अरब से जो आई जुंबा मैं नहीं हूं
फक़त मैं जुबान-ए-मुसलमां नहीं हूं
कोई जा कर मेरे अदू से ये कह दो
ये मेरा भी घर है मैं मेहमां नहीं हूं...
उर्दू...तहज़ीब की एक ऐसी भाषा जो आगरा में पैदा हुई, दिल्ली में घुटनों के बल चलना सीखा और लखनऊ में जाकर जवान हुई, आज पूरे हिन्दुस्तान की भाषा है. हालांकि कुछ लोग उर्दू से सर पर टोपी और चेहरे पर दाढ़ी लगाकर उसे एक कौम विशेष की भाषा साबित करने में लगे रहते हैं, लेकिन ये किसी एक मजहब की जुबान नहीं है बल्कि सारे हिन्दुस्तानियों की जुबान है. कुछ लोगों का कहना है कि उर्दू शरहद पार की भाषा है यानी पाकिस्तान में बोली जाने वाली भाषा. यहां ये समझ लेना जरूरी है कि उर्दू पाकिस्तान की आधिकारिक भाषा तो है लेकिन वहां से अधिक लोग यहां उर्दू बोलते हैं. पाकिस्तान में लगभग डेढ़ करोड़ लोग इस ज़बान को बोलते- जानते हैं, वहीं हिन्दुस्तान में इसके बोलने- जानने वालों की तादाद लगभग साढ़े छह करोड़ है.
उर्दू है मिरा नाम मैं 'ख़ुसरव' की पहेली
मैं 'मीर' की हमराज़ हूं'ग़ालिब' की सहेली
दक्कन के 'वली' ने मुझे गोदी में खेलाया
'सौदा' के क़सीदों ने मिरा हुस्न बढ़ाया
है 'मीर' की अज़्मत कि मुझे चलना सिखाया
मैं दाग़ के आंगन में खिली बन के चमेली
उर्दू है मिरा नाम मैं 'ख़ुसरव' की पहेली
मीर, ग़ालिब, ज़ौक, सौदा से होती हुई आज की उर्दू ने काफी लंबा सफर इसी हिन्दुस्तान की धरती पर तय किया है. पहले इसे ही हम हिन्दवी कहते थे,फिर रेख़्ता कहने लगे अब इसे हिन्दुतानी या उर्दू के नाम से जाना जाता है. उर्दू भाषा के इतिहास पर नज़र डालें तो इसकी डेवलपमेंट सन 711 के आस- पास शुरू हो चुकी थी. उर्दू भाषा का विकास 711 में सिन्ध के मुस्लिम विजय के साथ शुरू हुआ. हालांकि उर्दू दिल्ली सल्तनत(1206-1526) और मुगल साम्राज्य(1526-1858) के दौरान अधिक निर्णायक रूप से विकसित हुई, जब दिल्ली सल्तनत ने डेक्कन पठार पर दक्षिण में विस्तार किया, तो साहित्यिक भाषा दक्षिण में बोली जाने वाली भाषाओं से प्रभावित हुई. इसमें हैदराबाद से गुजरात तक का योदगान रहा. मुहम्मद कुली कुतुब शाह को पहले साहेब-ए-दीवान उर्दू कवि होने का गौरव प्राप्त हुआ तो वहीं गुजरात के वली दक्कनी ने उर्दू का पहला दीवान लिखा.
धीरे-धीरे उर्दू के सबसे बुलन्द क़िले लखनऊ और दिल्ली में तामीर हुए. हिन्दवी के बाद यह दो शक्लों में तब्दील हुई जिनमें से एक हिन्दी के नाम से जानी गई जिसकी लिपि संस्कृत की लिपि यानी देवनागरी है और दूसरी उर्दू जिसकी लिपि फ़ारसी की लिपि है जिसे नस्तालीक़ कहा जाता है. आज की उर्दू हिन्दी जैसी ही है. इनमें कोई खास अंतर नज़र नहीं आता. उदाहरण के लिए अगर मैं कहूं 'मेरे मकान पर कभी तशरीफ लाएं' तो आप क्या कहेंगे ? ये कौन सी जबान है? यहां 'मेरा' शब्द हिन्दी है, मकान और तशरीफ़ अरबी शब्द है, लेकिन हम इसे आसान भाषा में इस्तेमाल करते हुए हिन्दी ही कहते हैं.
जावेद अख्तर ने बयां किया दर्द
यही बातें उर्दू को लेकर जावेद अख्तर ने भी कही है. जावेद अख्तर बॉलीवुड के बेहद फेमस लिरिसिस्ट हैं. हाल ही में गीतकार ने अपनी पत्नी शबाना आजमी के साथ शायराना-सरताज नाम की एक उर्दू शायरी एल्बम लॉन्च की थी. इस दौरान जावेद अख्तर ने उर्दू भाषा के महत्व और इसके पिछले विकास और प्रमुखता में पंजाब की भूमिका पर बात की. उन्होंने इस इवेंट में ये भी कहा कि उर्दू पाकिस्तान या मिस्र की नहीं है, यह 'हिंदुस्तान' की है.
उन्होंने कहा,'' बहुत से लोगों में भ्रम है कि उर्दू मुसलमानों की भाषा है. मैं पूछता हूं कि किस मुसलमान की, अरब के मुसलमान की या फिर अफगानिस्तान के मुसलमान की. वहां के लोग तो उर्दू बोलते ही नहीं. दरअसल, हिंदुस्तान में जो भाषा बोली जाती है, वह कई देशों और कई भाषाओं से ली गई है. मसलन, मकान अरबी, कमरा इटालियन, चिट्टा पंजाबी, बच्चा परसियन, बावर्ची और बंदूक टर्की, पिस्तौल अंग्रेजी, रिक्शा पंजाबी है. आप सोचिए, क्या हम इन शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते हैं. अब बताइए हम क्या बोल रहे हैं और यह कौन सी भाषा है. अब तक हम इन शब्दों को क्या समझते थे. दरअसल, उर्दू और हिंदी को अलग कर ही नहीं सकते.''
जावेद अख्तर से पहले साहिर ने बयां किया था दर्द
साल 1968 में साहिर ने एक नज़्म लिखी थी. मौका था 19वीं सदी के सबसे बड़े शायर मिर्ज़ा असद उल्लाह खान उर्फ ग़ालिब की 100वीं जयंती का, साहिर के नज़्म का उनवान था- जश्न-ए-ग़ालिब....इस नज़्म में साहिर ने नाराज़गी जाहिर की थी उन लोगों के खिलाफ जो उर्दू को गद्दारों की भाषा करार देते थे, उन सियासतदानों के खिलाफ जो उर्दू जैसी ज़िन्दा जुबां को कुचलने का काम कर रहे थे. वो भी उस शहर में रह कर जहां कभी इस उर्दू के सबसे बड़े शायर मिर्ज़ा ग़ालिब की धूम थी.
जिन शहरों में गुज़री थी, ग़ालिब की नवा बरसों,
उन शहरों में अब उर्दू बे नाम-ओ-निशां ठहरी
आज़ादी-ए-कामिल का ऎलान हुआ जिस दिन,
मातूब जुबां ठहरी, गद्दार जुबां ठहरी
जिस अहद-ए-सियासत ने यह ज़िन्दा जुबां कुचली,
उस अहद-ए-सियासत को मरहूमों का ग़म क्यों है
ग़ालिब जिसे कहते हैं उर्दू ही का शायर था,
उर्दू पे सितम ढा कर ग़ालिब पे करम क्यों है
साहिर ने अगली पंक्तियों में उर्दू अकादमियों द्वारा रस्म अदायगी करने वाले एक दिन के उर्दू के जलसे को लेकर भी अपनी नाराज़गी व्यक्त की थी..
ये जश्न ये हंगामे, दिलचस्प खिलौने हैं,
कुछ लोगों की कोशिश है, कुछ लोग बहल जाएं
जो वादा-ए-फ़रदा, पर अब टल नहीं सकते हैं,
मुमकिन है कि कुछ अर्सा, इस जश्न पर टल जाएं
यह जश्न मुबारक हो, पर यह भी सदाकत है,
हम लोग हक़ीकत के अहसास से आरी हैं
गांधी हो कि ग़ालिब हो, इन्साफ़ की नज़रों में,
हम दोनों के क़ातिल हैं, दोनों के पुजारी हैं
भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में जिन 22 भारतीय भाषाओं को शामिल किया गया उसमें उर्दू शामिल है. देश में लगभग भारत में लगभग 5.07 करोड़ उर्दू बोलते हैं.