भारत 1857 से ही अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रहा था. 90 साल की लंबी जद्दोजहद और कुर्बानी के बाद इसके हिस्से में खुशियां आईं. 1946 आते-आते देश की स्थिति बिल्कुल बदल चुकी थी. हर हिंदुस्तानी आजादी के एक नए जोश-व-जज्बे से सराबोर था. उधर ब्रिटेन में लेबर पार्टी के सत्ता में आने के बाद उम्मीदों के नए चराग़ रौशन हो गए. इसी बीच ब्रिटेन ने भारत को आजाद करने का फैसला किया. 2 अप्रैल, 1946 को कैबिनेट मिशन दिल्ली पहुंचा. इसके साथ ही देश की आजादी और बंटवारे का झगड़ा अपने चरम पर पहुंच गया. इसी दौरान ये बहस भी तेज़ हो गई कि आखिर आजाद भारत का पहला प्रधानमंत्री कौन होगा? स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में सरदार वल्लभ भाई पटेल भी आगे-आगे थे लेकिन महात्मा गांधी की बदौलत ये पद जवाहरलाल नेहरू को मिला. आखिर प्रधानमंत्री पद के लिए उनका चयन कैसे हुआ


अंग्रेज देश छोड़ने को मजबूर हो गए लेकिन सवाल ये था कि सत्ता हस्तांतरण कैसे होगा. इसके लिए भारत में अंतरिम चुनाव कराया गया. इस चुनाव में मुस्लिम लीग और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सहित कई दलों ने हिस्सा लिया, लेकिन कांग्रेस ने बड़ी जीत हासिल की. इसके बाद अंग्रेज इस नतीजे पर पहुंचे कि भारत में अंतरिम सरकार बनेगी. सरकार बनाने के लिए वायसराय की एग्जीक्यूटिव काउंसिल बनना निश्चित हुआ. ये तय हुआ कि इस काउंसिल का अध्यक्ष अंग्रेज वायसराय होगा और कांग्रेस अध्यक्ष को इसका वाइस प्रेसिडेंट बनाया जाएगा. इसके साथ ये भी साफ हो गया था कि वाइस प्रेसिडेंट ही आगे चलकर भारत का प्रधानमंत्री बनेगा.अचानक इस फैसले से कांग्रेस अध्यक्ष का पद बहुत ही महत्वपूर्ण हो गया और फिर शुरू हुई पहले प्रधानमंत्री बनने की कहानी...


उस वक्त कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर 1940 से ही मौलाना अबुल कलाम आजाद आसीन थे. कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव की घोषणा हुई, हालांकि महात्मा गांधी पहले ही साफ जाहिर कर चुके थे कि उनकी पसंद जवाहरलाल नेहरू ही हैं. लेकिन मौलाना आजाद  इस पद पर बने रहना चाहते थे. इस बात का जिक्र उन्होंने अपनी ऑटोबायोग्राफी 'इंडिया विन्स फ्रीडम' (1957) में भी किया है. उन्होंने अपनी बात घुमा फिरा कर लिखी है. उन्होंने लिखा है, ''सामान्य रुप से ये सवाल उठा कि कांग्रेस में नया चुनाव होना चाहिए और नया प्रेसिडेंट चुना जाना चाहिए. लेकिन जैसे ही ये बात प्रेस में पहुंची ,ऐसी डिमांड होने लगी कि मुझे ही दोबारा अध्यक्ष पद के लिए चुना जाना चाहिए.''


मौलाना आजाद के दोबारा अध्यक्ष बनने की खबरें हर तरफ थीं और इसे देखकर गांधी जी अपसेट हो गए. उन्होंने तब मौलाना आजाद को इस बारे में एक पत्र लिखा, ''मैंने कभी अपनी राय खुलकर नहीं बताई. जब कांग्रेस कमेटी के कुछ सदस्यों ने मुझसे पूछा तो मैंने कहा कि दोबारा उसी प्रेसीडेंट का चुनाव करना सही नहीं होगा. अगर तुम्हारी भी यही राय है तो सही होगा कि तुम एक बयान जारी करके बता दो कि तुम्हारा दोबारा प्रेसिडेंट बनने का कोई इरादा नहीं है. आज के हालात में अगर मुझसे पूछा जाए तो मैं नेहरू को प्राथमिकता दूंगा. यह कहने को लेकर मेरे पास कई वजहें हैं, लेकिन उनके बारे में क्यों बात करना?'' इस बात का जिक्र गांधी के पोते राजमोहन गांधी ने अपनी किताब 'पटेल: ए लाइफ' में किया है.



लेकिन बात सिर्फ मौलाना आजाद की नहीं थी. नेहरू के पक्ष में गांधी जी के खुले समर्थन के बावजूद कांग्रेस समिति के ज्यादातर सदस्य सरदार वल्लभभाई पटेल को कांग्रेस अध्यक्ष बनाना चाहते थे. इस पद के लिए नॉमिनेशन की आखिरी तारीख 29 अप्रैल 1946 थी. तब तक गांधी जी खुलेआम नेहरू को लेकर अपना इरादा जता चुके थे. कांग्रेस प्रदेश कमेटी की बैठक बुलाई गई. इस कमेटी के 15 सदस्यों के पास प्रेसिडेंट पद पर नॉमिनेट करने की पावर थी. 15 में से 12 सदस्यों ने सरदार वल्लभ भाई पटेल को अध्यक्ष पद के लिए नॉमिनेट किया. बाकी तीन ने किसी का नाम भी आगे नहीं बढ़ाया. यहां ध्यान देने वाली बात ये थी कि जवाहरलाल नेहरू का नाम किसी भी सदस्य ने नॉमिनेट नहीं किया.


गांधी जी की इच्छा को समझते हुए जेबी कृपलानी ने थोड़ा प्रयास किया और कुछ वर्किंग कमेटी के सदस्यों ने नेहरू का नाम आगे बढ़ाया, हालांकि प्रदेश कांग्रेस कमेटी के एक सदस्य ने भी उनके नाम पर मुहर नहीं लगाई. यहां पर गांधी ने नेहरू से पूछा, ''प्रदेश कांग्रेस केमटी के किसी सदस्य ने तुम्हें नॉमिनेट नहीं किया है. सिर्फ कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने किया है.'' इस पर नेहरू चुप्पी साधे रहे. इसके बाद गांधी जी ने कहा, ''जवाहरलाल दूसरे नंबर का पद कभी नहीं लेगा.'' और फिर उन्होंने सरदार पटेल से नॉमिनेशन वापस लेने के लिए कहा.


राजमोहन गांधी ने अपनी किताब में बताया है कि पटेल ने गांधी जी की इच्छा का विरोध इसलिए नहीं किया क्योंकि वो हालात को और खराब नहीं बनाना चाहते थे. पटेल को भी मालूम था कि नेहरू दूसरे नंबर का पद कभी नहीं लेंगे. JNU के पूर्व प्रोफेसर चमनलाल बताते हैं, ''उस वक्त कांग्रेस पार्टी के अंदर पटेल की तरह ही सोचने वाले ज्यादातर लोग थे, इसलिए सभी ने पटेल को ही नॉमिनेट किया, लेकिन पार्टी में गांधी का नैतिक प्रभाव ज्यादा था. सभी लोग गांधी जी की इच्छा को मानते थे. गांधी जी संगठन से परे ही रहे, लेकिन कांग्रेस वर्किंग कमेटी में गांधी की मर्जी चलती थी.'' यही वजह थी कि सभी ने गांधी जी की पसंद को स्वीकार किया.



पत्रकार दुर्गादास ने अपनी किताब India from Curzon to Nehru and After (1969) में लिखा है कि इस वाकये के बाद डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपना दुख जताते हुए कहा था कि एक बार फिर गांधी जी ने 'ग्लैमरस नेहरू' के लिए अपने वफादार सिपाही को दांव पर लगा दिया. ऐसा राजेंद्र प्रसाद ने इसलिए कहा क्योंकि कि इससे पहले 1929 और 1937 दोनों ही बार प्रेसिडेंट पद के चुनाव में पटेल की लीडरशिप पर गांधी जी ने हामी नहीं भरी थी.


इसके बाद सवाल उठते रहे कि गांधी ने पटेल कि बजाय नेहरू को क्यों चुना? इस पर गांधी ने कभी खुलकर जवाब नहीं दिया. इस बारे में प्रोफेसर चमनलाल बताते हैं, ''गांधी जी की निकटता तो पटेल से थी, लेकिन उन्हें हिंदुस्तान की असलियत मालूम थी. उन्हें पता था कि भारत बहुभाषी, बहुधार्मिक देश है. उन्हें लगता था कि पटेल का किसी एक धर्म की तरफ झुकाव है और इससे आगे चलकर विस्फोटक स्थिति पैदा हो सकती है, देश में तनाव बढ़ सकता है. यही वजह है कि उन्होंने नेहरू को तरजीह दी थी.''


काफी सालों बाद पत्रकार दुर्गादास को गांधी जी ने इसका जवाब दिया. महात्मा गांधी का मानना था कि कांग्रेस में अकेले जवाहरलाल नेहरू अंग्रेज थे और अंग्रेजी हुकूमत को वो पटेल से बेहतर तरीके से हैंडल कर सकते थे.



दरअसल नेहरू के अलावा गांधी जी किसी को भी काबिल नहीं मानते थे. पटेल पर नेहरू इस वजह से भी भारी पड़े क्योंकि वो जन नेता थे और लोग उनकी बातों को सिर्फ सुनते ही नहीं थे मानते भी थे. प्रोफेसर चमनलाल बताते हैं, ''नेहरू स्टार लीडर थे, जन नेता थे, लेकिन पटेल कभी भी जन नेता नहीं थे. गांधी जी ने इस पर खुलकर इसलिए नहीं बोला क्योंकि कभी-कभी सब कुछ कहना जरुरी नहीं होता. गांधी को ये मालूम था कि भारत की जो परिस्थिति है, उसे सिर्फ नेहरू ही संभाल सकते हैं. गांधी नेहरू के अलावा किसी को भी काबिल नहीं समझते थे. नेहरू में बौद्धिकता थी और वो थोड़े भावुक भी थे. पटेल कभी भावुक नहीं थे. पटेल का पब्लिक भाषण कभी किसी को प्रभावित नहीं करता था, नेहरू का भाषण सुन लोगों में लहर दौड़ जाती थी.''


इस तरह 2 सितम्बर 1946 को अंतरिम सरकार का गठन हुआ. इसके बाद जब देश आजाद हुआ तो स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री नेहरू ही बने और पटेल ने उप-प्रधानमंत्री एवं गृह मंत्री का जिम्मा संभाला. नई सरकार 15 अगस्त 1947 से गणतंत्र भारत की नींव पड़ने और अगले चुनाव तक जारी रही.



1950 में संविधान लागू होने के बाद 1951-52 में स्वतंत्र भारत का पहला आम चुनाव हुआ. ये चुनाव 25 अक्टूबर 1951 में शुरू होकर 21 फरवरी 1952 को खत्म हुआ. कांग्रेस ने 364 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत हासिल की और नेहरू ही प्रधानमंत्री बने. हालांकि, देश के प्रथम चुनाव से पहले ही 1950 में पटेल का निधन हो चुका था.




नेहरू के नाम सबसे ज्यादा समय तक (16 साल, 286 दिन)  प्रधानमंत्री रहने का रिकॉर्ड भी है. 15 अगस्त 1947 से लेकर अपने निधन के दिन 26 मई 1964 तक नेहरू इस पद पर रहे.


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