में जुटी है


बीजेपी के साथ ही पीडीपी, नेशनल कॉन्फ्रेंस, और कांग्रेस भी जम्मू-कश्मीर  के सियासी दंगल को जीतने के लिए तैयारियों में जुटी हैं. सभी दलों की सक्रियता काफी बढ़ गई है. इस बार यहां पूर्व मुख्यमंत्री और  कांग्रेस से अलग हुए गुलाब नबी आजाद की डेमोक्रेटिक आजाद पार्टी पहले से मौजूद सूरमाओं का गणित बिगाड़ सकती है. पीडीपी, नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस जल्द चुनाव चाहती है. ये तीनों ही दल बीजेपी पर चुनाव में जानबूझकर देरी करने का आरोप लगाते रहे हैं. वहीं बीजेपी कहते रही है कि सुरक्षा हालात अनुकूल होने पर ही चुनाव राज्य की बेहतरी के लिए सही होगा. 


बीजेपी के लिए साख का सवाल


बीजेपी के लिए आगामी जम्मू-कश्मीर विधानसभा का चुनाव जीतना साख का सवाल होगा.  बीजेपी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने अगस्त 2019 में  जम्मू-कश्मीर का नक्शा बदल डाला था. आगामी चुनाव नतीजों को सियासी बहस में अनुच्छेद 370 हटाने और लद्दाख को अलग कर दो केंद्र शासित प्रदेश बनाने के फैसले पर जम्मू-कश्मीर का जनादेश माना जाएगा.  इस लिहाज से बीजेपी चाहेगी कि जम्मू-कश्मीर की सत्ता को वो हासिल करे. 


बीजेपी के लिए आसान नहीं रहा है सफर


बीजेपी पहली पार 2015 में यहां की सरकार में हिस्सेदार बनी थी. 2014 के विधानसभा चुनाव में सबसे ज्यादा वोट हासिल कर बीजेपी ने दिखा दिया था कि वो अब जम्मू-कश्मीर की सियासत में दमदार खिलाड़ी बन चुकी है. 2008 के चुनाव में बीजेपी को 12.45% वोट शेयर के साथ 11 सीटें मिली थी.  इसके अगले चुनाव में बीजेपी का जनाधार काफी बढ़ा. वो 10 फीसदी वोट शेयर बढ़ाने में कामयाब हुई. 2002 में बीजेपी महज एक सीट जीत पाई थी. वहीं 1996 में बीजेपी को 8 सीटें मिली थी. पहली बार 1987 के चुनाव में बीजेपी यहां 2 सीट जीतने में कामयाब हुई थी.  बीजेपी की पकड़ जम्मू क्षेत्र में अच्छी है, लेकिन उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती कश्मीर घाटी में जनाधार बढ़ाने की है. पिछली बार यानी 2014 के चुनाव में बीजेपी को कश्मीर घाटी से एक भी सीट नहीं मिली थी. बीजेपी जम्मू क्षेत्र की 37 में से 25 सीटें जीतने में कामयाब रही थी.   


पीडीपी, एनसी और कांग्रेस रही है बड़ी ताकत


जम्मू-कश्मीर की राजनीति में हमेशा से ही पीडीपी, नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस बड़ी ताकत रही है. 2014 के पहले इन्हीं तीनों दलों का दबदबा रहा था. ये तीनों ही दल अकेले बहुमत नहीं मिलने पर एक-दूसरे के साथ मिलकर सरकार बनाते रहे हैं.  2008 में हुए चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस और  कांग्रेस ने मिलकर सरकार बनाई और एनसी नेता उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बने. वहीं 2002 में पीडीपी और कांग्रेस ने मिलकर सरकार बनाई और पीडीपी नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद और कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद तीन-तीन साल के लिए मुख्यमंत्री रहने पर सहमत हुए. 1996 में स्पष्ट बहुमत के साथ एनसी नेता फारूख़ अब्दुल्ला ने सरकार बनाई. 


पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस नहीं आएंगे साथ 


संभावना जताई जा रही थी कि बीजेपी को रोकने के लिए आगामी चुनाव में पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस साथ मिलकर चुनाव लड़ सकते हैं. हालांकि अगस्त 2022 में ही नेशनल कॉन्फ्रेंस ने साफ कर दिया है कि वो चुनाव में पीडीपी के साथ कोई गठबंधन नहीं करने वाली है. ये भी सच्चाई है कि मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद कश्मीर के लोगों में पीडीपी की पैठ कम हुई है. पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती ने राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में शामिल होने का मन बनाया है. एनसी नेता उमर अब्दुल्ला भी इस यात्रा में शामिल होंगे. 


कांग्रेस के लिए जम्मू-कश्मीर में मुश्किल है राह


जम्मू-कश्मीर में 1972 में आखिरी बार कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत हासिल हुआ था और उसने अकेले दम पर यहां सरकार बनाई थी. ऐसे 2002 में बनी सरकार में वो पीडीपी के साथ हिस्सेदार थी. जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस जुलाई 2008 से सत्ता से बाहर है. उसके लिए इस बार मुश्किलें और भी बढ़ गई हैं. राज्य में पार्टी के दिग्गज नेता और पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद अब कांग्रेस से अलग होकर खुद की पार्टी के जरिए जम्मू-कश्मीर की सियासत में पकड़ बनाना चाह रहे हैं. उनके पार्टी से अलग होने से इस बार कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ सकता है. हालांकि कांग्रेस को राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा से फायदा मिलने की आस है. ये यात्रा  जनवरी में ही जम्मू-कश्मीर पहुंचेगी. यात्रा श्रीनगर में ही खत्म होगी.  कांग्रेस नेता राहुल गांधी इस यात्रा के दौरान 8 दिन यहां बिताएंगे. अब देखना होगा कि इस यात्रा से कांग्रेस के पक्ष में कितना माहौल बन पाता है.  कांग्रेस के लिए खोई सियासी जमीन को दोबारा हासिल करना आसान नहीं होगा. अगर राहुल गांधी इस यात्रा के जरिए जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस,एनसी और पीडीपी को मिलाकर नया गठबंधन बनाने की संभावना को जगा पाते हैं, तो फिर इससे बीजेपी की मुश्किलें बढ़ सकती हैं.  


2014 में हुआ था आखिरी बार विधानसभा चुनाव


जम्मू-कश्मीर में आखिरी बार विधानसभा चुनाव 2014 में 25 नवंबर से 20 दिसंबर के बीच 5 फेज में हुआ था. नतीजों में किसी भी पार्टी को बहुमत हासिल नहीं हुआ था. मुफ्ती मोहम्मद सईद की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (PDP) 28 सीट जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी. उसे 22.7% वोट मिले. बीजेपी सबसे ज्यादा वोट (23%) पाने के बावजूद 25 सीट ही जीत पाई. वहीं उस वक्त की सत्ताधारी पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस (NC) महज़ 13 सीट (20.8% वोट) ही जीत पाई. एनसी के साथ सरकार में शामिल कांग्रेस सिर्फ 12 सीट (18% वोट) ही जीत पाई. हालांकि चुनाव के पहले कांग्रेस ने फारूख अब्दुल्ला की पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस से नाता तोड़कर सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे.  


2015 में बनी पीडीपी-बीजेपी गठबंधन की सरकार


 चुनाव नतीजों के बाद सरकार बनाने को लेकर नेशनल कॉन्फ्रेंस ने बीजेपी के साथ सरकार बनाने की कोशिश की, लेकिन दोनों पार्टियों के बीच बात नहीं बनी. इसके बाद नेशनल कांफ्रेस ने सरकार बनाने के लिए बिना शर्त पीडीपी को  समर्थन देने का प्रस्ताव दिया. पीडीपी प्रमुख मुफ्ती मोहम्मद सईद ने इसे ठुकरा दिया. करीब दो महीने की बातचीत के बाद जम्मू-कश्मीर में एक नए गठबंधन का उदय हुआ. न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर  पीडीपी और बीजेपी ने मिलकर सरकार बनाई. एक मार्च 2015 को पीडीपी नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद मुख्यमंत्री और बीजेपी नेता निर्मल कुमार सिंह उप मुख्यमंत्री बनें. शपथ ग्रहण समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल हुए थे. ये पहली बार था जब जम्मू-कश्मीर में बीजेपी सरकार का हिस्सा बनी थी. 
 
जून 2018 में बीजेपी-पीडीपी की राह हुई अलग


जनवरी 2016 में पीडीपी नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद का निधन हो गया.  इसके बाद बीजेपी-पीडीपी गठबंधन में दरार आ गई और वहां गवर्नर रूल लगा दिया गया. हालांकि बाद में मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी और पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलीं. उसके बाद वे अप्रैल 2016 में जम्मू-कश्मीर की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं. जून 2018 आते-आते तक पीडीपी और बीजेपी के बीच कई मुद्दों पर तनातनी बढ़ते गई. हिजबुल मुजाहिदीन आतंकी बुरहान वाणी को सुरक्षा बलों ने 8 जुलाई 2016 को मार गिराया था. उसके बाद घाटी में तनाव बढ़ गया. मई 2018 में महबूबा मुफ्ती ने केंद्र सरकार से घाटी में रमजान के दौरान सीज़फायर की घोषणा करने की मांग की. हालांकि केंद्र सरकार ने 17 जून को हालात को देखते हुए एकतरफा सीज़फायर  से इंकार कर दिया. इसके दो ही दिन बाद बीजेपी ने पीडीपी से नाता तोड़ लिया और जम्मू-कश्मीर में गवर्नर रूल लगा दिया गया. 20 दिसंबर 2018 से वहां राष्ट्रपति शासन लागू हो गया. 31 अक्टूबर 2019 को जम्मू-कश्मीर और लद्दाख अलग-अलग केंद्र शासित प्रदेश बन गए.  


2019 में जम्मू-कश्मीर से हटा अनुच्छेद 370


अगस्त 2019 में जम्मू-कश्मीर पर नरेंद्र मोदी सरकार ने ऐतिहासिक फैसला लिया. राष्ट्रपति के आदेश से जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाला अनुच्छेद 370 हटा दिया गया.  इसके बाद केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने पांच अगस्त 2019 को राज्य सभा में जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन विधेयक, 2019 पेश किया. इसी दिन राज्य सभा से ये विधेयक पारित हो गया. इसके अगले दिन यानी 6 अगस्त को लोक सभा से ये विधेयक पारित हुआ.  जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019  के जरिए जम्मू-कश्मीर राज्य का बंटवारा कर दो केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर और लद्दाख बनाने का प्रावधान किया गया. जम्मू-कश्मीर से आर्टिकल 35A को भी हटा दिया गया. राष्‍ट्रपति ने 35A हटाने की मंजूरी दी. जम्मू कश्मीर से संबंधित अनुच्छेद 35 A राज्य के लोगों की पहचान और उनके विशेष अधिकारों से संबंधित था. अनुच्छेद 35 ए के खत्म होने से राज्य के स्थायी निवासियों की दोहरी नागरिकता भी खत्म हो गई.


जम्मू-कश्मीर बना केंद्र शासित प्रदेश 


31 अक्टूबर 2019 से देश का नक्शा बदल गया.  इस दिन से ही भारत के नक्शे पर दो नए केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर और लद्दाख अस्तित्व में आ गए. जम्मू-कश्मीर विधानसभा के साथ केंद्र शासित प्रदेश बना. वहीं लद्दाख बिना विधानसभा वाला केंद्र शासित प्रदेश बना. जम्मू और कश्मीर का अपना झंडा और अपना संविधान की व्यवस्था खत्म हो गई. सूबे से दोहरी नागरिकता खत्म हो गई.  संसद से पारित कानून अब जम्मू-कश्मीर में सीधे लागू होने लगे. जम्मू-कश्मीर विधानसभा का कार्यकाल पांच साल कर दिया गया. जो पहले छह साल का था.  पुनर्गठन के बाद जम्मू और कश्मीर की विधान परिषद समाप्त हो गई. जम्मू-कश्मीर को लोक सभा की पांच सीटें आवंटित की गई.  वहीं राज्य सभा की चार सीटें जम्मू-कश्मीर  के हिस्से आई. 


परिसीमन से बदला विधानसभा का गणित


सुप्रीम कोर्ट की पूर्व न्यायाधीश रंजना प्रकाश देसाई की अध्यक्षता वाले परिसीमन आयोग ने 5 मई 2022 को जम्मू और कश्मीर के लिए परिसीमन आदेश को अंतिम रूप दिया. इस आयोग में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा और जम्मू-कश्मीर के राज्य चुनाव आयुक्त के के शर्मा भी शामिल थे.  2011 की जनगणना के आधार पर यहां विधानसभा और संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन का काम पूरा किया गया. परिसीमन से जम्मू-कश्मीर में क्या-क्या बदला, उन्हें इन बिन्दुओं से समझा जा सकता है:


1.जम्मू और कश्मीर विधानसभा में कुल 90 सीटें (POK हटाकर) हो गई. पीओके के लिए 24 सीटें पहले से तय है, जिनपर चुनाव नहीं होते हैं.  
2. जम्मू क्षेत्र में 43 और कश्मीर घाटी में 47 सीटें हो गई.  6 सीटें जम्मू क्षेत्र में बढ़ाई गई हैं और एक सीट कश्मीर घाटी में बढ़ी है. कश्मीर घाटी से पहले 46 और जम्मू क्षेत्र से 37 सीटें थी. दोनों क्षेत्रों में सीटों का अंतर 9 से घटकर 4 रह गया है.
3. पहली बार जम्मू-कश्मीर विधानसभा में अनुसूचित जनजातियों (ST) के लिए सीट आरक्षित किया गया है. एसटी के लिए 9 सीट आरक्षित किए गए हैं. इनमें से 6 जम्मू क्षेत्र में और 3 सीट कश्मीर घाटी में हैं. 
4. अनुसूचित जाति (SC) के लिए पहले से आरक्षित 7 सीटों को बरकरार रखा गया. 
5. जम्मू-कश्मीर में 5 लोकसभा सीट (बारामूला, श्रीनगर, अनंतनाग-राजौरी, ऊधमपुर और जम्मू) हैं.  परिसीमन आयोग ने जम्मू और कश्मीर क्षेत्र को एकल केंद्र शासित प्रदेश मानते हुए घाटी में अनंतनाग क्षेत्र और जम्मू क्षेत्र के राजौरी और पुंछ को मिलाकर एक संसदीय क्षेत्र बना दिया. 
6. इस पुनर्गठन के बाद जम्मू-कश्मीर के हर लोकसभा सीट के तहत 18 विधानसभा सीट हो गई हैं.
7.अनंतनाग-राजौरी लोकसभा सीट में  7 विधानसभा सीटें जम्मू क्षेत्र से हैं, जो राजौरी और पुंछ जिले में आती हैं. वहीं इस लोकसभा सीट में 11 विधानसभा सीटें कश्मीर क्षेत्र से होंगी. ये अनंतनाग, कुलगाम और शोपियां जिले में हैं. 
8. परिसीमन के दौरान इस बात का ख्याल रखा गया कि प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र पूरी तरह से एक जिले में ही हो. सबसे निचली प्रशासनिक इकाई यानी पटवार मंडल (जम्मू नगर निगम में वार्ड) को बांटा नहीं गया और उन्हें एक विधान सभा क्षेत्र में रखा गया.
9. यहां 13 विधानसभा सीटों के नाम में भी बदलाव किए गए हैं. इनमें से 7 जम्मू डिविजन और 6 कश्मीर से हैं.  तांगमर्ग सीट का नाम बदल कर गुलमर्ग, ज़ूनीमार का नाम बदल कर जैदीबल, सोनवार का नाम बदल कर लाल चौक कर दिया गया. इसी तरह से पैडर सीट नाम बदल कर पैडर-नागसेनी और कठुआ नॉर्थ का नाम बदल कर जसरोटा कर दिया गया. कठुआ-साउथ का नाम बदल कर कठुआ, खुर सीट का नाम छंब, महोर का गुलाबगढ़, दरहाल का नाम बदल कर बुधल कर दिया गया.
10. कुछ तहसीलों को एक विधानसभा से दूसरे विधानसभा में ट्रांसफर कर दिया गया. जैसे श्रीगुफवाड़ा तहसील को पहलगाम सीट से बिजबेहरा सीट में स्थानांतरित कर दिया गया. 
11. परिसीमन आयोग ने केंद्र सरकार से विधान सभा में कश्मीरी प्रवासियों (Kashmiri Migrants) के समुदाय से कम से कम दो सदस्यों (उनमें से एक महिला होनी चाहिए) को मनोनीत (nominate)करने की भी सिफारिश की है. इन दोनों सदस्यों को पुडुचेरी विधानसभा के नामित सदस्यों की तरह सदन के अंदर वोटिंग का अधिकार होगा. 
12. इसके अलावा आयोग ने सिफारिश की है कि केंद्र सरकार पाकिस्तान अधिकृत जम्मू और कश्मीर(POK) से विस्थापित लोगों के प्रतिनिधियों के नामांकन के जरिए पाकिस्तान अधिकृत जम्मू और कश्मीर से विस्थापित लोगों को जम्मू-कश्मीर विधान सभा में कुछ प्रतिनिधित्व देने पर विचार करे.
 
जम्मू और कश्मीर में विधानसभा सीटों का आखिरी बार परिसीमन 1981 की जनगणना के आधार पर 1995 में किया गया था. उस वक्त राज्य में 12 जिले और 58 तहसीलें थी. आज 20 जिले और 270 तहसीले हैं. इनमें 10 जिले जम्मू क्षेत्र में और 10 जिले कश्मीर क्षेत्र में हैं. 


पूर्ण राज्य में कैसा था विधानसभा का गणित


जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन कानून की धारा-60 के तहत 2019 में जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश में विधान सभा सीटों की संख्या 107 से बढ़ाकर 114 करने का प्रावधान किया गया था.  दो अलग-अलग अलग केंद्र शासित प्रदेश बनने से पहले जम्मू-कश्मीर  की विधानसभा में 111 सीटें थी. इनमें से 24 सीटें पाक अधिकृत कश्मीर (POK) में पड़ती है.  बाकी बची 87 सीटों में से 46 सीटें कश्मीर घाटी, 37 सीटें जम्मू और चार सीटें लद्दाख में पड़ती थी. इन्हीं 87 सीटों पर पहले चुनाव होता था.  लद्दाख के अलग केंद्र शासित प्रदेश बन जाने के बाद जम्मू-कश्मीर के पास 83 विधान सभा सीटें बची. लद्दाख के अलग होने के बाद POK की 24 सीटें मिलाकर जम्मू-कश्मीर विधान सभा में 107 सीटें रह गई. अब यही परिसीमन के बाद 114 सीटें हो गई हैं. इस तरह से POK की 24 सीटों को छोड़कर जम्मू-कश्मीर में अब विधान सभा सीटें 83 से 90 हो गई हैं, जिन पर चुनाव होंगे. 


सीटें बढ़ने का किसको मिलेगा फायदा? 


जम्मू-कश्मीर विधानसभा में 7 सीटें बढ़ी हैं. इनमें से 6 जम्मू क्षेत्र में बढ़ी हैं और सिर्फ एक सीट ही कश्मीर क्षेत्र में बढ़ी है. इससे यहां की राजनीति में कश्मीर क्षेत्र का दबदबा कम होगा.  राजनीतिक जानकारों का कहना है कि इसका लाभ बीजेपी को मिल सकता है क्योंकि बीजेपी जम्मू क्षेत्र में पहले से ही मजबूत स्थिति में है.  यही वजह है कि पीडीपी, नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस यहां परिसीमन का विरोध कर रही थीं. इसके अलावा परिसीमन में कुछ विधानसभा सीटों की सीमाओं में बदलाव का भी इस बार असर देखने को मिल सकता है. 


एसटी के लिए आरक्षित सीटों का गणित


जम्मू-कश्मीर में पहली बार 9 सीट एसटी समुदाय के लिए आरक्षित की गई है. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह पहले ही कह चुके हैं कि यहां गुर्जर और बकरवाल की तरह पहाड़ी समुदाय को भी अनुसूचित जनजाति के तहत आरक्षण का फायदा मिलेगा. इस सियासी दांव का फायदा बीजेपी को मिल सकता है. यहां कि 20 जिलों में से 13 जिलों में पहाड़ी आबादी है. राजौरी और पुंछ जिलों में कुल आबादी के आधे से ज्यादा पहाड़ी समुदाय के लोग ही हैं. जम्मू कश्मीर में कुल आबादी में 8  फीसदी से ज्यादा पहाड़ी समुदाय के लोग हैं.  कश्मीर क्षेत्र की 8 और जम्मू क्षेत्र की 4 सीटों पर पहाड़ी समुदाय के वोट ही निर्णायक साबित होते हैं.  एसटी के लिए सीटों के आरक्षण से कश्मीर क्षेत्र में बीजेपी का जनाधार बढ़ाने में मदद मिल सकती है. साथ ही हिन्दू वोटरों के साथ-साथ बीजेपी इस दांव के जरिए मुस्लिम समुदाय में भी अपनी पैठ बढ़ाना चाहती है. 


पहाड़ी समुदाय का किसको मिलेगा समर्थन?


पहाड़ी समुदाय का एक बड़ा हिस्सा नेशनल कॉन्फ्रेंस का परंपरागत वोटर रहा है. पीडीपी और कांग्रेस भी इनके कुछ हिस्से पर पकड़ रखती है. पहाड़ी समुदाय की ज्यादातर आबादी मुस्लिम है. गैर-मुस्लिम पहाड़ी समुदाय में यहां की चारों प्रमुख पार्टियों बीजेपी, पीडीपी, नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस की थोड़ी-थोड़ी पकड़ है.  अगर पहाड़ी समुदाय को एसटी में शामिल कर दिया गया , तो इससे पीडीपी, नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ सकती है. वहीं बीजेपी के लिए सत्ता की राह आसान बन सकती है.   


नए वोटरों पर होगी पार्टियों की नजर


नवंबर 2022 में जम्मू-कश्मीर के लिए जारी संशोधित मतदाता सूची के मुताबिक यहां  7 लाख 72 हजार 872  वोटर बढ़े हैं. वोटर लिस्ट में जोड़ने के लिए 11 लाख से ज्यादा आवेदन आए थे. सूची से कुछ मतदाताओं के नाम हटाए भी गए हैं.  मसौदा सूची के मुकाबले पंजीकृत मतदाताओं में 10.19% का इजाफा हुआ है. जम्मू-कश्मीर के इतिहास में ये पहली बार हुआ है. हर पार्टियों की नजर इन नए मतदाताओं पर होगी. ये इतनी बड़ी संख्या है, जो किसी का खेल बना सकते हैं, तो किसी का बिगाड़ भी सकते हैं.


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