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Birthday: नेता बनने के लिए पढ़ा-लिखा होना चाहिए या नहीं, जानिए क्या थी इस पर नेहरू की राय

Jawahar Lal Nehru Birthday: देश में नेताओं को पढ़ा लिखा होना चाहिए या नहीं. इस बात पर संविधान सभा की बैठक में बहस हुई थी. जानिए आखिर जवाहर लाल नेहरू की इसपर क्या राय थी.

Jawahar Lal Nehru Birthday: 14 नवंबर 1889 को इलाहाबाद में आजा़द भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का जन्म हुआ और 27 मई 1964 को उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया, लेकिन यह समय अवधि उनके शरीर रूप में दुनिया में रहने का प्रमाण है. नेहरू महज एक व्यक्ति नहीं थे जो वक्त की धूल में खो जाते. नेहरू एक विचारधारा का नाम है जो आज भी जीवित है. आधुनिक भारत के निर्माता नेहरू की विचारधारा आज भी जिंदा है और शायद इसलिए ही मशहूर शायर साहिर लुधियानवी ने उनको श्रद्धांजलि देते हुए कहा था

जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती है जिस्म मिट जाने से इंसान नहीं मर जाते

धड़कनें रुकने से अरमान नहीं मर जाते सांस थम जाने से एलान नहीं मर जाते

होंट जम जाने से फ़रमान नहीं मर जाते जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती है

20वीं सदी की बात जब-जब होगी तब-तब जितनी महानता से नेहरू का नाम लिया जाएगा उतनी महानता से न विस्टन चर्चिल को याद किया जाएगा, न फ्रांससी राष्ट्रपति चार्ल्स डी गॉल को, न रूस के अधिनायक जोसेफ स्टालिन को और न ही लोकप्रिय राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी या चीनी तानाशाह माओत्से तुंग को याद किया जाएगा. इन सब की तुलना में नेहरू बौद्धिक धरातल पर काफी आगे थे. उनका इतिहास का ज्ञान और मानवतावादि छवि इन सभी से ज्यादा बड़ी थी.

नेहरू सिर्फ राजनेता बनकर नहीं रहना चाहते थे. वह तो इंसानियत की खोज में रहते थे. एक उदाहरण 1951 में राष्ट्रसंघ में दिया गया नेहरू का वक्तव्य है. उन्होंने कहा था, '' मैं केवल प्रधानमंत्री नहीं हूं. उससे कुछ ज्यादा हूं. मैं आदमी हूं, इंसान हूं. अक्सर मैं थोड़ी-थोड़ी रोशनी पाने के लिए मन ही मन संघर्ष करता हूं. मैं दरअसल जानना चाहता हूं कि इंसान को होना कैसा चाहिए.'' नेहरू का यह वक्तव्य महज एक कही गई बात भर नहीं है बल्कि यह उनका चरित्र है. वह हमेशा 'इंसान को होना कैसा चाहिए' इसकी तलाश करते रहे.

आज भी उनके कार्यकाल में बना IIT, IIM, NID, परमाणु ऊर्जा आयोग, ISRO दुनिया भर में भारत की पहचान है. हालांकि राजनीतिक हलकों में कई बार उनके विरोधी उनपर आज भी अलग-अलग तरह के आरोप लगाते हैं. नेहरू जिस वक्त जिंदा थे तब भी उनपर कई तरह के आरोप लगाए गए और साथ ही कई बार उनकी नीतियों के लिए उनकी आलोचना भी की गई, लेकिन उन्होंने हमेशा सभी विचारधाराओं को सुना. उनके व्यक्तित्व को लेकर कभी सरोजनी नायडू ने उन्हें एक पत्र लिखा था. इस पत्र में नायडू ने नेहरू को लिखा था

'' तुम भाग्य पुरुष हो, जो भीड़ के बीच भी अकेला रहने के लिए जन्म लेता है. जिसे लोग बेहद प्यार करते हैं, लेकिन समझते कम लोग हैं.''

नेहरू की सबसे बड़ी ताकत उनका ज्ञान रहा. उन्होंने 'द डिस्कवरी ऑफ इंडिया', 'ग्लिमप्स ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री' और बायोग्राफी 'टुवर्ड फ्रीडम' जैसी कई किताबें लिखी. वह विद्धानों के लिए महापंडित, दार्शनिकों के लिए महान दार्शनिक, वैज्ञानिकों के लिए कुशल वैज्ञानिक और साहित्य और राजनीति के कुशल पंडित थे. नेहरू एक व्यक्ति नहीं बल्कि विचारों का जुलूस थे.

Birthday: नेता बनने के लिए पढ़ा-लिखा होना चाहिए या नहीं, जानिए क्या थी इस पर नेहरू की राय

नेहरू और विचारों का मतभेद

आज़ादी की लड़ाई में अग्रणी भूमिका निभाने के साथ-साथ नेहरू ने भारत के नवनिर्माण और लोकतंत्र को स्थापित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इस दौरान उनका कई बार अलग-अलग मुद्दों पर अपने ही कई साथियों के साथ मतभेद भी हुआ. सरदार पटेल हो या महात्मा गांधी  या फिर डॉ राजेंद्र प्रसाद, सबके साथ नेहरू की वैचारिक लड़ाई और असहमति रही, लेकिन इनमें से किसी ने कभी मतभेद को मनभेद नहीं बनने दिया.

असहमतियों का एक ऐसा ही किस्सा आज हम आपको बताने जा रहे हैं. यह किस्सा आजाद भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद और नेहरू के बीच घटित किस्सा है. दरअसल राजेंद्र प्रसाद संविधान सभा की 17 समितियों में से चार के अध्यक्ष थे. लेकिन संविधान का प्रारूप बनाने के दौरान कई बार उनके और नेहरू के बीच कई मुद्दों पर असहमति होती थी. ऐसे ही दो मुद्दे 'हिन्दू कोड बिल' और 'नेताओं के योग्यता को लेकर' था.

हिन्दू कोड बिल

डॉ राजेंद्र प्रसाद और पंडित जवाहरलाल नेहरू के बीच राजनीतिक मतभेदों का एक बड़ा कारण समाज में धर्म के महत्व के प्रति इन दोनों का नजरिया था. नेहरू आधुनिक समाजवाद के पक्षधर थे, उनका मानना ​​था कि धर्म के प्रति रवैया ही भारत की तत्कालीन स्थिति का मुख्य कारण था. उनके अनुसार, आजादी के बाद, भारत को वैज्ञानिक चेतना के साथ आगे बढ़ना था. देश के लिए मूर्तियों और उपासकों से ज्यादा बड़े उद्योगों, नियोजित शहरों, अस्पतालों, स्कूलों और प्रयोगशालाओं की आवश्यकता थी.

वहीं राजेंद्र प्रसाद भी प्रगति के पक्षधर थे, लेकिन भारतीय संस्कृति और लोगों की आस्थाओं की कीमत पर नहीं. वह बहुत धार्मिक व्यक्ति थे.

दोनों के बीच सबसे पहले मतभेद हिंदू कोड बिल के साथ शुरू हुआ. डॉ भीमराव अंबेडकर ने अक्टूबर 1947 में संविधान सभा में प्रारूप प्रस्तुत किया और नेहरू ने उनका समर्थन किया. इसके तहत सभी हिंदुओं के लिए एक नियम कोड बनाया जाना था. संविधान सभा के अध्यक्ष होने के नाते राजेंद्र प्रसाद ने हस्तक्षेप किया. उन्होंने सुझाव दिया कि इस तरह के नियमों को लोगों की राय को ध्यान में रखते हुए ही बनाया जाना चाहिए.

कोड बिल पर बहस धार्मिक नेताओं और रूढ़िवादी सामाजिक कार्यकर्ताओं में फैल गई जिन्होंने इसका कड़ा विरोध किया. नेहरू ने बिल को लेकर हुए विवाद पर गौर किया लेकिन कड़ा रुख अपनाया. वह बिल पास कराने को लेकर दृढ़ थे, भले ही उसका सारा दोष उन्हें अपने ऊपर लेना पड़े.

Birthday: नेता बनने के लिए पढ़ा-लिखा होना चाहिए या नहीं, जानिए क्या थी इस पर नेहरू की राय

नेहरू के रवैये से नाराज होकर राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें एक पत्र लिखा. पत्र में उन्होंने नेहरू को अन्यायपूर्ण और अलोकतांत्रिक बताया. प्रसाद ने नेहरू को पत्र भेजने से पहले सरदार वल्लभभाई पटेल के साथ पत्र साझा किया था. पटेल ने पत्र देखा और प्रसाद को गुस्से में काम नहीं करने का सुझाव दिया. उन्होंने सही तरीके से असहमति जताने की सलाह दी.

इसके बाद राजेंद्र प्रसाद आजाद भारत के पहले राष्ट्रपति बन चुके थे. उन्होंने फिर नेहरू को हिन्दू कोड बिल को लेकर एक खत लिखा. उन्होंने लिखा,'' अगर सरकार को हिंदू कोड बिल पास करना ही है, तो सिर्फ हिंदुओं पर ही फोकस क्यों है? इसमें सभी धर्मों को शामिल किया जाना चाहिए. सभी के लिए विवाह और विरासत के समान नियम बनाए जाने चाहिए.'' हालांकि नेहरू का मानना था कि अल्पसंख्यकों को कुछ छूट मिलनी चाहिए.

बाद में पहली लोकसभा ने 1955-56 में कई संशोधनों को शामिल करते हुए हिंदू कोड बिल पारित किया. इसमें हिंदू विवाह अधिनियम, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, हिंदू अल्पसंख्यक अधिनियम, संरक्षकता अधिनियम और हिंदू दत्तक ग्रहण और रखरखाव अधिनियम शामिल थे.

सांसदों और विधायकों की क्या योग्यता होनी चाहिए

राजेंद्र प्रसाद और नेहरू के बीच एक अन्य अवसर पर भी असहमति हुई थी. इस बार भी विवाद संविधान के प्रारूप से जुड़ा हुआ था. दरअसल नेहरू और राजेंद्र प्रसाद में इस बार असहमति आजाद भारत में चुने जाने वाले सांसदो और नेताओं के योग्यता को लेकर था. इस वाकिये का जिक्र भारत के प्रसिद्ध लेखक और पत्रकार कुलदीप नैयर की किताब ' एक जिन्दगी काफी नहीं' में किया गया है.

किताब में कुलदीप नैयर ने लिखा है,'' संविधान सभा के आखिरी बैठकों के दौर में एक बैठक में मैं भी मौजूद था. सभा की अध्यक्षता कर रहे डॉ राजेंद्र प्रसाद ने कहा कि उनका संविधान दुनिया का सर्वश्रेष्ठ संविधान है. जिसकी व्याख्या दुनिया के सर्वश्रेष्ठ मस्तिष्क करेंगे. सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति इसके विभिन्न प्रावधानों पर बहस करेंगे लेकिन आजाद भारत में जो लोग चुनकर आएंगे और कानून बनाएंगे उन्हें किसी तरह की शैक्षणिक योग्यता की जरूरत नहीं होगी.''

इसके बाद कुलदीप नैयर नेहरू राजेंद्र प्रसाद की इस चिंता पर पंडित नेहरू का जवाब लिखते है,''राजेंद्र प्रसाद की असहमति पर नेहरू ने कहा कि वह राजेंद्र बाबू से इस बात पर सहमत हैं कि यह सर्वश्रेष्ठ संविधान है और सर्वश्रेष्ठ मस्तिस्क इसका विश्लेषण करेंगे लेकिन मुश्किल यह है कि जब भारत आजादी की लड़ाई लड़ रहा था तो सर्वश्रेष्ठ मस्तिष्क ब्रिटिशों के टोडी थे. अनपढ़, गरीब और दबे-कुचले लोग देश के लिए अपना सबकुछ लगा रहे थे. क्या आजादी के बाद टोडियों को उनसे ज्यादा महत्व देना सही होगा.''

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नेहरू तमाम असहमतियों के बावजूद सभी की इज्जत किया करते थे. ठीक उसी तरह सभी पक्ष और विपक्ष के लोग नेहरू का सम्मान करते थे. दरसअल नेहरू भारत में जनतंत्र के प्रवक्ता थे. उनका लक्ष्य नैतिक जनतंत्र था. देश को आगे ले जाने वाली योजना उनके मस्तिष्क की उपज थी. नेहरू किसी भी अन्य नेता की तरह केंद्र में अपनी सरकार तो देखना चाहते थे लेकिन साथ ही विपक्ष भी मजबूत चाहते थे. वह यह भी चाहते थे कि लोग उनकी आलोचना करें. नेहरू में अपनी आलोचना खुद भी करने का साहस था.

एक वक्त नेहरू अपनी जय जयकार सुनकर इतना उकता गए थे कि 1957 में उन्होंने मॉडर्न टाइम्स में अपने ही खिलाफ एक ज़बर्दस्त लेख लिख दिया. ‘द राष्ट्रपति’ नाम के इस लेख में उन्होंने पाठकों को नेहरू के तानाशाही रवैये के खिलाफ चेताते हुए कहा कि नेहरू को इतना मजबूत न होने दो कि वो सीजर हो जाए. जब देश आजाद हुआ तो नेहरू के सामने चुनौतियां कई सारी थी. कुछ में वह असफल भी हुए लेकिन उनकी नीयत देश के प्रगति को लेकर हमेशा दुरुस्त रही.

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